साल 1956 में पांच अलग-अलग क्षेत्रों को मिलाकर भारत के मध्य में एक नया बड़ा राज्य बनाया गया- मध्य प्रदेश। इस राज्य में कई बड़ी रियासतें थीं, जैसे- ग्वालियर, इंदौर और भोपाल। इसके अलावा विंध्य प्रदेश भी राज्य का हिस्सा बना, जिसमें बुन्देलखंड और बाघेलखंड शामिल थे। दक्षिण-पूर्वी राजस्थान के कोटा जिले की सिरोंज तहसील को भी मध्य प्रदेश में शामिल किया गया, जो अब विदिशा कहलाता है।
भोपाल, राज्य की राजधानी बनी और रायपुर के रहने वाले कांग्रेस नेता रविशंकर शुक्ला राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने। 2000 में छत्तीसगढ़ के अलग राज्य बनने के बाद आज का मध्य प्रदेश अस्तित्व में आया। राज्य में विधानसभा की 230 और लोकसभा की 29 सीटें हैं। मध्य प्रदेश से राज्यसभा के लिए 11 सदस्य चुने जाते हैं।
मजबूत कांग्रेस, उभरती बीजेएस
मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल का 31 दिसंबर, 1956 को दिल्ली में निधन हो गया। वह 1957 के विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस नेतृत्व से मिलने के लिए राजधानी में थे। उन्हें बताया गया था कि पार्टी उन्हें टिकट नहीं देने वाली है। कहा जाता है कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू शुक्ल के छह बेटों में से चार की राजनीतिक गतिविधियों से नाराज़ थे।
6-8 जनवरी, 1957 को इंदौर में एआईसीसी सत्र में नेहरू के रक्षा मंत्री कैलाश नाथ काटजू का नाम सीएम पद के लिए सामने आया था। काटजू ने 31 जनवरी को भोपाल में कार्यभार संभाला था।
हालांकि कांग्रेस का दबदबा था, लेकिन भाजपा की पूर्ववर्ती भारतीय जनसंघ (बीजेएस) शुरू से ही राज्य में सक्रिय थी। आरएसएस विचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी एमपी बीजेएस में तैनात शुरुआती प्रचारकों में से थे।

कांग्रेस में तकरार और एक मुख्यमंत्री की हार
1962 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को झटका लगा। सरकार की कमान काटजू के हाथ में थी। संगठन मूलचंद देशलेहरा संभाल रहे थे। लेकिन दोनों के बीच गहरे मतभेद थे। इसी रस्साकशी में मुख्यमंत्री काटजू, जावरा विधानसभा सीट हार गए। उन्हें युवा बीजेएस उम्मीदवार लक्ष्मी नारायण पांडे ने हराया। कांग्रेस को केवल 142 सीटों पर जीत मिली। देशलेहरा को इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया।
वहीं काटजू के लिए एक अन्य विधायक ने अपनी सीट छोड़ दी, इस तरह वह विधानसभा पहुंचे। सीएम का पद खंडवा के शिक्षाविद् भगवंत राव मंडलोई को मिला। लेकिन 1963 में कामराज ने सुझाव दिया कि सभी वरिष्ठ कांग्रेस नेता अपने मंत्री पद छोड़ दें और अपनी ऊर्जा संगठन के लिए समर्पित करें। के कामरोज के आइडिया को जमीन पर उतारने के लिए मंडलोई को इस्तीफा देने के लिए कहा गया।
उनके बाद इस पद पर पुराने राजनीतिक परिवार के मुखिया और पहले सीएम रविशंकर शुक्ला के अच्छे दोस्त वयोवृद्ध नेता डीपी मिश्रा आए। मिश्रा आईएफएस अधिकारी ब्रजेश मिश्रा के पिता थे, जिन्होंने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
1967: पहली गैर-कांग्रेसी सरकार
कभी नेहरू के साथ मतभेदों के कारण कांग्रेस छोड़ने वाले मिश्रा बाद के वर्षों में इंदिरा गांधी के करीब आए। इंदिरा 1966 में प्रधानमंत्री बनी थीं और मिश्रा उन लोगों में से थे जिन्होंने उन्हें पार्टी के पुराने नेताओं की चुनौती से लड़ने में मदद की थी।
