अफगानिस्तान में चरमपंथी शासन के दौर की वापसी हो गई है। अमेरिकी फौजों के हटने के बाद अफगानिस्तान की सुरक्षा व्यवस्था ताश के पत्तों की तरह बिखर गई। चरमपंथी तालिबान के आगे अफगानी फौज ने घुटने टेक दिए। अफगानिस्तान की भू-सामरिक स्थिति के मद्देनजर भारत ने वहां की परियोजनाओं में करोड़ों रुपए का निवेश कर रखा था। अफगानिस्तान के रास्ते ईरान के महत्वाकांक्षी चाबहार बंदरगाह परियोजना से भारत जुड़ा था। तालिबान का शासन आने के बाद सामरिक और रणनीतिक महत्त्व की इन परियोजनाओं में निवेश पर पानी फिरता दिख रहा है। साथ ही, पश्चिम एशिया के इलाकों तक भारत ने जो अपनी सामरिक पहुंच बनाई थी, उन इलाकों में अब तालिबान से अच्छे संबंधों की वजह से पाकिस्तान को फायदा पहुंचता दिख रहा है। ऐसे में वहां के हालात को लेकर भारत में विकल्पों को लेकर शीर्ष स्तर पर मंथन शुरू हो गया है।

मौजूदा चुनौतियां

भारत के सामने अभी पांच चुनौतियां बताई जा रही हैं। भारत के सामने सबसे प्राथमिक चुनौती अफगानिस्तान में अपने नागरिकों और राहत कर्मियों की हिफाजत करना है। एक बड़ी चुनौती यह भी है कि तालिबान के वर्चस्व के बाद लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे पाकिस्तान पोषित आतंकी संगठनों को खुला खेत मिल जाएगा। वे भारतीय हितों को निशाना बनाना शुरू कर देंगे। पाकिस्तान की सेना और आइएस की भूमिका वहां बढ़ जाएगी। दूसरी चुनौती अफगानिस्तान में भारत के समर्थक लोगों की मदद करना होगी। इनमें से अधिकांश को तालिबान ने कैद किया है।

तीसरी चुनौती तालिबानी शासन के साथ संबंधों की होगी। बीते हफ्ते भारत समेत 12 देशों ने कतर में बैठक कर नौ प्रस्ताव पारित किए और साफ कहा कि अफगानिस्तान में बंदूक के दम पर सत्ता में आई सरकार को समर्थन नहीं देंगे। अब बदली परिस्थितियों में नए सिरे से रणनीति तैयार करनी होगी। चौथी चुनौती यह है कि मान्यता का सवाल अब पीछे छूट चुका। अफगानिस्तान में सत्ता पर तालिबान काबिज है। इस तथ्य के मद्देनजर भारत को नया रास्ता तैयार करना होगा। यहां गौरतलब है कि विदेश मंत्रालय अफगानिस्तान के सभी समूहों के साथ बातचीत की बात करता रहा है। अगर ऐसा है तो तालिबान के साथ विभिन्न मुद्दों पर बातचीत शुरू करने में आसानी होगी। पांचवीं चुनौती अफगानिस्तान को लेकर सामरिक रणनीति की है। तालिबान के साथ समझ बढ़ाकर अपने सामरिक हितों को बचाए रखने पर मंथन में विदेश और रक्षा मंत्रालय के अधिकारी अभी से जुट गए हैं।

विकल्प क्या-क्या

अफगानिस्तान में काम कर चुके भारत के कुछ पूर्व राजनयिकों का मानना है कि भारत को तालिबान से राब्ता करके अफगानिस्तान में अपने विकास कार्यों को जारी रखना चाहिए। भारत ने अतीत में अफगानिस्तान की इच्छा के मुताबिक वहां विकास परियोजनाओं को अंजाम तक पहुंचाया। भारत को अब भी यह काम जारी रखना चाहिए। अफगानिस्तान नेतृत्व को समर्थन देने में भारत ने बहुत देर कर दी है। तालिबान के साथ बातचीत को लेकर भारत के खुलेपन से सुधारों की वकालत और अधिकारों की रक्षा करने में उपयोगी साबित होगा।

