इस बार के लोकसभा चुनाव की खास बात यह रही कि मुसलिम दबदबे वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुसलिम संस्थाओं और उलेमाओं ने जहां सियासी फतवों और अपीलों से परहेज किया वहीं उन्होंने सियासी दलों के नेताओं से सार्वजनिक भेंट भी नहीं की। अबकी मुसलिम रणनीतिकारों ने इस बात का खास ध्यान रखा कि किसी भी रूप में उनकी ओर से मुसलिम धु्रवीकरण का संदेश न जाए। जिससे उसकी प्रतिक्रिया में हिंदुओं में भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकरण न हो सके। पिछले चुनावों तक हर बार यह परंपरा सी बन गई थी कि देवबंद स्थित इस्लामिक शिक्षण संस्था दारूल उलूम में सियासी दलों के नेताओं का तांता लगा रहता था और वे किसी न किसी रूप में मुसलिमों के समर्थन का संदेश देने में सफल हो जाते थे। दारूल उलूम ने अपनी पहल पर सियासी दलों के संस्था में प्रवेश पर सख्ती से रोक लगाई। जिसके अबकी बार अच्छे नतीजे सामने आते दिखाई दे रहे हैं।
देवबंदी मसलक के सामाजिक और धार्मिक संगठन जमीयत उलमा ए हिंद के जिम्मेदारान ने भी इस बार कोई भी आपत्तिजनक बयान नहीं दिया। लोकसभा चुनाव 2014 में जमीयत के एक गुट के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं दारूल उलूम के हदीस के वरिष्ठ उस्ताद मौलाना अरशद मदनी ने यह बयान देकर लोगों में तसद्दुद पैदा करने की कोशिश की थी कि यदि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं तो यकीनन मुल्क टूट जाएगा। यह अलग बात है कि उनकी चेतावनी के बावजूद मोदी प्रधानमंत्री बनें लेकिन मुल्क के अस्तित्व पर किसी तरह की कोई आंच नहीं आई। इस बार मदनी ने खुद के ऊपर अंकुश लगाए रखा। जमीयत के दूसरे गुट के महामंत्री महमूद मदनी ने भी कोई सियासी बयान और सक्रियता नहीं दिखाई।
पिछले लोकसभा चुनाव में सहारनपुर के कांग्रेस उम्मीदवार इमरान मसूद ने भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के टुकड़े-टुकड़े करने संबंधी सनसनीखेज बयान देकर देश की सियासत में उबाल पैदा कर दिया था। इस बार प्रधानमत्री मोदी पांच अप्रैल को सहारनपुर के नानौता में चुनावी सभा के लिए आए तो उन्होंने इमरान के उसी बयान का उल्लेख कर मामले को ताजा करने का काम किया। लेकिन इमरान मसूद ने कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई और उल्टे अपने पिछले बयानों पर साफ सफाई देते दिखे और खुद को प्रखर राष्ट्रवादी और देशभक्त बताने में व्यस्त रहे। दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बुखारी भी इस बार चुनावी सीन से गायब रहे। हर चुनाव में जामा मस्जिद के फतवे और अपील अखबारों की सुर्खियां बनते थे। लोकसभा चुनाव 2004 में तो तब हद ही हो गई थी जब अहमद बुखारी ने लोकसभा चुनाव में मुसलमानों से तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और भाजपा के समर्थन की अपील कर दी थी।
इस लोकसभा चुनाव में पिछले चुनावों से उलट सेकुलर दलों ने मुसलिम उम्मीदवारों को भी बहुत कम संख्या में उतारा है। सहारनपुर मंडल की चार लोकसभा सीटों पर ही उनके दो उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतरे। सहारनपुर सीट पर बसपा ने फजलुर्ररहमान कुरैशी और कैराना सीट पर सपा ने सांसद तबस्सुम हसन करे उम्मीदवार बनाया था। मुजफ्फरनगर सीट पर जहां 2014 में बसपा ने कादिर राणा को उम्मीदवार बनया था वहीं इस बार वहां कोई मुसलिम उम्मीदवार नहीं था। सपा, बसपा और कांग्रेस ने रालोद सुप्रीमो अजीत सिंह का समर्थन किया था। मुसलिम बाहुल्य बिजनौर सीट पर बसपा ने गुर्जर बिरादरी के मलूम नागर को उम्मीदवार बनाया था। सपा और रालोद उसके समर्थन में रहे।
अलबत्ता कांग्रेस ने वहां नसीमुद्दीन सिद्दिकी को खड़ा किया था। उस सीट पर ध्रुवीकरण का प्रभाव नहीं दिखाई दिया। सहारनपुर सीट पर भी कांग्रेस ने इमरान मसूद के रूप में मुसलिम उम्मीदवार उतारा था। जिससे इस सीट पर भी अबकी ध्रुवीकरण नहीं दिखा। जबकि 2014 के चुनाव में तेज ध्रुवीकरण था। जिसकी प्रतिक्रिया में भाजपा उम्मीदवार राघव लखनपाल शर्मा ऐतिहासिक रूप से 4 लाख 72 हजार वोट लेकर आराम से सीट जीत गए थे। अबकी इस सीट पर कोई यह दावा नहीं कर रहा है कि भाजपा जीतेगी या गठबंधन।