जब दिल्ली की सत्ता में इंदिरा गांधी के लौटने की आहट थी और बिहार की गलियों में जेपी आंदोलन की आवाज अब भी बाकी थी, तब राज्य की राजनीति किसी प्रयोगशाला की तरह उबल रही थी। समाजवाद, जातीय पहचान और सत्ता की भूख – तीनों का संगम बिहार को एक नए दौर में धकेल रहा था। इसी हलचल के बीच एक ऐसा चेहरा मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचा, जो न तो आरक्षण की जंग का योद्धा था और न ही सियासी तूफानों का शोर मचाने वाला नेता – फिर भी वह उस दौर के सत्ता समीकरणों की कुंजी बन गया। वह चेहरा था राम सुंदर दास का – बिहार के 15वें मुख्यमंत्री, जिनकी कहानी सत्ता, समझौते और जातीय संतुलन का अद्भुत संगम है। जिन्होंने ओबीसी बनाम एससी की राजनीति के बीच सत्ता संतुलन साधा और बिहार की जातीय राजनीति का नया अध्याय लिखा।

कर्पूरी ठाकुर की आरक्षण क्रांति और सियासी भूकंप

1978 – बिहार। मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने अपने सामाजिक न्याय एजेंडे के तहत ऐतिहासिक कदम उठाया। उन्होंने सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में 26% आरक्षण अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए तय किया, जिसमें अति पिछड़ा वर्ग (MBC) को अलग उप-कोटा मिला। यह अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के मौजूदा आरक्षण से इतर था।

लेकिन बिहार उस समय एक गहराई से बंटी हुई सामाजिक रचना था। ऊंची जातियों का वर्चस्व, सत्ता की ठोस पकड़ और नई आरक्षण नीति के कारण छिड़ी असंतोष की आग – सबने मिलकर ठाकुर सरकार को हिला दिया। कई उच्च जाति के मंत्रियों ने विरोध में इस्तीफे दे दिए। राज्य की गलियों में नारे गूंजे – “मेरिट बचाओ, आरक्षण हटाओ” और जनता पार्टी की भीतरी दरारें चौड़ी हो गईं।

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ठाकुर का संकल्प अडिग था, पर राजनीतिक आधार खिसक रहा था। अप्रैल 1979 तक स्थिति विस्फोटक हो गई – और ठाकुर बहुमत खो बैठे। 20 अप्रैल 1979 को उन्हें मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा। राम सुंदर दास: विरोध की राख से निकला ‘समझौते का चेहरा’

जब ठाकुर गिरे, जनता पार्टी के सामने संकट था – आरक्षण की आग बुझाने और बिखरते गठबंधन को थामने के लिए एक ऐसा नेता चाहिए था जो सबको स्वीकार्य हो। तब सामने आया एक शांत, विनम्र, पर राजनीतिक रूप से परिपक्व नाम – राम सुंदर दास। दलित पृष्ठभूमि से आने वाले दास स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही रह चुके थे। सारण जिले में जन्मे, उन्होंने 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में हिस्सा लिया था। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से राजनीति शुरू की, फिर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (PSP) में आए, और 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर सोनपुर से विधायक बने।

21 अप्रैल 1979 को उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। उनका चयन राजनीतिक शांति की कोशिश थी – एक एससी नेता को लाकर ओबीसी आंदोलन के असर को संतुलित करने की रणनीति।

आरक्षण पर नया मोड़: जब नीति का अर्थ बदला

मुख्यमंत्री बनते ही दास ने आरक्षण नीति में अहम संशोधन किया। 10 जुलाई 1979 को उनकी सरकार ने स्पष्ट किया कि “आरक्षण के लाभ के बिना चुने गए एससी/एसटी, ओबीसी या एमबीसी उम्मीदवार भी आरक्षित कोटे में गिने जाएंगे।” इस बदलाव ने कर्पूरी ठाकुर की मूल नीति की धार कुंद कर दी। ‘योग्यता बनाम आरक्षण’ की नई बहस ने ओबीसी बनाम एससी का एक नया विभाजन गढ़ा। सियासी संदेश साफ था – उच्च जातियों की नाराज़गी शांत करने के लिए आरक्षण के दायरे को सीमित करना।

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पत्रकार संतोष सिंह ने अपनी किताब “जननायक कर्पूरी ठाकुर: वॉयस ऑफ द वॉइसलेस” में लिखा है – “राम सुंदर दास को ठाकुर की ओबीसी राजनीति के प्रतिकार के रूप में पेश किया गया था – एक ऐसा संतुलन जो समाजिक न्याय की दिशा बदल गया।”

जनता पार्टी का बिखराव और केंद्र की चाल

पर दास जब सत्ता में आए, जनता पार्टी पहले ही बिखर चुकी थी। समाजवादी बनाम जनसंघ के टकराव ने गठबंधन की नींव हिला दी थी। ‘दोहरी सदस्यता’ के मुद्दे पर आरएसएस से जुड़े नेताओं से पार्टी छोड़ने को कहा गया, और फिर मोरारजी देसाई व चौधरी चरण सिंह के बीच टकराव खुलकर सामने आ गया।

चरण सिंह ने इस्तीफ़ा दिया, ‘जनता पार्टी (सेक्युलर)’ बनाई – और बिहार में कर्पूरी ठाकुर भी इसी गुट में चले गए। इस राजनीतिक अस्थिरता का असर बिहार की सरकार पर पड़ा। केंद्र में जब इंदिरा गांधी लौटीं, तो उन्होंने 17 फरवरी 1980 को सभी गैर-कांग्रेसी राज्य सरकारें बर्खास्त कर दीं। राम सुंदर दास की सरकार भी उनमें से एक थी – सिर्फ दस महीने में उनका कार्यकाल खत्म हो गया।

अंतिम अध्याय: हार, वापसी और विरासत

सरकार के बर्खास्त होने के बाद दास ने जनता पार्टी के साथ बने रहना चुना, लेकिन जल्द ही सोनपुर से चुनाव हार गए – वह भी लालू प्रसाद यादव से, जो तब कर्पूरी ठाकुर के करीबी थे। 1990 में उन्होंने दोबारा यह सीट जीती, 1991 में हाजीपुर से लोकसभा पहुंचे, और 2009 में जनता दल (यू) के टिकट पर फिर से हाजीपुर जीता – इस बार उन्होंने रामविलास पासवान को पराजित किया।

2015 में 95 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ। वह बिहार की राजनीति के उस दौर के गवाह थे, जब सत्ता, जाति और वैचारिक टकरावों के बीच ‘समझौते का रास्ता’ ही शासन का एकमात्र उपाय बन गया था। राम सुंदर दास का कार्यकाल छोटा था, पर प्रतीकात्मक रूप से बड़ा – वह उस दौर का आईना था, जब बिहार की राजनीति ‘सामाजिक न्याय बनाम सत्ता संतुलन’ के बीच झूल रही थी। कर्पूरी ठाकुर ने आग जलाई थी, राम सुंदर दास ने उसे बुझाने की कोशिश की – पर दोनों ने मिलकर बिहार की राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया।