मई से जुलाई 1999 के बीच कारगिल की पहाड़ियों पर भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ था। युद्ध की शुरुआत पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा कारगिल की पहाड़ियों में घुसपैठ से हुई थी। पाकिस्तानी सैनिक कारगिल में सियाचिन को भारत से अलग-थलग करने के मकसद से घुसे थे। लेकिन भारतीय सैनिक, पाकिस्तानी सेना को खदेड़ने में कामयाब रहे। इसी जीत की याद में हर साल 26 जुलाई को कारगिल विजय दिवस मनाया जाता है।

सरकार को नहीं थी खबर

नवाज शरीफ के साथ अटल बिहारी वाजपेयी के लाहौर समझौते के बाद पाकिस्तान ऐसी हरकत करेगा, भारत के राजनीतिक नेतृत्व को इसकी आशंका नहीं थी। सन् 1999 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी एक बार फिर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। लेकिन इस बार उसे पहले से कहीं ज्यादा यह अहसास था कि वह सिर्फ अपने बलबूते पर सरकार नहीं बना सकती।

वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर अपनी जीवनी ‘एक जिंदगी काफी नहीं’ में लिखते हैं कि भाजपा ने आरएसएस को इस बात के लिए राजी कर लिया कि पार्टी अपने दो सबसे अहम मुद्दों राम मंदिर के निर्माण और जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाली धारा 370 को भंग करने की मांग से दूर रहेगी। इसके बिना दूसरी पार्टियों को अपने साथ लेना सम्भव नहीं था। इन दो मुद्दों को छोड़ने की शर्त के आधार पर ही भाजपा को कई क्षेत्रीय पार्टियों का समर्थन मिल पाया और वह राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक गठबंधन यानी ‘एनडीए’ की सरकार बनाने में सफल रही।

देश के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस थे। कारगिल में भारतीय सेना को जब घुसपैठ का पता चला, उसे लगा मामला ज्यादा बड़ा नहीं। वह खुद निपट लेगें। ऐसे में उन्होंने दिल्ली को तुरंत सूचित नहीं किया। इस बात की पुष्टि इससे भी होती है कि घुसपैठ हो जाने के बाद भी रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस रूस की यात्रा पर जाने को तैयार थे।

दरअसल, जसवंत सिंह को अपने पत्रकार बेटे मानवेंद्र सिंह से यह पता चला था कि सीमा पर कुछ गड़बड़ है। जसवंत सिंह को पता चला कि सेना ने किसी घुसपैठ से निपटने के लिए पूरी पलटन को हेल‍िकॉप्टर से किसी मुश्किल जगह भेजा है। जसवंत सिंह ने फोन पर ये बात रक्षा मंत्री को बताई। इसके बाद रक्षा मंत्री ने रूस की यात्रा रद्द की।

पाकिस्तान की सरकार को भी नहीं थी जानकारी

वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर कारगिल युद्ध के दौरान सांसद थे। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है, “जनरल परवेज मुशर्रफ कारगिल में पाकिस्तानी कब्जे की गुपचुप योजना के बारे में पाकिस्तान सरकार को पूरी तरह धोखे में रखे रहे थे। बाद में उन्होंने मुझसे कहा था कि प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को सब कुछ मालूम था। लेकिन जब पाकिस्तान से निष्कासित किए जाने के बाद नवाज शरीफ से जेद्दा में मेरी मुलाकात हुई तो उन्होंने इस बात से इनकार किया। उन्होंने कहा कि मुशर्रफ ने उनसे सिर्फ यह कहा था कि कश्मीर मसले पर भारत पर दबाव बनाने के लिए उन्होंने कुछ पाकिस्तानी सैनिकों को कारगिल में तैनात कर दिया था।”

पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद महमूद कसूरी की आत्मकथा ‘नीदर अ हॉक नॉर अ डव’ में भी एक ऐसा किस्सा है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि नवाज शरीफ को हमले की जानकारी नहीं थी। ख़ुर्शीद महमूद कसूरी ने कारगिल में घुसपैठ के बाद वाजपेयी और शरीफ के बीच फोन पर हुई बातचीत का जिक्र किया है। वाजपेयी ने शरीफ से शिकायत करते हुए कहा “आपने हमारे साथ बड़ा धोखा किया है। एक तरफ आप लाहौर में मुझसे गले मिल रहे थे, दूसरी तरफ आप के लोग कारगिल की पहाड़ियों पर कब्जा कर रहे थे। नवाज़ शरीफ ने कहा कि उन्हें इस बात की बिल्कुल भी जानकारी नहीं है। मैं परवेज़ मुशर्रफ़ से बात कर आपको वापस फोन मिलाता हूं।”

