हिंदी फिल्मों की दुनिया में हर दौर में प्रेम कहानियों पर फिल्में बनती रही हैं। 1930 के दशक में ‘देवदास’ (1935, केएल सहगल- जमुना) के साथ दर्शकों की एक पीढ़ी ने असफल प्रेमियों की पीड़ा महसूस की। 1932 में सिनेमा के बोलने के साथ ही प्रेम कहानियों का त्रिकोणीय खाका बन गया था, जिसमें तीन चीजें होती थीं। प्रेमी-प्रेमिका और उनके मिलन की राह में रोड़ा अटकाने वाला तत्व। आज भी बॉलीवुड की प्रेम कहानियों में इस फॉर्मूले का इस्तेमाल होता है। कभी यह तत्व खलनायक के रूप में होता है, कभी जाति, प्रदेश, ऊंच-नीच, गरीब-अमीर के रूप में।
1944 की ‘रतन’ (स्वर्णलता-करण दीवान) सुपर हिट थी जिसका नायक गोविंद वैश्य समाज का था, तो नायिका गौरी राजपूत समाज की। 1981 की ‘एक दूजे के लिए’ के तमिलभाषी नायक (कमल हासन) और उत्तर भारतीय नायिका (रति अग्निहोत्री) के मिलन में भाषा के साथ प्रदेशवाद रोड़ा बन जाता है। ‘बॉबी’ (1973) के नायक (ऋषि कपूर) नायिका (डिंपल कापड़िया) या ‘मैंने प्यार किया’ के नायक प्रेम (सलमान खान) और सुमन (भाग्यश्री) के मिलन में अमीरी-गरीबी बाधा बन जाती है और प्रेमियों को कड़े इम्तिहान से गुजरना पड़ता है। मुख्यधारा के निर्माताओं का मानना रहा है कि प्रेमी-प्रेमिका को मिलने से रोकने वाला तत्व जितना ताकतवर दिखाया जाएगा, फिल्म की सफलता के मौके भी उतने ज्यादा बनेंगे।
मगर 25 साल पहले, 20 अक्तूबर 1995 को रिलीज हुई ‘दिलवाले दुलहनियां ले जाएंगे’ ने इस फॉमूर्ले को हाशिए पर पटक दिया। यह ऐसी प्रेम कहानी थी जिसमें नायक-नायिका के मिलन को ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी प्रदेशवाद, जाति या धर्म रोकते नजर नहीं आते हैं। उसमें नायिका सिमरन का पिता बलदेव सिंह (अमरीश पुरी) परंपरावादी है तो नायक राज का पिता धरमवीर मल्होत्रा (अनुपम खेर) खुले विचारों का। नायक-नायिका को मिलने से रोकने वाला तत्व परंपरावादी पिता दिखता तो है मगर होता नहीं। क्योंकि वह तो अंत में कहता है कि ‘जा सिमरन जी ले अपनी जिंदगी’।
‘दिलवाले दुलहनिया ले जाएंगे’ में नायक-नायिका को मिलने से रोकने वाला तत्व हालात हैं, स्थितियां हैं। प्लेटफॉर्म पर दौड़ती नायिका, गति पकड़ रही ट्रेन के दरवाजे पर खड़ा नायक और सिनेमा हॉल में दम साधे बैठे दर्शक… इस तरह से फिल्म में हालात अपने चरम पर पहुंचते हैं। हालांकि इस क्लाइमैक्स से निर्देशक आदित्य चोपड़ा के पिता यश चोपड़ा नाखुश थे।
जिस तरह से इंग्लैड अमेरिका समेत विदेश में बसे ‘भारतीयों ने ‘दिलवाले दुलहनियां ले जाएंगे’ को सिर-आंखों वह लिया वह हिंदी सिनेमा की दुनिया में अभूतपूर्व है। यूरोप की खूबसूरती और पंजाब के खेतों में लहराती हरियाली से लबरेज ‘दिलवाले दुलहनियां ले जाएंगे’ ने बॉक्स आॅफिस पर इतिहास रच दिया। मुंबई के मराठा मंदिर में यह लगभग 22 सालों तक लगातार दिखाई जाती रही। इसने हिंदी फिल्मों का चेहरा-मोहरा बदल दिया। इस फिल्म के बाद अमेरिका, इंग्लैंड और कनाडा में बसे पंजाबियों को ध्यान में रखकर फिल्में और उनके गाने बनाने का चलन चल पड़ा। फिल्मों में सरसों के खेत लहराने लगे और गानों में पंजाबी शब्द कुड़ी और मुंडे ऐसे आम हुए कि ‘सत्या’ जैसी फिल्म में मराठी परिवार से अपने यहां होने वाली शादी में गवाया गया, ‘सपने में मिलती है ओ कुड़ी…।’