खदीजा खान

केंद्र सरकार की इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम संवैधानिक या नहीं, इसका फैसला अब सुप्रीम कोर्ट को करना है। भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पांच जजों की पीठ इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम की संवैधानिक को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है।

इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम केंद्र की मोदी सरकार लेकर आयी थी। यह 2 जनवरी, 2018 से लागू है। यह एक ऐसा माध्यम है जिससे कोई भी व्यक्ति गुमनाम रूप से राजनीतिक दलों को मोटी से मोटी रकम दान कर सकता है।

ADR की रिपोर्ट के मुताबिक, वित्त वर्ष 2016-17 से 2021-22 के बीच भाजपा को मिले राजनीतिक चंदे का 52 प्रतिशत यानी 5,271.97 करोड़ रुपये चुनावी बांड से आया। वहीं इसी अवधि में भाजपा के अलावा बाकी सभी दलों को इलेक्टोरल बॉन्ड से 1,783.93 करोड़ रुपये ही मिले।

चुनावी बांड क्या है?

पहली बार 2017 में केंद्रीय बजट सत्र के दौरान इलेक्टोरल बॉन्ड लाने की घोषणा की गई थी। इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए कंपनी, कारोबारी और आम लोग बिना अपनी पहचान बताए राजनीतिक दलों को चंदा दे सकते हैं। इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम भारतीय नागरिकों या भारत में निगमित निकायों, दोनों को बॉन्ड खरीदने की अनुमति देते हैं।

आमतौर पर 1000 रुपये से एक करोड़ रुपये तक के मूल्यवर्ग में बेचे जाने वाले, इन बॉन्डों को केवाईसी मानदंडों का अनुपालन करने वाले खातों के माध्यम से अधिकृत एसबीआई शाखाओं से खरीदा जा सकता है। बांड प्राप्त करने के 15 दिनों के भीतर राजनीतिक दल उसे अपनी पार्टी के अधिकृत बैंक खाते में ट्रांसफर कर सकते हैं।

ध्यान रहे, इलेक्टोरल बॉन्ड पूरे वर्ष में कभी भी नहीं खरीदा जा सकता है। उसे केवल जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर के महीनों में पड़ने वाली 10-दिवसीय विंडो के बीच ही खरीद सकते हैं।

महत्वपूर्ण बात यह है कि चुनावी बांड का उपयोग केवल जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 29 ए के तहत पंजीकृत राजनीतिक दलों को दान देने के लिए किया जा सकता है। चुनावी बांड से उन्हीं पार्टियों को मिल सकता है, जिन्होंने पिछले चुनावों (लोकसभा या विधानसभा)में लिए कम से कम 1% वोट मिला हो।

चुनावी बांड क्यों लाया गया था?

चुनावी बांड योजना शुरू करने के पीछे केंद्र का तर्क “देश में राजनीतिक फंडिंग की व्यवस्था को साफ करना” और “भारत में चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता” लाना था।

1 फरवरी, 2017 को केंद्रीय बजट भाषण में, तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा, “आजादी के 70 साल बाद भी देश राजनीतिक दलों की फंडिंग का एक पारदर्शी तरीका विकसित नहीं कर पाया है, जो कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव प्रणाली के लिए महत्वपूर्ण है। राजनीतिक दलों को अपना अधिकांश धन नकद में दिखाए गए अज्ञात दान के माध्यम से प्राप्त होता रहता है।”

इन समस्याओं से निपटने के लिए जेटली ने चुनावी बांड का प्रस्ताव रखा और सुझाव दिया कि किसी पार्टी द्वारा अज्ञात स्रोतों से नकद में स्वीकार की जाने वाली राशि को 20,000 रुपये से घटाकर 2,000 रुपये कर दिया जाए।

इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम का रास्ता साफ करने के लिए चार कानूनों में संशोधन किया गया। इसमें विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम, 2010 भी शामिल है। इसके अलावा जिन तीन कानूनों में बदलाव किया गया, वे हैं- आरपीए, 1951; आयकर अधिनियम, 1961; और कंपनी अधिनियम, 2013।

2017 में दो NGO ने दायर की थी याचिका

2017 में दो NGO (गैर सरकारी संगठनों) कॉमन कॉज और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) ने कुछ याचिकाएं दायर कीं। याचिका में कहा गया कि सरकार ने कानून में संशोधन कर असीमित राजनीतिक चंदा, यहां तक विदेशी कंपनियों से भी चंदा लेने के लिए अपना दरवाजा खोल दिया है। याचिका आशंका जताई गई, इससे बड़े पैमाने पर चुनावी भ्रष्टाचार को वैध बनाया जा रहा है।

यह तर्क देते हुए कि इस योजना को राज्यसभा की मंजूरी को दरकिनार करते हुए “अवैध रूप से” पेश नहीं किया जाना चाहिए था, याचिकाकर्ताओं ने योजना पर रोक लगाने की मांग की।

कोर्ट ने पहले क्या सुनाया था फैसला?

