जब दिल्ली की गलियारों में राजीव गांधी के उदय की आहट सुनाई दे रही थी और बिहार की राजनीति में कांग्रेस की पकड़ ढीली पड़ने लगी थी, तब सत्ता की बिसात नए मोहरों से सज रही थी। इंदिरा गांधी की राजनीतिक विरासत और संगठन पर उनका प्रभाव अब उनके बेटे के हाथों में सिमटने लगा था। यह वह दौर था जब दिल्ली हर राज्य की राजनीति को अपनी मुट्ठी में रखकर चलना चाहती थी, और बिहार, कांग्रेस के लिए एक ऐसी प्रयोगशाला बन गया था जहाँ वफादारी और जातीय संतुलन सबसे अहम कसौटी बन चुके थे।
जेपी आंदोलन भले धीमा पड़ चुका था, लेकिन उसके असर ने प्रदेश की राजनीति को झकझोर दिया था। समाजवादी विचार, जातीय पहचान और सत्ता का केंद्रीकरण – इन तीनों ने मिलकर बिहार की सियासत को नए मोड़ पर ला खड़ा किया। इसी उथल-पुथल में एक ऐसा चेहरा सामने आया, जो न आंदोलन की उपज था, न जनसभा का शोर मचाने वाला नेता। शांत, सधे हुए और नपी-तुली राजनीतिक समझ रखने वाले उस व्यक्ति ने दिल्ली के इशारे पर बिहार की सत्ता संभाली।
वह चेहरा था चंद्रशेखर सिंह का – कांग्रेस के भरोसेमंद सिपाही, जिन्हें 1983 में अचानक मुख्यमंत्री बना दिया गया। यह नियुक्ति किसी जनआंदोलन या संगठनात्मक लोकतंत्र की उपज नहीं थी, बल्कि दिल्ली की राजनीतिक प्रयोगशाला में तैयार की गई वह चाल थी जिसने बिहार में कांग्रेस की सत्ता को टिकाए रखने की कोशिश की। चंद्रशेखर सिंह न तो करिश्माई जननेता थे, न जातीय लामबंदी के केंद्र में थे, लेकिन वे उस दौर की सत्ता-संरचना का सटीक प्रतिबिंब थे — जहाँ सत्ता तक पहुंचने का रास्ता जनता से नहीं, बल्कि दिल्ली की मंजूरी से होकर गुजरता था।
11 अगस्त 1983 की उमस भरी दोपहर थी। दिल्ली से एक फोन आया और बिहार की राजनीति की दिशा बदल गई। कांग्रेस आलाकमान के बुलावे पर मुख्यमंत्री डॉ. जगन्नाथ मिश्र को अचानक राजधानी पहुंचना पड़ा। बंद कमरे में हुई बैठक से निकलने के बाद पार्टी के महासचिव राजीव गांधी ने मीडिया के सामने घोषणा की कि “डॉ. मिश्र ने इस्तीफा दे दिया है, जल्द ही बिहार को नया नेता मिलेगा।” यह वक्तव्य केवल एक प्रशासनिक बदलाव नहीं था, बल्कि इसने बिहार में दिल्ली-निर्देशित सत्ता नियंत्रण की एक और कहानी लिख दी।
मिश्र की विदाई के साथ ही मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए दौड़ शुरू हो गई। पार्टी के भीतर गुटबाजी चरम पर थी—सीताराम केसरी, भीष्म नारायण सिंह और कई अन्य वरिष्ठ नेता इस रेस में थे। पटना और दिल्ली के बीच रस्साकशी चल रही थी। एक समय तो यह भी लग रहा था कि मिश्र समर्थक विधायक खुलकर बगावत कर देंगे, परंतु ऐसा नहीं हुआ। राजीव गांधी ने अपने दो विश्वस्त नेताओं, केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी और अरुण नेहरू को पटना भेजा। दोनों ने विधायकों से लंबी बातचीत कर यह परखने की कोशिश की कि किस पर सबसे ज्यादा भरोसा किया जा सकता है। 13 अगस्त तक तस्वीर साफ हो चुकी थी—बांका से लोकसभा सांसद और केंद्रीय ऊर्जा राज्यमंत्री चंद्रशेखर सिंह का नाम लगभग तय हो चुका था।
औपचारिक मतदान की जरूरत नहीं पड़ी। कांग्रेस (आई) की परंपरा के अनुसार सिंह को सर्वसम्मति से विधायक दल का नेता घोषित कर दिया गया। 14 अगस्त 1983 को उन्होंने राजभवन में मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