बीबीसी हिंदी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, परवेज मुशर्रफ ने आत्मकथा ‘इन द लाइन ऑफ़ फ़ायर’ में लिखा कि उनका प्लान बहुत अच्छा था। अगर पाकिस्तान के राजनीतिक नेतृत्व ने उनका साथ दिया होता तो कहानी कुछ और होती।

अमेरिकी राष्ट्रपति ने वाजपेयी से किया संपर्क!

युद्ध में भारत जब बढ़त बनाने लगा तब मुशर्रफ, नवाज शरीफ के पास दौड़ लगाने लगे। उन्होंने शरीफ को सुझाव दिया कि वह पाकिस्तानी सेना की शांतिपूर्ण वापसी के लिए अमेरिका से बीच-बचाव करवाने के लिए कहें। नवाज शरीफ ने राष्ट्रपति बिल क्लिंटन से मुलाकात करने का आग्रह किया। क्लिंटन ने झट से वाजपेयी से सम्पर्क स्थापित किया और उन्हें पाकिस्तानी सेना को पीछे हटने देने के लिए राजी कर लिया। पाकिस्तान को मुंह की खानी पड़ी थी। लेकिन यह पाकिस्तान से ज्यादा जनरल परवेज मुशर्रफ की हार थी।  पाकिस्तान की जनता के लिए सेना की वापसी एक बड़ा झटका थी, क्योंकि वह यह भ्रम पाले बैठी थी कि कारगिल पर कब्जे से कश्मीर की आजादी का प्रवेश-द्वार खुल जाएगा।

शरीफ ने दिखाई शराफत तो हो गई जेल

सीमा पर कुछ शांति आने के बाद जनरल परवेज मुशर्रफ श्रीलंका दौर पर गए। इस मौके का फायदा उठाते हुए नवाज शरीफ ने मुशर्रफ को सेना प्रमुख के पद से बर्खास्त कर दिया। लेकिन, प्रधानमंत्री का यह दांव उल्टा पड़ गया। मुशर्रफ के वफादार कमांडरों ने सरकार का तख्ता पलट दिया। नवाज शरीफ और उनके भाई को गिरफ्तार कर लिया गया। इस तरह पाकिस्तान में एक बार फिर सैनिक शासन लागू हुआ।

वाजपेयी को सताने लगी शरीफ की चिंता

मुशर्रफ ने नवाज शरीफ को छह महीने जेल में रखा। ये समय उनके लिए क्रूरतम यातना के दिन थे। बाद में उन्होंने बताया कि “वह जेल किसी काल-कोठरी से कम नहीं थी।” नवाज शरीफ को जेल में ठूंस दिए जाने और पाकिस्तान में सैनिक शासन लागू हो जाने से भारत को बड़ी निराशा हुई थी। 

कुलदीप नैयर लिखते हैं, “वाजपेयी राज्यसभा में अपनी सीट पर बैठे दिखाई दिए तो मैंने उनके पास जाकर पूछा कि यह क्या हो गया। उन्होंने कहा, ‘नवाज शरीफ को हमारे साथ दोस्ती करने की कीमत चुकानी पड़ी है।’ वे नवाज शरीफ की सलामती को लेकर काफी चिन्तित थे। उन्होंने मुझे बताया कि पर्दे के पीछे कश्मीर मसले पर लगातार बातचीत चल रही थी। ‘कुलदीप, हमने इसे करीब-करीब सुलझा लिया था। यूं समझो कि करीब 80 प्रतिशत मामला सुलझ चुका था’ उन्होंने गहरी हताशा के साथ कहा। जब मैंने इस ’80 प्रतिशत’ के बारे में विस्तार से जानना चाहा तो वाजपेयी ने कुछ भी बताने के बजाय खामोश रहना पसन्द किया।”