आरती सक्सेना
सिनेमा ने समाज को हर दौर में आईना दिखाया है। समाज की खामियों को पहचान कर सिनेमा उस पर उंगली रखता है, और समाज उसे स्वीकार कर, ठीक कर आगे बढ़ता है। समाज चाहे बदलता हो, सिनेमाई आईना कभी नहीं बदला। समाज में डाकू से लेकर डॉन तक आए, सिनेमा ने दिखाए। समाज में छुआछूत, दहेज प्रथा, भ्रष्टाचार, अन्याय दिखा तो सिनेमा ने उसके सामने आईना रख दिया। प्रतिभा पलायन हुआ तो ‘पूरब और पश्चिम’ से लेकर ‘स्वदेश’ बनी। बहुएं जलाई जाने लगीं, तो ‘दहेज’ बनी जिसके एक दशक बाद दहेज विरोध कानून अस्तित्व में आया। सिनेमा कभी भी, किसी दौर में भी सामाजिक सरोकारों से दूर नहीं हुआ। आज भी यह समाज को आईना दिखा रहा है। ऐसे ही प्रयासों पर एक नजर।
हिंदी सिनेमा ने हमेशा अपने समाज और वक्त को लोगों को सामने रखने का काम किया है। हर दौर में फिल्मकारों ने अपने दौर की समस्याओं पर कैमरा और लेखकों ने कलम चलाई। जब स्टूडियो सिस्टम था, तब प्रभात, बॉम्बे टॉकीज, न्यू थियेटर्स जैसी कंपनियां यह काम कर रही थीं। बाद में यही परंपरा बिमल राय, वी शांताराम से लेकर ख्वाजा अहमद अब्बास और राज कपूर जैसे फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों में आगे बढ़ाई। जब ‘दहेज’ जैसी प्रथा ने समाज में समस्याएं पैदा करनी शुरू की, तो वी शांताराम ने 1950 में दहेज बनाई। समाज और सरकार ने इस समस्या को समझा और 11 सालों बाद बना दहेज विरोधी कानून। देश में भाषावाद और प्रदेशवाद जब सिर चढ़कर बोला तो ‘एक दूजे के लिए’ जैसी प्रेम कहानी के माध्यम से सिनेमा ने इसे लोगों के सामने रखा।
समय के साथ बदले मुहावरे
समय के साथ सिनेमा के तेवर और मुहावरे बदलने लगे। व्यावसायिकता इस कारोबार पर हावी होने लगी। बावजूद इसके सिनेमा ने समाज को आईना दिखाने का काम बंद नहीं किया। हल्की फुल्की मनोरंजन प्रधान से लेकर बेसिरपैर की बनी फिल्मों के बीच भी कोई फिल्मकार ‘न्यूटन’ बनाकर मतदान का महत्व समझाता है। महिलाओं पर तेजाब फेंकने की बढ़ती घटनाओं के बीच ‘छपाक’ जैसी फिल्म बनती है जिसमें उस महिला का दुख देखने की कोशिश की जाती है जिस पर तेजाब हमला किया गया। देश में शौचालय क्रांति होती है तो अक्षय कुमार की ‘टायलट- एक प्रेम कथा’ सामने आती है। या महिलाओं में स्वच्छता या माहवारी के विषय को पैडमैन के जरिए उठाया जाता है। ‘फायर’ और ‘अलीगढ़’ जैसी फिल्मों के माध्यम से समाज का एक पक्ष उजागर किया जाता है। कोई ‘हिंदी मीडियम’ के माध्यम से सर्वग्रासी अंग्रेजी के चलते खड़ी हुई समस्या की ओर ध्यान खींचने का काम करता है। हो सकता है कि ये प्रयास छिटपुट नजर आते हों, मगर मुख्यधारा के सिनेमा में इस तरह के प्रयास किसी दौर मेंं बंद नहीं हुए।
आगामी प्रयास
कई फिल्मकार है जिनकी बनाई हुई फिल्मों में सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दे उठाए गए हैं और उनका जल्दी ही प्रदर्शन होना है। ऐसी फिल्मों में संजय लीला भंसाली की ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ भी है जो एक महिला के संघर्ष और सशक्त बनने की कहानी कहती है। कमाठीपुरा के कोठे पर बेच दी गई गंगूबाई किस तरह से विपरीत स्थितियों का सामना कर खुद को ताकतवर महिला बनाती है, यही फिल्म में बताया गया है। अन्याय और सत्ता के दुरुपयोग की कहानी कहती है जान अब्राहगम अभिनीत ‘सत्यमेव जयते 2’। इस फिल्म में वर्तमान में चल रहे किसान आंदोलन का मुद्दा उठाने की कोशिश भी की गई है। कोयला तस्करों की दुनिया को सामने रखेगी कंगन रनौत की फिल्म ‘धाकड़’। इस फिल्म की शूटिंग मध्य प्रदेश के बैतूल में की गई है।
आतंकवाद के खिलाफ बन रही अक्षय कुमार की फिल्म ‘बेल बॉटम’ भी दर्शकों के सामने आएगी। गांव से शहर आकर अपराध की दुनिया से जुड़ने की समस्या को सलमान खान की फिल्म ‘अंतिम- द ट्रुथ’ के माध्यम से सामने रखा गया है। जम्मू-कश्मीर के हालातों को फिल्म ‘आर्टिकल 370’ के जरिए दिखाया गया है। हो सकता है फिल्मकारों का सामाजिक समस्याओं और मुद्दों को सामने रखने का अंदाज जुदा हो, मगर यह काम सिनेमा की दुनिया में आज भी बदस्तूर जारी है।