उत्तर प्रदेश की सियासत जातिगत गुणा-गणित के आस-पास ही घूमती आई है। चाहे वह विधानसभा चुनाव हों या लोकसभा चुनाव। किस दल की सरकार बनेगी? इसका भी फैसला करता है। इन सब के बाद भी साम्प्रदायिक मसले, विकास पर किए जाने वाले सवालों पर भारी पड़ जाते हैं। जातियों के गुणा-गणित पर जब साम्प्रदायिकता का तड़का लगता है तब प्रदेश की 403 विधानसभा सीटें अलग तस्वीर के साथ उभरती हैं।
उत्तर प्रदेश की सभी 403 विधानसभा सीटों में हर पर ब्राह्मण मतदाता दस हजार से कम नहीं है। यहां गौर करने वाली एक बात और है। उत्तर प्रदेश की 403 विधानसभा सीटों में से 150 से अधिक पर हार और जीत के बीच का अंतर दस हजार से अधिक नहीं होता। ब्राह्मण 2007 में सोशल इंजीनियरिंग के फलसफे के तहत बहुजन समाज पार्टी के साथ खड़ा हुआ, उसकी सरकार बनी।
2012 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव में एक युवा और दूरदृष्टा नेता देख कर उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण ने समाजवादी पार्टी को वोट दिए। अखिलेश की सरकार बनी। अब सवाल यह है कि 2007 में बसपा और 2012 में समाजवादी पार्टी के साथ जो ब्राह्मण खड़ा था वह उससे दूर क्यों हुआ? वजह सिर्फ एक थी।
प्रदेश के ब्राह्मणों को ऐसा लगा कि न ही बहनजी की सरकार में उन्हें यथोचित सम्मान मिला और न ही अखिलेश के राज में। यदि उन्होंने ऐसा न सोचा होता तो न ही अखिलेश की सरकार बनती और न ही मायावती की सरकार जाती। ऐसे में 2014 के लोकसभा चुनाव में ब्राह्मण भारतीय जनता पार्टी के पाले में जा खड़ा हुआ। एक विधानसभा में दस हजार से कम ब्राह्मण मतदाता नहीं हैं। तो एक लोकसभा में पचास हजार तो इनकी संख्या है ही। ये वोट भाजपा को मिले और इसका परिणाम 2019 के लोकसभा चुनाव तक देश ने देखा भी।
ऐसे में फिर एक सवाल खड़ा होता है। जो ब्राह्मण 2014 के लोकसभा चुनाव से भाजपा को वोट दे रहा है वह इस बार किसे मतदान करेगा? यानी हर विधानसभा सीट के दस हजार मत एकमुश्त किसे मिलेेंगे? यहां एक बात और ध्यान देने वाली है कि उत्तर प्रदेश में सरयूपारी, कान्यकुब्ज, जुझौतिया समेत 24 से अधिक गोत्रधारी ब्राह्मण रहते हैं लेकिन, उनका मत अधिकांशत: किसी एक दल को ही जाता रहा है।
प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में जातिगत संरचना हर गांव में स्पष्ट है। गांव के दक्षिणी कोने पर रहने वाले पिछड़ी व अन्य पिछड़ी जातियों के बीच भी चुनावी चर्चा का दौर जारी है। हर गांव में उनकी अलग चौपाल लगती है। इसमें चुनाव चर्चा जोरों पर है। यहां ध्यान रखने वाली बात यह है कि प्रदेश के हर गांव में जिसकी आबादी पांच हजार है, वहां इस बिरादरी के 30 फीसद से अधिक मतदाता हैं। यहां अखिलेश भी मोबाइल फोन से पहुंच चुके हैं, मायावती भी और योगी आदित्यनाथ भी।
उधर साम्प्रदायिक मुद्दे और उनसे जुड़ी पुरानी कड़ुई यादों को भी उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में याद दिलाने का वक्त भी आया है। इस मसले का सिर्फ एक उद्देश्य है। अब इन जटिल जातीय समीकरणों में उलझे चुनाव में नौकरशाह भी कूद पड़े हैं। वहीं जेलों में बंद कई बाहुबलियों की अर्धांगनियां भी चुनाव मैदान में अपने पतियों की मौजूदा हालत की दुहाई दे कर जनता से वोट मांग रही हैं। ऐसे में इस बार के विधानसभा चुनाव में भी यही देखना है कि 10 मार्च को विकास पर जातियां हावी होती हैं। या जातियों और साम्प्रदायिक मसलों पर विकास। या इन सभी को साथ गूंथ कर कुछ ऐसा निकलता है जो प्रदेश में कोई नया सियासी इतिहास रच दे।