इस बीच, बीजेएस मजबूत हो रहा था और कुछ समाजवादी और ग्वालियर के विजयराजे सिंधिया जैसे पूर्व राजपरिवार पार्टी में शामिल हो गए थे। ग्वालियर राजपरिवार के मिश्रा के साथ गंभीर मतभेद थे। 1967 की विपक्षी लहर में एक दर्जन से अधिक राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं थी। लेकिन मध्य प्रदेश कांग्रेस इस लहर से बच गई। हालांकि बीजेएस ने मध्य प्रदेश विधानसभा की 296 सीटों में से 78 सीटें जीत ली।
डीपी मिश्रा सीएम बने रहे, लेकिन जुलाई 1967 में चुनाव परिणाम घोषित होने के चार महीने बाद, कांग्रेस विभाजित हो गई। गोविंद नारायण सिंह, जिन्हें मिश्रा के मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया गया था, अपने गुट के विधायकों से अलग हो गए और संयुक्त विधायक दल (एसवीडी) सरकार के मुख्यमंत्री बन गए, जो मध्य प्रदेश की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार थी।
हालांकि, गोविंद नारायण सिंह इस पद पर दो साल से भी कम समय तक रहे। उनके उत्तराधिकारी नरेश चंद्र सिंह थे, जो छत्तीसगढ़ क्षेत्र के एक आदिवासी राजवंश से थे।

आपातकाल के दौरान सरकारें
पहले आदिवासी मुख्यमंत्री ने दो सप्ताह से भी कम समय तक शासन किया। पहले मुख्यमंत्री के बेटे श्यामा चरण शुक्ला की नज़र कुर्सी पर थी और कई एसवीडी विधायक, जो गोविंद नारायण सिंह के साथ कांग्रेस छोड़ गए थे, वापसी की उम्मीद कर रहे थे। कांग्रेस राज्य में सत्ता में लौट आई और शुक्ला मुख्यमंत्री बने।
1972 के विधानसभा चुनावों के बाद, इंदिरा ने सीएम पद के लिए शुक्ला की जगह उज्जैन के विधायक प्रकाश चंद्र सेठी को चुना। इस बीच संजय गांधी दिल्ली में तेजी से शक्तिशाली व्यक्ति बनते जा रहे थे। सेठी का संजय के साथ असहज रिश्ता था और जून 1975 में आपातकाल की घोषणा के कुछ महीनों बाद, उनकी जगह संजय के पसंदीदा लोगों में से एक, शुक्ला को पद मिल गया। ऐसा ही कुछ उत्तर प्रदेश में भी हुआ, जहां एचएन बहुगुणा की जगह एनडी तिवारी को दी गई।
श्यामा चरण शुक्ल उन कुछ भारतीय मुख्यमंत्रियों में से एक थे जिनके पिता भी इस पद पर थे। कुछ अन्य उदाहरण भी हैं, जासे बीजू और नवीन पटनायक , देवी लाल और ओम प्रकाश चौटाला, मुलायम सिंह और अखिलेश यादव, एचडी देवेगौड़ा और एचडी कुमारस्वामी, वाईएस राजशेखर रेड्डी और वाईएस जगन मोहन रेड्डी।
आपातकाल के बाद 1977 के चुनाव में कांग्रेस 320 सदस्यीय सदन में 84 सीटों पर सिमट गयी। लेकिन जनता पार्टी सरकार का भी वही हाल हुआ जो एक दशक पहले की एसवीडी सरकार का हुआ था। तीन साल से भी कम समय में राज्य में तीन मुख्यमंत्री बने – कैलाश चंद्र जोशी, वीरेंद्र कुमार सकलेचा और सुंदरलाल पटवा। जनवरी 1980 में इंदिरा के प्रधानमंत्री के रूप में लौटने के तुरंत बाद एसवीडी सरकार को बर्खास्त कर दिया गया।
अर्जुन सिंह और मोतीलाल वोरा
1980 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 320 में से 246 सीटें जीतीं। बीजेएस ने खुद को भाजपा के रूप में फिर से स्थापित किया और नई पार्टी ने 60 सीटें जीतीं। संजय की मृत्यु के बाद राजनीति में सक्रिय हुए राजीव गांधी के साथ-साथ इंदिरा ने सीधी जिले के चुरहट से विधायक अर्जुन सिंह को मुख्यमंत्री पद के लिए चुना।
