आशुतोष
जनवरी 2014 में आम आदमी पार्टी में शामिल होते हुए मुझे गर्व महसूस हो रहा था। आज मैं राहत महसूस कर रहा हूं कि अब उनके साथ नहीं हूं। तब AAP को एक क्रांतिकारी ताकत के रूप में देखा जा रहा था, जो यह दावा कर रहा था कि वह राजनीति को बदलने के लिए राजनीति में आया है। आज यह विश्वास करना मुश्किल है कि यह वही पार्टी है।
अब AAP बदल गई है। पार्टी ने 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में गर्व के कहा था कि जाति, धर्म, क्षेत्र, लिंग या भाषा के आधार पर उम्मीदवारों का चयन नहीं किया है। पार्टी ने कहा था कि उम्मीदवारों के चयन के लिए सत्यनिष्ठा, ईमानदारी और अच्छा चरित्र ही एकमात्र गुण है। टिकट देने से पहले, संभावित उम्मीदवार का बैकग्राउंड चेक किया गया था और एक मामूली दोष भी अयोग्य घोषित करने के लिए काफी था।
आप ने 2014 के आम चुनाव में राजमोहन गांधी, आनंद कुमार और मेधा पाटेकर जैसे लोगों को उम्मीदवार बनाया था। तब पार्टी ने वोट के लिए धर्म या देवी-देवताओं की बात नहीं की। आप ने दलितों और हाशिए पर खड़े लोगों के लिए कल्याणकारी उपायों का एक कार्यक्रम सावधानीपूर्वक तैयार किया – शिक्षा, स्वास्थ्य, मुफ्त बिजली और रियायती दर पर स्वच्छ पानी की आपूर्ति शासन के उस मॉडल के केंद्र में था।
लेकिन आज अरविंद केजरीवाल हिंदू वोटरों की धार्मिक संवेदनाओं को आगे कर उन्हें लुभाने का कोई मौका नहीं गंवा रहे। केजरीवाल की ताजा मांग है कि मोदी सरकार रुपये पर लक्ष्मी और गणेश की तस्वीरें लगाएं।
2015 के विधानसभा चुनावों के दौरान AAP की विकृति की झलक तब दिखी, जब प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव ने कुछ ऐसे उम्मीदवारों का मुद्दा उठाया था, जिनका अतीत उतना साफ नहीं था जितना पार्टी ने तय किया था। आप के ऐतिहासिक जनादेश प्राप्त करने के तुरंत बाद दोनों को पार्टी से निष्कासित कर दिया गया था। उसके बाद शुरू हुई गिरावट ने आप के कई वरिष्ठ नेताओं को चिंतित किया, लेकिन वे चुप रहे।
2017 के पंजाब विधानसभा चुनावों में हार, उसके बाद एमसीडी चुनावों में हार, अंतिम टिपिंग पॉइंट थे। तब से AAP ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। आप ने उन धनी व्यक्तियों को टिकट दिया है जिनका पार्टी से कोई संबंध नहीं था और जिन पर राज्यसभा, लोकसभा और विभिन्न राज्यों में विधानसभा चुनाव के टिकट बेचने का आरोप था। पार्टी ने कभी भी इस बात का संतोषजनक स्पष्टीकरण नहीं दिया कि वह अपने चुने हुए रास्ते से क्यों भटक गई।
एक बार जब नरेंद्र मोदी प्रधान मंत्री बन गए और हिंदुत्व चुनाव जीतने का प्रमुख फॉर्मूला बन गया। केजरीवाल में खतरनाक कमी है। वह किसी भी कीमत पर जीतना चाहता है।
