प्रधानमंत्री की अध्‍यक्षता वाली सम‍ित‍ि ने दो रिटायर्ड आइएएस ज्ञानेश कुमार और सुखबीर स‍िंंह संधु को चुनाव आयुक्‍त चुन ल‍िया है। दोनों ने अपना पद भी संभाल ल‍िया है। लेक‍िन पारदर्श‍िता का सवाल अब भी वैसे ही बना हुआ है जैसे अचानक इस्‍तीफा देने वाले अरुण गोयल की न‍ियुक्‍त‍ि के समय बनी थी। अरुण गोयल के चुनाव आयुक्त बनने पर सारा देश यह सोच कर दांतों तले अंगुली दबाने लगा था कि ऐसा कैसे हो सकता है क‍ि वीआरएस लेने के अगले ही द‍िन क‍िसी अफसर को चुनाव आयुक्‍त बना द‍िया जाए। अब जो दो नए चुनाव आयुक्‍त बनाए गए हैं, उनकी न‍ियुक्‍त‍ि प्रक्र‍िया को लेकर भी कांग्रेस ने सवाल उठाया है।

ऐसे सवाल पारदर्श‍िता कम ही करते हैं। लोकसभा चुनावों से ऐन पहले चंडीगढ़ मेयर के चुनाव में जनता ने जो धांधली देखी उससे उसका व‍िश्‍वास पहले ही ह‍िला हुआ है। यह लोकतंत्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण तो रहा ही है, भाजपा की सरकारों को भी जनता के सामने शर्मसार करने वाला रहा। यह अलग बात है कि सुप्रीम कोर्ट की तल्‍ख टिप्पणी व कड़ी कार्रवाई और सरेआम चुनावी धांधली पकड़े जाने के बावजूद प्रधानमंत्री ने उसी प्रकार एक बार भी मुंह नहीं खोला, जैसे उन्होंने मणिपुर प्रकरण में चुप्पी का उदाहरण पेश किया था।

वर्ष 1947 में देश आजाद हुआ और इसके दो साल बाद एक चुनाव आयोग का गठन कर दिया गया। उसके अगले ही महीने जनप्रतिनिधि कानून संसद में पारित कर दिया गया। इस कानून को संसद में पेश करते हुए प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उम्मीद जताई थी कि साल 1951 के बसंत तक चुनाव करवा लिए जाएंगे।

तत्कालीन संसाधानविहीन भारत में चुनाव कराने का जिम्मा 1899 में जन्मे और प्रेसीडेंसी कॉलेज और लंदन यूनिवर्सिटी से गोल्ड मेडल पाए तथा 1921 बैच के आईसीएस सुकुमार सेन के कंधे पर वर्ष 1950 में इस दायित्व के निर्वहन का भार डाला गया। बतौर न्यायाधीश कई जिलों में उनकी नियुक्ति की गई। बाद में सुकुमार सेन पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव भी बने, जहां से उन्हें प्रतिनियुक्ति पर मुख्य चुनाव आयुक्त बनाकर भेज दिया गया।

इतिहास बताता है कि उस समय मतदाताओं की कुल संख्या 17 करोड़ 60 लाख थी, जिनकी उम्र 21 या उससे ऊपर थी और जिनमें 85 फीसदी न लिख सकते थे, न पढ़ सकते थे। उन सबकी पहचान करनी थी, उनका नाम लिखना और उन्हें पंजीकृत करना था। मतदाताओं का निबंधन तो बस पहला कदम था, क्योंकि समस्या यह थी कि अधिकांश अशिक्षित मतदाताओं के लिए पार्टी प्रतीक चिह्न, मतदान पत्र और मतपेटी किस तरह बनाई जाए?

इसके बाद चुनाव के लिए मतदान केंद्र का भी चयन किया जाना था। साथ ही ईमानदार और सक्षम अधिकारी की भी नियुक्ति करनी थी। इसके अतिरिक्त आम चुनाव के साथ ही राज्यों की विधानसभा के लिए भी चुनाव होने थे। इस काम में सुकुमार सेन के साथ विभिन्न राज्यों में चुनाव अधिकारी भी काम कर रहे थे, जिनमें से अमूमन अधिकांश आईसीएस अधिकारी ही थे। वर्ष 1951 में चुनाव आयोग सालभर लोगों को फिल्म और रेडियो के माध्यम से लोकतंत्र की इस महान कवायद के बारे में जागरूक करता रहा। इन्हीं सूझबूझ से आजादी के बाद कराया गया चुनाव सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ।

देश तो संविधान से चलता है, किसी व्यक्ति विशेष के कारण नहीं। हमारे संविधान विशेषज्ञ उद्भट विद्वान थे और उन्होंने संविधान का निर्माण उस काल में किया था, जब एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना बेहद दुरूह होता था, जब एक—दूसरे की बोली समझ में नहीं आती थी, जब आज की तरह हजारों किलोमीटर चलने वाली रेलगाड़ी नहीं थी, जहां हर घंटे एक स्थान से दूसरे स्थान जाने आने के लिए दिन—रात हवाई सेवा नहीं थी, जहां टेलीफोन, मोबाइल या वीडियो कान्फ्रेन्सिंग की सोच ही नहीं थी, जहां अकाल, प्लेग और हैजे से गांव गांव, शहर शहर श्मशान में बदल जाते थे, उस संसाधानविहीन् देश का संविधान उस काल में निर्माण किया जा रहा था।

सच यह है कि लोकतंत्र में किसी को यह नहीं सोचना चाहिए कि उसके कारण ही यह संभव हो रहा है। चुनाव आयुक्त अरुण गोयल के त्यागपत्र का कारण अभी स्पष्ट नहीं है। गोयल की नियुक्ति के समय से ही विवाद था। सुप्रीम कोर्ट में भी उनकी नियुक्ति का मामला पहुंचाया था। सुप्रीम कोर्ट की ओर से चुनाव आयुक्त की नियुक्ति पर सवाल उठाए जाने और उसे लेकर पारदर्शी व्यवस्था के निर्देश के बाद सरकार की ओर से हाल ही में एक कानून बनाया गया जिसमें चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए प्रधानमंत्री की अगुवाई में तीन सदस्यीय एक समिति गठित की गई। इसके दो अन्य सदस्यों के रूप में प्रधानमंत्री की ओर से नामित वरिष्ठ कानून मंत्री के साथ ही लोकसभा में विपक्ष के नेता या सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता को रखा गया है। इससे पहले इनके चयन को अंतिम मंजूरी चयन समिति की सिफारिश पर प्रधानमंत्री ही देते थे। सरकार ने पैनल में मुख्‍य न्‍यायाधीश को रखने की सुप्रीम कोर्ट की सलाह नहीं मानी। इसने भी चुनाव आयुक्‍तों की न‍ियुक्‍त‍ि प्रक्र‍िया की पारदर्श‍िता को नकारात्‍मक रूप से प्रभाव‍ित क‍िया। यह बात विपक्षी दलों के गले के नीचे नहीं उतरती है कि चुनाव आयुक्त कोई निष्पक्ष व्यक्ति होगा।

जो भी हो, पूर्व चुनाव आयुक्त अरुण गोयल की नियुक्ति और उनका रहस्यमय तरीके से इस्तीफा देना प्रश्न चिह्न तो खड़ा करता ही है और इसपर केंद्रीय जांच एजेंसियों द्वारा जांच करना तो बनता ही है। लेकिन, क्या ऐसा हो सकेगा?

nishikant thakur
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।
यहां व्‍यक्‍त व‍िचार उनके न‍िजी व‍िचार हैं।)