12 अप्रैल, 2019 को सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने एक अंतरिम आदेश में चुनावी बांड के माध्यम से दान प्राप्त करने वाले राजनीतिक दलों को चुनाव आयोग को बॉन्ड का विवरण देने का का निर्देश दिया।

इसके बाद, मार्च 2021 में नए बांड की बिक्री पर रोक लगाने की याचिका को तत्कालीन सीजेआई एसए बोबडे की अध्यक्षता वाली तीन-न्यायाधीशों वाली बेंच ने खारिज कर दिया था।

इसके अतिरिक्त, SC ने कहा कि बांड अतीत में, 2018 और 2020 के बीच, “बिना किसी बाधा के” जारी किए गए थे और उसने पहले ही अपने अप्रैल 2019 के अंतरिम आदेश के माध्यम से “कुछ सुरक्षा उपायों” का आदेश दिया था।

अप्रैल 2022 में तत्कालीन सीजेआई एनवी रमना ने याचिकाकर्ताओं को आश्वासन दिया कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले को सुनवाई करेगी। लेकिन वकील प्रशांत भूषण ने तत्काल सुनवाई की मांग करते हुए तर्क दिया था कि पिछले दिनों कोलकाता स्थित एक समाचार कंपनी ने छापे से बचने के लिए 40 करोड़ रुपये का भुगतान किया था। यह लोकतंत्र को खराब कर रहा है।

अब क्या तय होना बाकी है?

16 अक्टूबर को तीन जजों की बेंच की अध्यक्षता करते हुए सीजेआई चंद्रचूड़ ने मामले को पांच जजों की बेंच के पास भेज दिया। बेंच में जस्टिस चंद्रचूड़ के अलावा जस्टिस संजीव खन्ना, बीआर गवई, जेबी पारदीवाला और मनोज मिश्रा हैं।

हालांकि याचिकाकर्ताओं ने पहले भी अदालत से इसे संविधान पीठ के पास भेजने का आग्रह किया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा करने में अपनी रुचि नहीं दिखाई थी। 10 अक्टूबर को सीजेआई की अगुवाई वाली बेंच ने मामले को बड़ी बेंच को रेफर किए बिना 31 अक्टूबर को अंतिम सुनवाई के लिए सूचीबद्ध कर दिया था।

वर्तमान मामले में, शीर्ष अदालत एडीआर, सीपीआई (एम), कांग्रेस नेता जया ठाकुर और स्पंदन बिस्वाल द्वारा दायर एक जनहित याचिका पर विचार करेगी।

चुनावी बांड योजना की संवैधानिकता को चुनौती देने के अलावा, याचिकाकर्ताओं ने अदालत से सभी राजनीतिक दलों को पब्लिक ऑफिस घोषित करने, उन्हें सूचना के अधिकार के दायरे में लाने और राजनीतिक दलों को अपनी आय और व्यय का खुलासा करने के लिए बाध्य करने की मांग की है।

ECI का रुख क्या रहा है?

शुरुआत में चुनाव आयोग ने इलेक्टोरल बॉन्ड की मुखालफत की थी। मई 2017 में एक स्टैंडिंग कमेटी को सौंपे अपने प्रस्ताव में चुनाव आयोग ने इस कदम को प्रतिगामी कदम (पीछे ले जाने वाला) बताया था। चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों को चुनावी बांड के माध्यम से मिलने वाले चंदा का खुलासा न करने की छूट देने वाले आरपीए में संशोधन पर आपत्ति जताई थी। उसी महीने चुनाव आयोग ने कानून मंत्रालय को एक पत्र भी लिखा था, जिसमें सरकार से संशोधनों पर ‘पुनर्विचार’ करने की मांग की थी।

25 मार्च, 2019 को सुप्रीम कोर्ट में चुनावी बांड को चुनौती देने वाली याचिका पर चल रही सुनवाई के दौरान चुनाव आयोग ने एक हलफनामा दायर किया था। हलफनामा में राजनीतिक दलों को विदेशी कंपनियों से दान प्राप्त करने की अनुमति देने वाले कानूनों में बदलाव के मुद्दे को उठाया गया था। तब चुनाव आयोग को आशंका थी कि इससे ‘राजनीतिक दलों को अनियंत्रित विदेशी फंडिंग’ की अनुमति मिल सकती है, जिसके “भारतीय नीतियां विदेशी कंपनियों से प्रभावित हो सकती हैं।”