2017 में पंजाब में हारने के बाद, वह 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में कोई चांस नहीं लेना चाहते थे। इसलिए, उन्होंने खुद को हिंदुत्व के हवाले कर दिया। अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए, उन्होंने न केवल प्रशांत किशोर की सर्विस ली बल्कि हनुमान चालीसा का पाठ भी किया। कनॉट प्लेस के हनुमान मंदिर में पहुंचकर उन्होंने खुद को “हनुमान भक्त” कहा। उनके इस दौरे को कवर करने के लिए टीवी मीडिया की एक टीम को आमंत्रित किया था।
केजरीवाल और AAP ने सीएए और शाहीन बाग के मुद्दे पर एक शब्द भी नहीं बोला। जब उत्तर पूर्वी दिल्ली में दंगे हुए, तो उन्होंने उस इलाके का दौरा तक नहीं किया, न ही उनकी सरकार ने दंगा पीड़ितों के लिए पुनर्वास कार्यक्रम को ईमानदारी से चलाया क्योंकि वह अपने ऊपर “मुस्लिम तुष्टिकरण” का आरोप नहीं लगने देना चाहते थे। 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में AAP की शानदार जीत “असली” AAP की ताबूत में आखिरी कील थी।
पंजाब जीतने के बाद केजरीवाल का अगला निशाना गुजरात है, जो हिंदुत्व की असली प्रयोगशाला है। स्थानीय निकायों के चुनावों में विशेषकर सूरत और गांधीनगर में इस प्रयास अच्छी सफलता मिली है। मीडिया के क्षेत्र में बहुत चालाकी से हेरफेर और विजुअल कैंपेन के जरिए AAP गुजरात में तीसरी ताकत के रूप में उभरी है। केजरीवाल हर हफ्ते राज्य का दौरा करने लगे। जमीन पर यह चर्चा शुरु हो गई थी कि क्या AAP भाजपा के सामने मुख्य विपक्षी दल के रूप में कांग्रेस की जगह ले सकती है।
लेकिन दो घटनाओं ने उनके आत्मविश्वास को झकझोर कर रख दिया। सबसे पहले, आप के राज्य संयोजक गोपाल इटालिया ने मोदी के बारे में बुरा कहा और महिलाओं से कहा कि वे मंदिरों में न जाएं क्योंकि यह असुरक्षित हो सकता है। दूसरा, आप मंत्री राजेंद्र पाल गौतम का एक बौद्ध समारोह में यह कहते हुए वीडियो क्लिप कि वह हिंदू देवताओं की पूजा नहीं करेंगे। नुकसान को कम करने के लिए केजरीवाल ने लक्ष्मी-गणेश का रास्ता अपनाया है। अपनी एक रैलियों में, उन्हें जय श्री राम का नारा लगाते हुए देखा गया था। उन्होंने यह भी कहा कि उनका जन्म जन्माष्टमी (भगवान कृष्ण के जन्म के दिन) को कंस के पुत्रों का विनाश करने के लिए हुआ था।
मुझे नहीं पता कि हिंदू देवी-देवताओं के नाम पर वोट मिलेगा या नहीं। लेकिय यह निश्चित रूप से साबित हो चुका है कि यह वही अरविंद केजरीवाल नहीं हैं, जिन्हें मैं जानता था, जो भारतीय राजनीति की सभी बुराइयों को साफ करने की बात करते थे। उनके इस रूप को कुछ लोग मोदी से जीत का फॉर्मूला छीनने की कोशिश के रूप में देख सकते हैं। लेकिन सोचने की जरूरत है कि क्यों आप ने धर्म को राजनीति के साथ मिलाने का खतरनाक रास्ता अपनाया। चुनाव जीतना और हारना लोकतांत्रिक प्रक्रिया का एक हिस्सा है, लेकिन आप जिस उम्मीद का प्रतिनिधित्व करती हैं, उसका निधन दुखद है। केजरीवाल और उनकी पार्टी भले ही चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करें, लेकिन वे संवैधानिक लोकतंत्र पर जो चोट पहुंचा रहे हैं, वह एक स्थायी निशान छोड़ जाएगा।
लेखक ‘सत्य हिंदी’ के संपादक और ‘हिंदू राष्ट्र’ के लेखक हैं।