बांग्लादेश में जारी सरकार विरोधी प्रदर्शनों के बीच प्रधानमंत्री शेख हसीना ने सोमवार को अपने पद से इस्तीफा दे दिया और सेना के हेलीकॉप्टर से देश छोड़कर भाग गईं। बांग्लादेश के सेना प्रमुख जनरल वकार-उज-जमां ने इस बात की जानकारी देते हुए कहा कि हसीना ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है और एक अंतरिम सरकार कार्यभार संभालने जा रही है। शेख हसीना का विमान लंदन जाने की उनकी योजना के तहत गाजियाबाद स्थित हिंडन एयरबेस पर उतरा। सूत्रों ने बताया कि शेख हसीना के विमान के एयरबेस पर उतरने के कुछ समय बाद एनएसए अजित डोभाल ने उनसे मुलाकात की।
इन सबके बीच सवाल यह उठता है कि भारत और बांग्लादेश के संबंध कैसे रहे हैं और इस नए परिवेश में भारत को बांग्लादेश के साथ कैसे डील करना चाहिए और पड़ोसी देश में इस अशांति का भारत पर क्या असर पड़ेगा?
सी राजा मोहन के अनुसार, भारत को शेख हसीना के इस्तीफे के बाद बांग्लादेश के साथ संबंधों के लिए बहुत अधिक राजनीतिक और कूटनीतिक कौशल की आवश्यकता होगी। जो संकट अभी शुरू हुआ है, उसमें भारतीय शासन व्यवस्था के सामने पांच प्रश्न खड़े हैं।
भारत ने शेख हसीना को सुरक्षित निकाला
पहला, क्या भारत अपने दोस्तों के साथ खड़ा हो सकता है? भारत ने निश्चित रूप से यह ध्यान दिया कि ढाका में गुस्साए प्रदर्शनकारियों के उनके आवास पर घुसने से पहले शेख हसीना को सुरक्षित निकाल लिया जाए। 50 साल पहले की कहानी बिल्कुल अलग थी जब दिल्ली 15 अगस्त, 1975 को तख्तापलट करने वालों द्वारा शेख हसीना के पिता और गणतंत्र के संस्थापक मुजीबुर रहमान और उनके परिवार के अधिकांश लोगों की हत्या को रोक नहीं सकी थी।
भारत को 1992 में भी ऐसी ही विफलता मिली थी जब पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी समूहों ने काबुल पर कब्ज़ा कर लिया था। भारत राष्ट्रपति नजीबुल्लाह को संकट से नहीं निकाल सकी थी। चार साल बाद, जब तालिबान ने काबुल पर नियंत्रण हासिल कर लिया तो उसने नजीबुल्लाह को संयुक्त राष्ट्र की कस्टडी से लेकर उन्हें एक लैंप पोस्ट से लटका दिया था।
भारत को शेख हसीना से दूर रहना और उनके विरोधियों से उलझना होगा
दूसरी बात, सुख-दुख में दोस्तों के साथ खड़ा रहना किसी क्षेत्र और उसके बाहर किसी प्रमुख शक्ति की विश्वसनीयता का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है लेकिन कोई भी राष्ट्र अपनी किस्मत किसी दूसरे व्यक्ति या पार्टी से नहीं बांध सकता। दिल्ली के लिए तात्कालिक चुनौती खुद को शेख हसीना से दूर रखना और उनके विरोधियों से उलझना है।
शेख हसीना के खिलाफ बढ़ती नफरत का भारत पर असर
पूर्व पीएम हसीना की दूरदर्शी दृष्टि की बदौलत पिछले कुछ दशकों में द्विपक्षीय संबंधों में नाटकीय परिवर्तन देखा गया है। लेकिन हसीना के अधिनायकवाद की ओर बढ़ने और घरेलू स्तर पर उनके कमजोर होने ने उन संबंधों की स्थिरता पर भी असर डाला है। चाहे जो भी हो भारत की शेख हसीना से काफी करीबी है और उनके खिलाफ बढ़ती नफरत का असर भारत के खिलाफ होना तय है। शेख हसीना के खिलाफ घटते समर्थन और देश में कम होती उनकी लोकप्रियता के बीच बढ़ता यह तनाव पिछले कुछ सालों में देखने को भी मिला है।
जब अमेरिकी प्रशासन द्वारा शेख हसीना की गिरती राजनीतिक विश्वसनीयता पर सवाल उठाया गया तो भारत में लोगों ने ज़मीन पर बदलती वास्तविकता को अपनाने के बजाय वाशिंगटन पर ही सवाल उठाए। सी राजा मोहन लिखते हैं कि हालांकि, सरकारी एजेंसियां सार्वजनिक तर्क से थोड़ी अधिक समझदार थीं।

