आनंद मोहन सिंह…एक ऐसा नाम, जिसका 90 के दशक में बिहार में बोलबाला था। जरायम की दुनिया से राजनीति में आए। जेल गए और आजाद भारत में फांसी की सजा पाने वाले पहले राजनेता बने। आनंद मोहन सिंह (Anand Mohan Singh) एक बार फिर चर्चा में हैं। वजह बिहार की नीतीश कुमार सरकार का एक ऐसा फैसला, जिसकी वजह से आनंद मोहन के जेल से बाहर आने का रास्ता साफ हो गया है।

क्या है बिहार सरकार का ताजा नोटिफिकेशन?

बिहार की नीतीश कुमार सरकार ने 10 अप्रैल को, जेल नियमावली में एक संशोधन किया है। नियमावली से उस खंड को हटा दिया गया है, जो सरकारी अधिकारियों की हत्या में सजा काट रहे दोषी को ‘अच्छे व्यवहार’ के मद्देनजर रिहाई से रोकता था। बिहार के गृह विभाग ने एक नोटिफिकेशन जारी कर बिहार जेल नियमावली, 2012 के नियम 481 (1) ए में संशोधन की जानकारी दी है।

बिहार सरकार के इस कदम से आनंद मोहन के जेल से छूटने का रास्ता साफ हो गया है। आनंद मोहन गोपालगंज के तत्कालीन डीएम जी. कृष्णैया (G Krishnaiah) हत्याकांड में उम्रकैद की सजा काट रहे हैं और फिलहाल पैरोल पर बाहर हैं।

दिलचस्प है आनंद मोहन सिंह की कहानी

आनंद मोहन सिंह की कहानी दिलचस्प है। 28 जनवरी 1954 को सहरसा जिले के पचगछिया गांव में जन्मे आनंद का परिवार प्रतिष्ठित रहा है। उनके दादा राम बहादुर सिंह स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों से लोहा ले चुके हैं। साल में 1974 में जब जय प्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति आंदोलन में शुरू किया तो आनंद मोहन अपना कॉलेज छोड़ इसमें शामिल हो गए। इमरजेंसी के दौरान 2 साल के लिए जेल भी गए।

स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी नेता परमेश्वर कुंवर को अपना राजनीतिक गुरु मानने वाले आनंद मोहन सिंह ने 1980 में ‘समाजवादी क्रांति सेना’ की स्थापना की। नाम तो समाजवादी था लेकिन काम ऐसा कि अपराधियों में शुमार हो गए। सरकार ने इनाम घोषित कर दिया। 1983 में आनंद मोहन पहली बार 3 महीने के लिए जेल गए।

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जेल मैनुअल में बदलाव के बाद आनंद मोहन सिंह, जेडीयू अध्यक्ष से इस अंदाज में मिले।

आनंद मोहन ने साल 1990 में जनता दल का दामन थामा और महिषी विधानसभा सीट से मैदान में उतरे। चुनाव भी जीत गए। यही वो दौर था, जब जरायम की दुनिया में आनंद मोहन का नाम और कुख्यात हुआ। कहा गया कि आनंद मोहन ने अपनी एक प्राइवेट आर्मी तैयार की है जो ऐसे लोगों को मारती थी, जो आरक्षण का समर्थन करते थे।

1995 आते-आते लालू को देने लगे थे टक्कर

1990 में मंडल कमीशन की सिफारिश लागू हुई और जनता दल ने भी इसे अपना समर्थन दे दिया। आनंद मोहन को जनता दल का यह कदम कतई रास नहीं आया पार्टी छोड़ दी। फिर बिहार पिपुल्स पार्टी नाम से अपनी खुद की पार्टी बना ली। आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद साल 1994 में वैशाली लोकसभा सीट पर हुए उप चुनाव में मैदान में उतरीं और जीत गईं। 1995 आते-आते आनंद मोहन की तुलना लालू से होने लगी। कहा गया कि लालू के बरक्स अगड़ों का नेता तैयार हो गया है।

IAS की हत्या जो बनी गले की हड्डी

आनंद मोहन सिंह पर तमाम मामले दर्ज हुए लेकिन ज्यादातर में बरी होते गए। कई में तो पीड़ित ने खुद शिकायत वापस ले ली। लेकिन साल 1994 में एक ऐसी घटना हुई जिससे पूरा देश सन्न रह गया था। यही आनंद मोहन के गले की हड्डी बन गई। 5 दिसंबर 1994 को बिहार के गोपालगंज के तत्कालीन डीएम और आईएएस अधिकारी जी. कृष्णैया (G Krishnaiah) की भीड़ ने पहले पिटाई और फिर गोली मारकर हत्या कर दी। कृष्णैया दलित समुदाय से आते थे। कहा गया कि इस भीड़ को आनंद मोहन ने ही उकसाया।

जब कोर्ट ने सुनाई फांसी की सजा

आईएएस अधिकारी जी. कृष्णैया (G Krishnaiah) की हत्या के मामले में सरकार ने आनंद मोहन, उनकी पत्नी लवली आनंद समेत कुल 6 लोगों को आरोपी बनाया। साल 2007 में पटना हाईकोर्ट ने आनंद मोहन को दोषी करार देते हुए फांसी की सजा सुना दी। आजादी के बाद यह पहला ऐसा मामला था, जिसमें किसी राजनेता को फांसी की सजा सुनाई गई थी। हालांकि साल 2008 में कोर्ट ने उनकी सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दिया।

पप्पू यादव से अदावत और कोसी में वर्चस्व की लड़ाई

2 बार सांसद रहे आनंद मोहन की 90 के दशक में राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव से अदावत, बिहार में दहशत का पर्याय थी। यह वो दौर था जब बिहार के कोसी के इलाके में वर्चस्व कायम करने के लिए आए दिन हिंसक घटनाएं होने लगी थीं।

जेल में लिख चुके हैं दो किताबें

जेल में रहते हुए आनंद मोहन सिंह, ‘कैद में आजाद कलम’ और ‘स्वाधीन अभिव्यक्ति’ जैसी दो किताबें लिख चुके हैं। पूर्व सांसद होने के नाते आनंद मोहन की किताब ‘कैद में आजाद कलम’ को संसद भवन की लाइब्रेरी में भी जगह मिली है।