उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के पहले चरण की 73 सीटों के नतीजे मुसलमान मतदाताओं के रुझान से तय होंगे। पंद्रह जिलों की इन सीटों पर 11 फरवरी को वोट पड़ेंगे। चुनाव प्रचार गुरुवार शाम को खत्म हो गया। भाजपा की पूरी कोशिश इस दौरान सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की नजर आई तो मुसलमान मतदाता प्रचार में खामोश दिखे। हालांकि किसी एक दल के प्रति उनके समर्थन की कोई गारंटी नहीं कर रहा। जिन सीटों पर भाजपा का जोर है वहां वे मुसलमान उम्मीदवारों के चक्कर में पड़ने के बजाए भाजपा को हराने की सामर्थ्य रखने वाले उम्मीदवार के पक्ष में ध्रुवीकरण कर सकते हैं। पहले चरण की सीटें जिस इलाके में हैं, वहां मुसलमान निर्णायक संख्या में हैं। कुछ सीटों पर वे 20-25 फीसद हैं तो कई जगह 35 से 45 फीसद तक। लोकसभा चुनाव में भाजपा की आंधी ने मुसलमानों की सियासी हैसियत खत्म कर दी थी। यूपी की 80 सीटों पर एक भी मुसलमान चुन कर लोकसभा नहीं पहुंच पाया था जबकि 2012 के विधानसभा चुनाव में विभिन्न दलों के 64 मुसलमान चुन कर लखनऊ पहुंचे थे। जो आजादी के बाद हुए तमाम चुनावों का सबसे बड़ा आंकड़ा था। लोकसभा चुनाव के सदमे से उबरने के लिए मुसलमान इस बार रणनीतिक तौर पर किसी एक दल से बंधने के बजाए भाजपा को हराने के लिए मतदान करेंगे, यह आशंका खुद भाजपा के नेता भी जता रहे हैं। पर वे मुसलमानों से समर्थन की उम्मीद भी कैसे लगा सकते हैं क्योंकि भाजपा ने 403 सीटों पर एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया है।
चुनाव प्रचार के दौरान किसी भी दल या गठबंधन के पक्ष में हवा नजर नहीं आई। मतदाता भी खामोशी से त्रिशंकु विधानसभा की संभावना को आंकते हुए आखिरी वक्त पर कोई निर्णायक फैसला लेंगे तभी तस्वीर साफ हो पाएगी। अलबत्ता भाजपा अभी भी 2014 के लोकसभा चुनाव के आंकड़े से नीचे उतरने को तैयार नहीं है। जब इलाके की सभी लोकसभा सीटों पर उसकी आंधी में विपक्ष का सूपड़ा साफ हो गया था। 73 में से 50 विधानसभा सीटों पर उसे बढ़त मिली थी। लोकसभा के नतीजों को ही पार्टी ने विधानसभा के नतीजों में बदलने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया। जबकि लोकसभा और इस चुनाव में जमीन आसमान का फर्क है। भाजपा के स्टार प्रचारक भले अभी भी नरेंद्र मोदी ही हैं और उनकी व्यक्तिगत लोकप्रियता में कमी तो जरूर आई है पर विश्वसनीयता अभी कायम है। तो भी विधानसभा चुनाव का मूल्यांकन 2012 के नतीजों से करना ज्यादा व्यवहारिक होगा। जब 73 में से सपा और बसपा को 24-24 व भाजपा को महज 11 सीटें मिल पाई थीं। कांग्रेस को पांच व अजित सिंह के हिस्से नौ सीटें आई थीं। तब कांग्रेस और अजित सिंह का गठबंधन था। अब कांग्रेस और सपा एक साथ हैं। जबकि अजित सिंह अकेले लड़ कर भाजपा को ज्यादा नुकसान पहुंचा रहे हैं।
मेरठ, मुजफ्फरनगर, शामली, बागपत, गाजियाबाद और अलीगढ़ से लेकर एटा तक कहीं भी मुकाबला सीधा नहीं दिख रहा। कहीं भाजपा, बसपा व सपा-कांग्रेस तीनों के बीच कांटे की लड़ाई है तो कहीं अजित सिंह के रालोद के उम्मीदवार इसे चतुष्कोणीय बना रहे हैं। विकास और लोकलुभावन घोषणाओं के दावे के बावजूद कोशिश सबकी जातीय समीकरण फिट करने की ही दिखी।कांग्रेस और सपा के गठबंधन के बाद मायावती के लिए मुश्किल बेशक बढ़ी। मुसलमानों की पहली पसंद अब बसपा के बजाए कांग्रेस-सपा गठबंधन ही नजर आया। जबकि जाट मतदाताओं का रालोद के पक्ष में ऐसा मुखर ध्रुवीकरण लंबे अरसे बाद पहली बार दिखाई पड़ा। अजित के असर वाली ज्यादातर सीटें इसी चरण में हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रचार के दौरान कांग्रेस और सपा पर ज्यादा हमला किया। बहुजन समाज पार्टी के प्रति भाजपा नेता प्रचार में उतने आक्रामक दिखने से बचे। इसी से अखिलेश और राहुल की जोड़ी को मुसलमान मतदाताओं के बीच यह संदेश देने का बहाना मिला कि स्पष्ट जनादेश देने में चूक कर दी तो बसपा आगे बढ़ जाएगी और वह सत्ता के लिए भाजपा से गठबंधन कर लेगी। इसके उलट मायावती ने अपने दलित-मुसलमान गठजोड़ पर भरोसा किया। भाजपा के लिए इस बार जाटों की नाराजगी महंगी हो सकती है। वे न केवल अजित सिंह के प्रति नरम दिखे बल्कि भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति उनका रुख मोटे तौर पर नकारात्मक नजर आया। भाजपा ने कैराना से हिंदुओं के पलायन और राम मंदिर से लेकर तीन तलाक जैसे मुद्दों को उभारने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पर दंगों के अतीत वाले कुछ शहरी इलाकों को छोड़ कहीं भी हिंदू ध्रुवीकरण जैसा पहलू नजर न आना भाजपा को परेशान करता दिखा।