अगले कुछ दिनों में पता चलेगा कि क्या भारत ने बांग्लादेश के विपक्ष के प्रमुख लोगों के साथ ठीकठाक संबंध विकसित किए हैं, जिनकी जनता के गुस्से को शांत करने, एक स्थिर अंतरिम सरकार प्रदान करने और दोनों देशों के बीच साझेदारी को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका है।
पाकिस्तान और चीन करेंगे बांग्लादेश की अशांति का फायदा उठाने की कोशिश
तीसरा मुद्दा यह है कि दिल्ली को यह याद रखना चाहिए कि पाकिस्तान और चीन ढाका में मौजूदा अशांति का फायदा उठाने की कोशिश करेंगे और आने वाले दिनों में नई सरकार को भारत से दूर कर देंगे। भारत को वर्तमान समय में हिंसा को रोकने के लिए अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप जैसे भागीदारों के साथ काम करने की आवश्यकता होगी और बांग्लादेश के भीतर नई व्यवस्था के साथ शांतिपूर्ण बदलाव लाने के लिए बांग्लादेश सेना के साथ काम करना होगा।
पाकिस्तान के अलावा तुर्की लंबे समय से बांग्लादेश में फैली अराजकता पर नजर रख रहा है। बांग्लादेश के आर्थिक स्थिरीकरण और उग्रवाद के खतरों को सीमित करने के लिए और रास्ते निकालने के लिए दिल्ली को खाड़ी में अपने सहयोगियों, विशेष रूप से संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब के साथ काम करना होगा।

बांग्लादेश की आजादी और भारत
चौथी बात जो भारत को ध्यान में रखनी होगी वह यह है कि उसे 1971 में बांग्लादेश की आजादी को खुद से जोड़कर ग्लोरीफाई करना बंद करना चाहिए। बांग्लादेश अपने इतिहास को लेकर बंटा हुआ है और यह एक ऐसी सच्चाई है जिसे दिल्ली नज़रअंदाज नहीं कर सकती। बांग्लादेश में कई ताकतें बांग्लादेश की मुक्ति पर शेख हसीना (और भारत) की कहानी से सहमत नहीं हैं।
अपनी कहानी को जनता के गले उतारने के शेख हसीना के अथक प्रयास के खिलाफ प्रतिक्रिया पहले से ही दिखाई दे रही है और आने वाले दिनों में और मजबूत हो सकती है। दिल्ली को इतिहास पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना और दीर्घकालिक पारस्परिक हित के आधार पर इन “मुक्ति-विरोधी” ताकतों के साथ जुड़ने की जरूरत है। हालाँकि हसीना के पास 1971 में अटके रहने के कारण हो सकते हैं, लेकिन भारत के पास इससे बंधे रहने के लिए बहुत कम रणनीतिक कारण है।
बांग्लादेश की अपनी राजनीति
भारत-बांग्लादेश संबंधों की कहानी सिर्फ 1971 की नहीं है। 1947 के विभाजन ने रिश्ते पर काली छाया डालना कभी बंद नहीं किया। पिछले कुछ सालों में दिल्ली और ढाका ने विभाजन की कई कड़वी सच्चाइयों पर काबू पाने की कोशिश की है लेकिन बांग्लादेश में उभरता संकट इस बात की याद दिलाता है कि दोनों पक्ष अभी इसमें सफल नहीं हुए हैं।
सबसे अहम बात जो भारत को ध्यान में रखनी होगी कि भारतीय विदेश नीतिकारों को यह समझना होगा कि पड़ोस में विकास केवल भारतीय संकल्प, सद्भावना या रणनीति के बारे में नहीं है। भारत के पड़ोसियों की अपनी राजनीति है जिसे दिल्ली द्वारा निर्धारित नहीं किया जा सकता। देश और दुनिया में अपने राजनीतिक संबंधों को आकार देने में उनकी अपनी एजेंसी भी है।
ऐसे में बदलते बांग्लादेश के साथ संबंध बनाने के लिए भारत को अत्यधिक रणनीतिक धैर्य, विश्वास की साथ-साथ व्यापार और विभाजन संबंधी विकृतियों से पार पाने के लिए एक मजबूत राजनीतिक प्रतिबद्धता की आवश्यकता होगी।