जानकारों के मुताबिक, 1996 में तालिबान ने करीब पूरे अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया था तब ज्यादातर देशों ने अफगानिस्तान को उसके हाल पर छोड़ दिया था। तब भी भारत ने तालिबान के खिलाफ कमांडर अहमद शाह मसूद के नेतृत्व वाले नॉर्दर्न अलायंस का हाथ मजबूत किया था। उससे पहले भी जब 1989 में तत्कालीन सोवियत संघ ने अफगानिस्तान छोड़ा था, तब भी भारत ने तत्कालीन अफगानी राष्ट्रपति नजीबुल्ला को राष्ट्रीय स्तर पर आम राय कायम करने में मदद की थी। जानकारों का मानना है कि अफगानिस्तान में भारत की मौजदूगी अब भी है। भारत की तरफ से अफगान की जनता के साथ एकजुटता और समर्थन जारी रहना चाहिए। अमेरिका की बेरुखी और पाकिस्तान की पैंतरेबाजी ने अफगानिस्तान पर तालिबान की राह आसान कर दी।

शरणार्थी समस्या
अफगानिस्तान के दर्जनों बड़े नेता-सांसद भागकर भारत पहुंचे हैं। वहां बड़ा शरणार्थी संकट शुरू हो गया है। हर तरफ खौफ है। अफगानिस्तान के नेता अपनी जान बचाने के लिए अलग अलग देशों में शरण ले रहे है। विदेश मंत्रालय के अधिकारियों के मुताबिक, भारत सरकार ने राजनीतिक शरणार्थियों को भारत में आने की इजाजत दे दी है। काफी ज्यादा संख्या में अफगान नागरिक, विद्यार्थी और आम लोग भारत में रहते हैं।

इस्लामी देश : कौन-किधर

ओआइसी : इस्लामी सहयोग संगठन ने कहा है कि वह अफगानिस्तान के संकट से चिंतित है। वह शांति स्थापित करने में सक्रिय भूमिका निभाने को तैयार है।
ईरान : मौजूदा हालात को लेकर चिंतित है। भागे अफगान सैनिक ईरान में शरण ले रहे हैं। जुलाई में ही तालिबान का एक प्रतिनिधिमंडल तेहरान में ईरानी विदेश मंत्री से मिला था।
उज्बेकिस्तान-ताजिकिस्तान-तुर्कमेनिस्तान : मध्य एशिया के ये तीनों पड़ोसी देश अफगानिस्तान के हालात से प्रभावित होते रहे हैं। संकट की वजह से यहां शरणार्थी आने लगे हैं।
तुर्की : तुर्की ने काबुल के हामिद करजई हवाई अड्डे का संचालन संभालने का इरादा बरकरार रखा है। तालिबान इसको लेकर चेताया है।
पाकिस्तान : पाकिस्तान के तालिबान के साथ नजदीकी संबंध हैं। अमेरिका से सौदेबाजी करने में पाकिस्तान इन रिश्तों को इस्तेमाल करता है।
सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात : इस्लामी दुनिया के बड़े सुन्नी देश सऊदी अरब ने अफगानिस्तान को लेकर रणनीतिक खामोशी ओढ़ रखी है। संयुक्त अरब अमीरात ने अपने आप को मौजूदा संकट से दूर ही रखा है।

क्या कहते हैं जानकार

अफगानिस्तान की सेना के पास हथियार और प्रशिक्षण तो था, लेकिन वह स्थानीय लोगों का भरोसा जीतने में नाकाम रही। तालिबान ने हाल के सालों में स्थानीय स्तर पर कूटनीति का इस्तेमाल किया और लोगों को अपने साथ मिलाने की कोशिश की। यही वजह है कि बहुत से इलाके तालिबान ने एक भी गोली चलाए बिना ही कब्जा लिए।
– शशांक, पूर्व विदेश सचिव

भारत ने अफगानिस्तान की इच्छा के मुताबिक विकास परियोजनाओं को अंजाम तक पहुंचाया। भारत को अभी काम जारी रखना चाहिए। अफगानिस्तान नेतृत्व को समर्थन देने में भारत ने देर कर दी है। हालांकि, तालिबान के साथ बातचीत को लेकर भारत के खुलेपन से सुधारों की वकालत व अधिकारों की रक्षा करने में उपयोगी साबित होगा।
– जयंत प्रसाद, अफगानिस्तान में भारत के पूर्व राजदूत