1980 से 1989 तक मध्य प्रदेश में पांच कांग्रेसी मुख्यमंत्री रहे – अर्जुन सिंह और मोतीलाल वोरा दो-दो बार इस पद पर रहे। इससे पहले श्यामा चरण शुक्ल को थोड़े समय के लिए उनका तीसरा कार्यकाल मिला था। अर्जुन सिंह और वोरा अपनी मृत्यु तक केंद्रीय राजनीति में सक्रिय रहे। सिंह कांग्रेस के सबसे धर्मनिरपेक्ष चेहरों में से एक थे और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मानव संसाधन विकास मंत्री के रूप में, उन्होंने शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
1990: भाजपा ने अपनी पहली सरकार बनाई
1990 की शुरुआत में विधानसभा चुनाव हुए। कांग्रेस हार गई। भाजपा को ऐतिहासिक जनादेश मिला, उसने 320 में से 220 सीटें जीतीं और सुंदरलाल पटवा सीएम बने।
भाजपा ने यूपी (कल्याण सिंह), राजस्थान (भैरों सिंह शेखावत) और हिमाचल प्रदेश (शांता कुमार) में भी अपनी सरकारें बनाईं। 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने सभी चार सरकारों को बर्खास्त कर दिया था।
दिग्विजय सिंह का एक दशक
1993 के चुनाव में बीजेपी 117 सीटों पर सिमट गयी। राव सरकार में अर्जुन सिंह के मंत्री और वोरा के राज्यपाल होने के कारण, भोपाल में सीएम का पद राघौगढ़ के पूर्व शाही परिवार के दिग्विजय सिंह को मिला। 2003 तक दिग्विजय पूरे दो कार्यकाल तक सत्ता में रहे। तब तक, अर्जुन सिंह ने कांग्रेस छोड़ दी थी, और वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने मध्य प्रदेश को दो भागों में विभाजित कर दिया था। अपने 10 वर्षों के अंत तक, दिग्विजय की सरकार अत्यधिक अलोकप्रिय थी।
उमा भारती, शिवराज सिंह चौहान
2003 में भाजपा दिग्विजय सिंह की कांग्रेस सरकार के खिलाफ भारी सत्ता विरोधी लहर का फायदा नहीं उठा सकी। वाजपेई सरकार में मंत्री उमा भारती ने चुनाव लड़ा। विदिशा से सांसद शिवराज सिंह चौहान को उस सीट से दिग्विजय सिंह के खिलाफ उतारा गया, जिसका प्रतिनिधित्व कभी वाजपेई करते थे। 230 में से 173 सीटों पर जीत हासिल कर भाजपा सत्ता में आई। कांग्रेस सिर्फ 38 सीटों पर सिमट गई, हालांकि खुद दिग्विजय जीतने में कामयाब रहे। रामजन्मभूमि आंदोलन के दौरान सुर्खियों में आईं उमा भारती सीएम बनीं।
हालांकि, एक पुराने मामले ने भारती को अगस्त 2004 में पद छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। केंद्रीय भाजपा के नेता चाहते थे कि वह चौहान को कमान सौंप दें, लेकिन वह सत्तर वर्षीय बाबूलाल गौर के लिए सहमत हुईं। हालांकि, एक साल से कुछ अधिक समय में, जब भाजपा के दूसरे स्तर के नेतृत्व के बीच खींचतान अपने चरम पर थी, तो गौर को इस्तीफा देना पड़ा और चौहान ने सीएम पद की शपथ ली। भारती ने इस सब को बहुत बुरी तरह से लिया। अगले दशक में उन्हें पार्टी से दो बार निष्कासित कर किया और वापस भी ले लिया गया।

चौहान 2005 से 2018 तक लगातार सीएम
2018 के चुनाव में कांग्रेस ने 114 सीटें जीतीं, और भाजपा ने 109 सीटें जीतीं। 2019 के लोकसभा चुनाव में हारने के एक साल बाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया ने वह पार्टी छोड़ दी, जिसकी उनके पिता माधवराव सिंधिया ने सेवा की थी। बाद में उस पार्टी में शामिल हो गए, जिसकी सह-संस्थापक उनकी दादी विजयाराजे थीं। इससे कमलनाथ की कांग्रेस सरकार गिर गई और चौहान मार्च 2020 में फिर से सीएम बन गए।
शोले की प्रतिष्ठित जोड़ी के नाम पर खुद को जय-वीरू कहने वाले दिग्गज कमल नाथ और दिग्विजय सिंह अब चौहान के नेतृत्व वाली भाजपा के खिलाफ एक बड़ी लड़ाई में हैं। कांग्रेस को अच्छा प्रदर्शन करने की उम्मीद है और उम्मीद है कि 2023 का विधानसभा चुनाव 2024 की लोकसभा लड़ाई के लिए सकारात्मक संकेत देगा।