बिहार की सियासत में कुछ नाम वक्त गुजर जाने के बाद भी जहन में ताजा रहते हैं। उनमें से एक हैं कृष्ण बल्लभ सहाय – बिहार के चौथे मुख्यमंत्री। उनका नाम बिहार की राजनीति में ऐसा रहा, जो अपने सख्त तेवर, ईमानदार छवि और जमीन से जुड़े फैसलों के लिए जाना गया। एक ऐसा नेता, जिसने सत्ता को नहीं, सिस्टम को बदलने की ठानी। जिसने जमींदारी प्रथा के खिलाफ कानून बनाकर इतिहास लिख दिया, और बेबाकी से कहा – “मेरे पास दिमाग और ताकत है, मगर जुबान नहीं।” यह कहानी है उस सख्त मगर ईमानदार मुख्यमंत्री की, जिसने बिहार की राजनीति को नई दिशा दी।

31 दिसंबर 1898 को पटना जिले के शेखपुरा में एक मध्यमवर्गीय कायस्थ परिवार में जन्मे सहाय के पिता मुंशी गंगा प्रसाद अंग्रेजी हुकूमत में दरोगा थे, लेकिन बेटा बना अंग्रेजी राज का मुखर विरोधी। शिक्षा में तेज इतना कि सेंट कोलंबस कॉलेज, हजारीबाग से अंग्रेजी ऑनर्स में प्रथम श्रेणी प्राप्त की, और अंग्रेजी भाषा पर ऐसी पकड़ कि बिहार-उड़ीसा के गवर्नर सर एडवर्ड गैट ने उन्हें स्वर्ण पदक से सम्मानित किया। लेकिन यह स्वर्ण सम्मान भी उस युवक को ब्रिटिश साम्राज्य की चमक से नहीं बहका सका। 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान उन्होंने हजारीबाग में नमक बनाकर बगावत की, जिसके लिए एक वर्ष की जेल काटनी पड़ी। जेल की कोठरी में ही वे श्रीकृष्ण सिंह जैसे कद्दावर नेता से जुड़े, और कांग्रेस राजनीति की राह पर निकल पड़े।

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आजादी से पहले और बाद तक केबी सहाय वही रहे — बेबाक और निडर। असहयोग, भारत छोड़ो जैसे आंदोलनों में उन्होंने सीना तानकर हिस्सा लिया। आजादी के बाद 1937 में जब श्रीकृष्ण सिंह ने बिहार में पहली कांग्रेस सरकार बनाई, तो सहाय को सचिव बनाया गया। अंतरिम सरकार में वे राजस्व मंत्री बने और यहीं से उन्होंने वह ऐतिहासिक कदम उठाया जिसने बिहार की जमीन की तस्वीर बदल दी — जमींदारी उन्मूलन का कानून। सहाय के मसौदे पर श्रीबाबू कैबिनेट ने मुहर लगाई और बिहार देश का पहला राज्य बना जहां जमींदारी प्रथा को खत्म करने की घोषणा हुई। जमींदार वर्ग उनसे खार खा गया। दरभंगा महाराज कामेश्वर सिंह और रामगढ़ के राजा कामाख्या नारायण सिंह जैसे रसूखदार उनके विरोध में उतर आए। मगर सहाय नहीं डरे। वे मानते थे, “राजनीति सिर, हाथ और जुबान — तीनों की मांग करती है। मेरे पास सिर और हाथ हैं, जुबान की मिठास नहीं।” यही सख्ती आगे चलकर उनके राजनीतिक सफर की पहचान बनी।

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1952 में वे गिरिडीह से चुनाव जीते, लेकिन 1957 में उन्हीं रामगढ़ राजा से हार गए। राजनीति से किनारे हुए तो फिर जन्मभूमि पटना लौटे, और 1962 में विधानसभा में फिर पहुंचे। तब तक श्रीकृष्ण बाबू का निधन हो चुका था और कांग्रेस में खेमेबाजी बढ़ चुकी थी। 1963 में जब मुख्यमंत्री विनोदानंद झा ने इस्तीफा दिया, तो सत्ता की दौड़ में कई नाम उछले — वीरचंद पटेल, महेश प्रसाद सिन्हा, सतेंद्र नारायण सिंह — लेकिन अंततः जोड़तोड़ के इस खेल में बाजी मार ली के.बी. सहाय ने। 2 अक्टूबर 1963 को वे बिहार के चौथे मुख्यमंत्री बने।

