राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरसंघचालक मोहन भागवत (Mohan Bhagwat) ने संघ के लोगों से आग्रह किया है कि वे डॉ. भीमराव अंबेडकर (Dr. Bhim Rao Ambedkar) को पढ़ें। बुधवार (24 अक्टूबर) को आरएसएस (Rashtriya Swayamsevak Sangh) के 98वें स्थापना दिवस समारोह (RSS Foundation Day) का आयोजन नागपुर के रेशिम बाग मैदान में हुआ था।

वार्षिक विजयादशमी संबोधन में भागवत ने सभी स्वयंसेवकों से संविधान सभा (Constituent Assembly) में डॉ. अंबेडकर द्वारा दिए आखिरी दो भाषणों को उसी तरह पढ़ने का आग्रह किया, जैसे वे आरएसएस के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार (Keshav Baliram Hedgewar) को पढ़ते हैं।

मोहन भागवत ने ऐसा कहकर, आरएसएस की वर्षों पुरानी उस प्रथा को आगे बढ़ाया, जिसके तहत डॉ. अंबेडकर की प्रशंसा की जाती रही है। विशेष रूप से 2014 में केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद, संघ ने अंबेडकर की विरासत को आक्रामक रूप से अपनाने की कोशिश की है।

अब सवाल उठता है कि संघ का ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ डॉ. अंबेडकर के गणतांत्रिक आदर्शों से कैसे मेल खाता है? डॉ. अंबेडकर ने तो हिंदी धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म भी अपना लिया था। आइए जानते संघ का डॉ. अंबेडकर को लेकर क्या रुख रहा हैं:

संविधान और अंबेडकर की आलोचना में छापा था लेख

संघ के वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत ने विजयदशमी के मौके पर भले ही अपने संगठन के लोगों को संविधान सभा में अंबेडकर के दिए भाषणों को पढ़ने की सलाह दी हो, लेकिन इतिहास में संघ का रवैया अलग रहा है।

जब अंबेडकर भारतीय संविधान को अंतिम रूप दे रहे थे और हिंदू पर्सनल लॉ में सुधार की वकालत कर रहे थे, तो संघ और उसकी अंग्रेजी मैगजीन ऑर्गनाइज़र ने अंबेडकर और उनके काम की कड़ी आलोचना की थी। इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने 2016 में द इंडियन एक्सप्रेस में ‘Which Ambedkar?’ शीर्षक से एक लेख लिखा था।

इस लेख में गुहा ने याद दिलाया था कि अंबेडकर द्वारा संविधान सभा में संविधान का अंतिम मसौदा पेश करने के बाद ऑर्गनाइज़र ने संविधान पर एक संपादकीय छापा था। 30 नवंबर, 1949 के उस अंक में ऑर्गनाइज़र ने लिखा था, “भारत के नए संविधान के बारे में सबसे बुरी बात यह है कि इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है… इसमें प्राचीन भारतीय संवैधानिक कानूनों, संस्थानों, नामकरण और कथनशैली का कोई निशान नहीं है।”

संघ ने अंबेडकर द्वारा लाए गए उस हिंदू कोड बिल का भी विरोध किया था, जिसमें हिंदू महिलाओं को अपनी जाति के बाहर शादी करने, अपने पति को तलाक देने और संपत्ति के उत्तराधिकार के अधिकार की मांग की गई थी। गुहा ने लिखा, “1949 में आरएसएस ने बिल को रोकने के लिए पूरे भारत में सैकड़ों बैठकें और विरोध प्रदर्शन आयोजित किए। संघ के उन आयोजनों में साधु और संत अपनी बात रखी थी।”

दो बड़े झटकों से संघ की खुली आंख!

1925 में अपने गठन के बाद से आरएसएस ने हमेशा ‘हिंदू एकता’ की बात की है। लेकिन सामान्य तौर पर ऊंची जातियों और विशेष रूप से ब्राह्मणों के प्रभुत्व के कारण इसके नेतृत्व की आलोचना की गई। दो घटनाओं को आरएसएस के “हिंदुओं को एकजुट करने” के प्रयास के लिए झटके के रूप में देखा गया।

एक था, अंबेडकर के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर दलितों का धर्मांतरण। 1956 में विजयादशमी के मौके पर जब एक तरफ आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक नागपुर के रेशमबाग में स्वयंसेवकों को संबोधित कर रहे थे। उसी समय शहर के दूसरे हिस्से में अंबेडकर लगभग पांच लाख अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपना रहे थे।

दूसरी बड़ी घटना थी, 1981 की मीनाक्षीपुरम घटना। तब तमिलनाडु के तिरुनेलवेली जिले में कथित निचली जाति के सैकड़ों हिंदुओं ने इस्लाम धर्म अपना लिया था। इस वक्त तक आरएसएस ने अंबेडकर और दलितों को जोड़ने का प्रयास शुरू नहीं किया था।

घटना के बाद, घबराए हुए आरएसएस ने देश भर में ‘हिंदू समागम’ का आयोजन करना शुरू कर दिया। 1982 में बैंगलोर में आयोजित ऐसे ही एक कार्यक्रम में संघ के स्वयंसेवकों ने घोषणा की थी, “हिंदवः सहोदरा सर्वे (सभी हिंदू भाई हैं)।” (दोनों घटनाओं के बारे में विस्तार से पढ़ने और अंबेडकर को लेकर संघ में आए बदलाव को जानने के लिए लिंक पर क्लिक करें)