जीवन का मर्म कई बार समाज में प्रचलित परंपराओं और व्यवस्था के बोझ तले घुट कर रह जाता है। कई बार सोचती हूं कि वह कौन-सी सदी थी, जब जन-साधारण में शिक्षा का प्रसार नहीं हुआ था और जब पोथियों के ज्ञाता पारलौकिक दुनिया के अमूर्त भय दिखा कर लोगों पर हुकूमत करते थे या कुछ मुट्ठी भर लोग तलवारों के बल पर उपनिवेश बसा लेते थे; जब जातिवाद अपने चरम पर था और जब महिलाएं चारदिवारी के भीतर कैदी की तरह जिंदगी जीने को मजबूर थीं…! उस दौर में आने वाले समाज के सपने देखे जाते थे कि जब हर व्यक्ति और समाज शिक्षित हो जाएगा, तब प्रभुत्वशाली लोगों और तबकों के जुल्मो-सितम और भेदभाव के नियम-कायदे खत्म हो जाएंगे। महिलाएं और बच्चे खूब पढ़ेंगे और सब लोग सम्मान का जीवन जी सकेंगे! लेकिन कमजोर लोगों को अपना शिकार मानने वाले राजाओं का युग खत्म हुआ, फिर अलग-अलग कौमें हम पर राज करने पहुंच गर्इं। उनके मुताबिक नियम-कायदे बने, इस सबके विरुद्ध असंतोष जागा और फिर युवाओं ने तारीख बदल दी। हर बार आक्रोश फूटा, आंदोलन हुए और आखिरकार हमने अंग्रेजों तक को भगा कर अपने देश को आजाद करा लिया।
इसके लिए अनगिनत देशवासियों ने कुर्बानियां दीं, अत्याचार सहे, जुल्म बर्दाश्त किए, पर भावी पीढ़ियों के लिए वे नया सवेरा देकर गए, ताकि आने वाले समय में हम सम्मानजनक जीवन जी सकें। लेकिन क्या यह सच नहीं है कि कई मायनों में हम आज भी वहीं खड़े हैं? हमारे लिबास बदल गए हैं, जुबान में अंग्रेजियत घुल गई है, मगर मानसिक तौर पर हम कई बार पहले के मुकाबले काफी पिछड़ गए लगते हैं! शायद इसीलिए आधुनिक कहे जाने वाले हमारे आज के समाज में भी रोहित वेमुला जैसे किसी होनहार युवा को दलित होने के कारण निराशाजनक माहौल में डूबना पड़ जाता है और आखिर वह आत्महत्या की राह पकड़ लेता है। स्वतंत्रता सेनानियों ने सपना देखा था अभिव्यक्ति की आजादी का, असंतोष के विरुद्ध आवाज उठाने का, प्रतिवाद, महिलाओं की शिक्षा, स्वतंत्रता, निर्णय लेने की आजादी और इक्कीसवीं सदी के उन्नत भारत का!
लेकिन आज जो रहा है, क्या यही वह सपना है? क्या यही वह भारत है, जिसके निर्माण के लिए हर कालखंड में युवाओं ने हंसते-हंसते अपना बलिदान दिया? आज की तारीख में भी हर रोज अनगिनत महिलाएं भय के साए में जिंदा रहने को मजबूर हैं। जहां बचपन बचाने के सभी अभियान और सरकारी योजनाएं मासूमों की सुरक्षा की गारंटी नहीं ले पाते, जहां सरकारें पांच सालों के लिए सिर्फ हुकूमत के लिए आती हैं, बदलाव करने नहीं, जहां प्रतिवाद करने पर किसी युवा को आत्महत्या की राह पर धकेल दिया जाता है। यह कौन-सी सदी है? हम किस ओर बढ़ रहे हैं? अगर हर क्षेत्र में तरक्की के आंकड़े तेजी से बढ़ रहे हैं, तब किस कोने में बैठा जाति का जहर अपना काम चुपके से कर जाता है? महिलाएं, मासूम और दलित आज भी असुरक्षित क्यों हैं? हम तरक्की की राह पर बढ़ते हुए किस दिशा में जा रहे हैं? आने वाली सदी कौन-सी और कैसी सदी होगी?
इस तरह के सारे सवाल हमें अपने आप से पूछने होंगे। इन चुभते सवालों के जवाब तलाशने का वक्त आ गया है। व्यक्तिगत स्वार्थपरता से ऊपर उठ कर काम करने की जरूरत है, वरना वह दिन दूर नहीं, जब हम एक ऐसे युग में खड़े होंगे जहां केवल सक्षम को जीने का हक होगा, लोकतंत्र हाशिये पर होगा। आधुनिक लिबास का आवरण ओढ़े हम एक तरह से एक असभ्य समाज में जीने को मजबूर होंगे।
आने वाली पीढ़ियां हमारा पुराना इतिहास पढ़ कर हमें क्या कहेंगी, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। अगर उन्होंने हमसे पूछ लिया कि ‘आप हमें यह कैसा समाज दे रहे हैं, तब हमारे पास उनके सवालों के क्या जवाब होंगे? हम सब मिल कर वर्तमान को बदलने का माद्दा अगर नहीं रखते तो हमें उनके सवालों के जवाब देने के लिए तैयार रहना होगा, जब वे पूछेंगे कि यह कौन-सी सदी है और आप हमारे लिए यह कौन-सा समाज छोड़ कर जा रहे हैं?
क्या सरकारें चलाने, कानून बनाने और उन्हें लागू करने वाले भी हमारे बीच के ही लोग नहीं हैं? क्या बदलाव की चिंगारी हममें से किसी एक के भीतर से नहीं फूटनी चाहिए? क्या हम सिर्फ इल्जाम लगाने, कोसने और हालात सहते रहने के लिए इतना लंबा सफर तय करके आए हैं? समय आ चुका है जब हम अपने इतिहास से सबक लें। गलतियों को सुधारें और उन्हें जड़ से खत्म करके समाज को जीने लायक बनाएं, जहां जाति के सवाल पर किसी और होनहार युवा के सामने जान देने की नौबत न आने दिया जाए।