जमुई जिले के एक प्रभावशाली राजपूत जमींदार परिवार में जन्मे चंद्रशेखर सिंह की राजनीति की शुरुआत आजादी के बाद पहले विधानसभा चुनावों से हुई थी। 1952, 1957 और 1969 में वे झाझा विधानसभा क्षेत्र से जीतकर विधानसभा पहुंचे। उनकी पहचान 1980 के लोकसभा चुनावों में राष्ट्रीय स्तर पर बनी, जब उन्होंने बांका से वरिष्ठ समाजवादी नेता मधु लिमये को हराया—वही लिमये जिन्होंने 1977 में जनता पार्टी की लहर पर कांग्रेस को पराजित किया था। इस जीत ने सिंह को राजीव युग के भरोसेमंद नेताओं की कतार में खड़ा कर दिया।
मुख्यमंत्री बनने के बाद सिंह ने लोकसभा से इस्तीफा दिया और विधानसभा उपचुनाव में विजय पाई। इसी दौरान उनकी पत्नी मनोरमा सिंह ने उनके द्वारा खाली की गई बांका लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। यह पारिवारिक जीत बिहार की उस परंपरा को दिखाती है जहां राजनीतिक विरासत अक्सर परिवार के भीतर ही चलती रही।
कांग्रेस नेतृत्व ने सिंह की नियुक्ति केवल राजनीतिक योग्यता के आधार पर नहीं, बल्कि जातीय समीकरणों को ध्यान में रखकर की थी। उत्तर प्रदेश में 1982 में ठाकुर (राजपूत) नेता वी.पी. सिंह को हटाकर ब्राह्मण श्रीपति मिश्रा को मुख्यमंत्री बनाया गया था। बिहार में राजपूत नेता को आगे लाकर पार्टी ने दो राज्यों में जातीय संतुलन साधने की कोशिश की। हालांकि, इस रणनीति ने यह भी दिखा दिया कि कांग्रेस अब भी ऊंची जातियों के नेतृत्व पर ही भरोसा कर रही थी, जबकि ओबीसी और दलित नेतृत्व को दरकिनार कर रही थी। यह वही बीज थे, जिनसे आगे चलकर मंडल राजनीति ने जन्म लिया।
1984 का वर्ष भारतीय राजनीति के लिए उथल-पुथल भरा रहा। जून में हुआ ऑपरेशन ब्लू स्टार, अक्टूबर में इंदिरा गांधी की हत्या और फिर राजीव गांधी का प्रधानमंत्री बनना—इन सबके बीच चंद्रशेखर सिंह बिहार की बागडोर संभाले हुए थे। दिसंबर 1984 में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने 324 में से 196 सीटें जीतकर स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया। सिंह ने बांका से जीत दर्ज की और अपना जनादेश और मजबूत किया।
लेकिन कांग्रेस की राजनीति में जीत का मतलब स्थायित्व नहीं था। 1985 में राजीव गांधी ने बिंदेश्वरी दुबे, जो ब्राह्मण और ट्रेड यूनियन नेता थे, को बिहार का नया मुख्यमंत्री बना दिया। उसी दौरान जातीय संतुलन के तहत उत्तर प्रदेश में एक और राजपूत बीर बहादुर सिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया। यह फेरबदल कांग्रेस की उसी रणनीति का हिस्सा था जिसमें वफादारी को योग्यता पर प्राथमिकता दी जाती थी।
राज्य की राजनीति से हटाए जाने के बाद चंद्रशेखर सिंह को केंद्र में पेट्रोलियम मंत्री बनाया गया। उनकी पत्नी मनोरमा सिंह ने 1984 में भाजपा नेता जनार्दन यादव को हराया था और बाद में सीट पति के लिए छोड़ दी। उपचुनाव में चंद्रशेखर सिंह ने जॉर्ज फर्नांडीस जैसे दिग्गज नेता को हराकर संसद में वापसी की। यह जीत दिखाती थी कि उनके गृह क्षेत्र में उनकी जनप्रियता अटूट थी।
केंद्रीय मंत्री रहते हुए जुलाई 1986 में दिल्ली में कैंसर से उनका निधन हो गया। सिर्फ 53 वर्ष की उम्र में खत्म हुई यह यात्रा बिहार की राजनीति के एक महत्वपूर्ण युग की कहानी कह गई—एक ऐसा दौर जब कांग्रेस का हर निर्णय दिल्ली में होता था, जब जातीय समीकरण सत्ता की चाबी थे, और जब वफादारी राजनीति की सबसे बड़ी योग्यता मानी जाती थी।
चंद्रशेखर सिंह का एक वर्ष का कार्यकाल भले ही अल्पकालिक था, लेकिन वह कांग्रेस की केंद्रीकृत राजनीति, जातीय गणित और सत्ता प्रबंधन की उस शैली का प्रतीक था जिसने आगे चलकर पार्टी के पतन की नींव रखी। उनकी कहानी एक ऐसे नेता की दास्तान है जिसने दिल्ली की राजनीति के आदेशों के बीच अपनी ईमानदारी और विनम्रता से बिहार के इतिहास में अपना छोटा लेकिन चमकदार अध्याय लिखा।
