अमृत राय ने वर्ष 1962 में अपने पिता प्रेमचंद की जीवनी ‘कलम का सिपाही’ नाम से प्रकाशित करवाई थी। इस किताब के प्रकाशन से चार साल पहले दूर देश से भारत आए एक विश्व विख्यात सिपाही ने पंजाबी और हिंदी की अज़ीम रचनाकार अमृता प्रीतम को ‘कलम का सिपाही’ कहा था। यह फरवरी 1958 की बात है। अमेरिका को धूल चटाकर आज़ाद वियतनाम के पहले राष्ट्रपति हो ची मिन्ह भारत पधारे थे।
गुरिल्ला युद्ध के दम पर विदेशी ताकत को अपने देश से खदेड़ने वाले क्रांतिकारी हो ची मिन्ह का प्रधानमंत्री नेहरू ने जोरदार स्वागत किया था। उनके सम्मान में राजधानी दिल्ली के भीतर एक समारोह का भी आयोजन किया गया था। इस कार्यक्रम में अमृता प्रीतम भी आमंत्रित थीं। अमृता उस समय तक साहित्य की दुनिया में काफी प्रसिद्ध हो चुकी थीं। सम्मान समारोह में जब हो ची मिन्ह अमृता से मिले तो उन्होंने उनका माथा चूम कर कहा, “हम दोनों सिपाही हैं। तुम कलम से लड़ती हो। मैं तलवार से लड़ता हूं।”
अमेरिका के ओहियो स्टेट के गवर्नर की पत्नी खासतौर पर अमृता प्रीतम से मिलने के लिए भारत आई थीं। उनका कहना था कि मैं उस औरत को देखने आई हूं, जिसने जैसा चाहा वैसा जिया।
अपनी शर्तों पर जी जिंदगी
अमृता का जन्म 31 अगस्त 1919 को पंजाब के गुजरांवाला (अब पाकिस्तान का हिस्सा) में हुआ था। जब अमृता सिर्फ 11 वर्ष की थीं, उन्होंने अपनी मां को मृत्यु शय्या पर देखा। उस दौरान उनसे किसी ने कहा कि तुम भगवान से प्रार्थना करो। वो बच्चों की सुन लेता है। अमृता नंगे पांव प्रार्थना करने लगीं। लेकिन मां की मौत न टली। दूरदर्शन को दिए एक इंटरव्यू में अमृता खुद बताती हैं कि इस घटना के बाद उन्हें लगा कि ईश्वर बच्चों की भी नहीं सुनता और मैं ईश्वर से बेगाना हो गई हूं और ईश्वर मुझसे बेगाना हो गया है।
बचपन में मां को खोने के बाद, जवानी में विभाजन का मंजर देखा। भारत-पाकिस्तान बंटवारे के वक्त उनकी उम्र 28 साल थी और वह गर्भवती थीं। वह ऐसे विवाह में रहीं, जिसमें उन्हें बरसों घुटना पड़ा। विभाजन के दौरान लाहौर से देहरादून जाते हुए ट्रेन में उन्होंने कागज के टुकड़े पर एक कविता ‘अज्ज आखाँ वारिस शाह नूं’ लिखी। कविता में सिर्फ बंटवारे की वजह से उजड़ने की टीस नहीं थी। जो घट रहा था उसका बयान भी था। बलात्कार के बाद मार दी गई औरतों, काट दिए गए बच्चों, कुएं में कूद गई लड़कियों की वेदना भी थी। अमृता की उस कविता को आज भी उर्स के दौरान वारिस शाह की दरगाह (पाकिस्तान) पर गाया जाता है।
अधूरा प्रेम और समाज के खिलाफ रखा रिश्ता
अमृता प्रीतम पर बात करते हुए साहिर और इमरोज़ का जिक्र आना स्वाभाविक है। गीतकार-शायर साहिर लुधियानवी के प्रेम में अमृता ने सिगरेट पीना सीख लिया था। बाद में उन्होंने सिगरेट शीर्षक से एक कविता भी लिखी जिसकी पहली ही पंक्ति है-
यह आग की बात है
तूने यह बात सुनाई है
यह ज़िंदगी की वो ही सिगरेट है
जो तूने कभी सुलगाई थी

ऐसा कहते हैं कि साहिर को अमृता से प्रेम तो था लेकिन कहने की हिम्मत न थी। ना कहने के अपने कई कारण थे। दूसरी तरफ अमृता थीं, जिन्होंने कभी इजहार कर रिश्ते को नाम नहीं दिया। हालांकि अपनी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ में साहिर से जुड़े किस्से जरूर लिखे और बताया कि कैसे वे दोनों एक ही कमरे में चुपचाप बैठे रहते थे। कैसे वह साहिर की आधी पी हुई सिगरेट को संभाल कर रखतीं और अकेले में दोबारा सुलगा लेती थीं। साहिर की पी हुई सिगरेट को दोबारा पीते हुए अमृता को ऐसा लगता मानों वह साहिर के हाथों को छू रही हों। ऐसा लगातार करते रहने से उन्हें सिगरेट की लत ही लग गई।
साहिर एक रोमांटिक व्यक्ति थे और अमृता भी प्रशंसकों से घिरी रहती थीं। शायद इसलिए उन्हें कभी एक-दूसरे के साथ रहने का सही समय नहीं मिला। लेकिन अमृता वर्षों तक साहिर के लिए तरसती रहीं। अक्षय मनवानी ने अपनी पुस्तक ‘साहिर लुधियानवी: द पीपल्स पोएट’ में अमृता को उद्धृत किया है, “हमारे बीच दो रुकावटें थीं- एक खामोशी की, जो हमेशा बनी रही और दूसरी भाषा की। मैं पंजाबी में कविताएं लिखती थी और साहिर उर्दू में।”
रसीदी टिकट में ही अमृता ने बताया है कि एक बार उन्हें एक तस्वीर के लिए बैठकर पोज देने के लिए कहा गया। तस्वीर के लिए उन्हें हाथ में पेन पकड़कर लिखने का नाटक करना था, “मैंने लिखना शुरू कर दिया और कुछ मिनटों के बाद एहसास हुआ कि मेरे सामने रखी शीट साहिर के नाम से भरी हुई थी।”
बिना अंजाम तक पहुंचे अमृता और साहिर का रिश्ता ताउम्र चला और यह सब जानते हुए भी चित्रकार इमरोज, अमृता से प्रेम करते रहे। अमृता प्रीतम और इमरोज एक ही छत की नीचे साथ-साथ रहे लेकिन कभी शादी नहीं की। दोनों ने कभी समाज के कायदों को ज्यादा तवज्जो नहीं दी। बीबीसी हिंदी की एक रिपोर्ट तो यह बताती है कि इमरोज़ अमृता से कहा करते थे- तू ही मेरा समाज है।