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श्रीकृष्ण सिंह की विरासत के बाद कांग्रेस में यह सत्ता का नया चेहरा था — जमीनी, निर्णायक और बिन लाग-लपेट वाला। सहाय ने पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को राजनीति की मुख्यधारा में जगह दी। रामलखन सिंह यादव, सुमित्रा देवी, अब्दुल कय्यूम अंसारी, जफर इमाम जैसे नेताओं को कैबिनेट में शामिल कर उन्होंने सामाजिक संतुलन की नई परिभाषा दी। लेकिन इसी नीति से सवर्ण लॉबी नाराज हो गई। भीतरघात शुरू हुआ और आरोपों की झड़ी — भ्रष्टाचार, कमीशनखोरी, गुटबाजी। सहाय ने हर सवाल का जवाब ठंडे दिमाग से दिया, पर उनके खिलाफ दिल्ली तक शिकायतें पहुंचीं। बावजूद इसके वे झुके नहीं। कहते थे, “कुर्सी टिके या न टिके, फैसले जनता के हित में होने चाहिए।”

5 जनवरी 1967 ने उनकी राजनीति की दिशा बदल दी। पटना विश्वविद्यालय में फीस वृद्धि को लेकर छात्र आंदोलन भड़का, पुलिस गोली चली और कई छात्र मारे गए। आग पूरे बिहार में फैल गई। विपक्ष ने इसे सरकार विरोधी आंदोलन बना दिया। सहाय ने जांच की अनुमति देने से इनकार कर कहा — “ये विपक्ष की साजिश है, मैं प्रशासन को डरा नहीं सकता।” उन्होंने अपना इस्तीफा बढ़ा दिया। कांग्रेस अध्यक्ष कामराज ने उनका इस्तीफा डस्टबिन में फेंक दिया, लेकिन जनता ने 1967 के चुनाव में जवाब दे दिया। सहाय दो-दो सीटों — पटना और हजारीबाग — से हार गए। यही वो चुनाव था जिसमें मुख्यमंत्री को हराकर महामाया प्रसाद सिन्हा नए मुख्यमंत्री बने और कांग्रेस बिहार की सत्ता से बेदखल हुई। वही दौर था जब कांग्रेस की जड़ें यूपी-बिहार से उखड़नी शुरू हुईं।

इसके बाद सहाय की राजनीतिक यात्रा ढलान पर रही। 1969 में कांग्रेस टूटी तो वे “कांग्रेस ओ” गुट में रहे, पर अब न जोश था न जनसमर्थन। 1974 में उन्होंने हजारीबाग से विधान परिषद की सीट जीती, लेकिन कुछ महीनों बाद 3 जून 1974 को एक रहस्यमय सड़क दुर्घटना में उनका निधन हो गया। कहा जाता है, सिंदूर गांव के पास एक ट्रक ने अचानक रिवर्स किया और उनकी एम्बेसडर कार (बीआरएम-201) से जोरदार टक्कर हुई। मौके पर ही सहाय की मौत हो गई।

उनके विरोधी उन्हें सख्त कहते थे, पर अफसर और साथी मानते थे कि उन्होंने निजी लाभ के लिए कभी भ्रष्टाचार नहीं किया। वे दूसरों के लिए काम करते थे, खुद के लिए नहीं। राजनीति में सिर, हाथ और जुबान का उनका सिद्धांत आज भी उतना ही प्रासंगिक है।

कृष्ण बल्लभ सहाय का जीवन बिहार की राजनीति का आईना है – संघर्ष, सुधार और सियासी साजिशों से भरा हुआ। वे वह नेता थे जिन्होंने किसानों के लिए जमींदारी तोड़ी, पिछड़ों को सत्ता में जगह दी और ईमानदारी को राजनीति में टिकाने की कोशिश की। सत्ताएं बदलीं, पार्टियां टूटीं, मगर सहाय का नाम बिहार की मिट्टी में अब भी दर्ज है – एक ऐसे मुख्यमंत्री के रूप में, जो न झुका, न बिका, बस अपनी राह चला।