Lok Sabha Election 2019: लोकसभा चुनाव के पहले चरण में बिहार की 4 सीटों के लिए वोटिंग हो रही है। ये सीटें औरंगाबाद, नवादा, गया और जमुई हैं। इन चारों सीटों की अपनी अहमियत है और यहां के चुनावी और जातीय समीकरण भी अलहदा हैं। बिहार में मुख्य रूप से मुकाबला दोतरफा ही है। एक तरफ एनडीए है, तो दूसरी तरफ आरजेडी, कांग्रेस, हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा, विकासशील इंसान पार्टी जैसे दलों से मिलकर बना महागठबंधन है। दोनों गठबंधनों की पार्टियों ने स्थानीय समीकरण व जातियों के आधार पर टिकटों का बंटवारा किया है। गठबंधन की यह रणनीति कितनी कारगर होगी, यह तो चुनाव परिणाम आने के बाद ही पता चलेगा। हालांकि, इससे पहले हम जानते हैं कि मौजूदा समीकरण और मुद्दों के आधार पर किस सीट पर किस पार्टी के उम्मीदवार की क्या स्थिति रहेगी।
गया लोकसभा सीट : गया लोकसभा सीट झारखंड से सटी हुई है और मगध क्षेत्र में आती है। गया की पहचान बौद्ध धर्म के बड़े केंद्र के साथ हिंदुओं के लिए भी सबसे अहम धार्मिक स्थान के रूप में है। 80 के दशक में जब नक्सली आंदोलन ने बिहार में पैर पसारना शुरू किया तो उसकी जड़ें जिन कुछ इलाकों में सबसे पहले जमीं, उनमें गया भी शामिल था। गया में जितनी भी जातियां बसती हैं, उनमें मुसहरों की आबादी तुलनात्मक रूप से अधिक है। हालांकि, दिलचस्प बात यह है कि माओवादी आंदोलन यहां मजबूत होने के बावजूद कभी भी इस सीट से वामपंथी उम्मीदवार को जीत नहीं मिली। अलबत्ता 1952 के पहले चुनाव से लेकर अब तक यहां से कांग्रेस, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ, जनता पार्टी, जनता दल, राष्ट्रीय जनता दल और बीजेपी के उम्मीदवार जीतकर संसद पहुंच चुके हैं। मुसहर बिरादरी की तादाद अधिक होने के चलते ही पिछले 2 दशक से लगातार इसी समुदाय के उम्मीदवार को यहां जीत मिल रही है। 2009 और 2014 में इस सीट से बीजेपी नेता हरि मांझी ने जीत दर्ज की, लेकिन इस बार उन्हें टिकट नहीं मिला। समझौते के तहत यह सीट जेडीयू के खाते में चली गई है। जेडीयू ने विजय मांझी को मैदान में उतारा है। वहीं, महागठबंधन ने यह सीट हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा के मुखिया व पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी को दी है। जीतनराम मांझी ने कांग्रेस से अपनी सियासी यात्रा शुरू की थी और आरजेडी, जेडीयू से होते हुए अपनी अलग राह पकड़ ली। जीतनराम मांझी तीसरी बार इस सीट से किस्मत आजमा रहे हैं।
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समीकरण का संकेत : वर्ष 2014 के आम चुनाव का आंकड़ा देखें तो जीतन राम मांझी तीसरे नंबर पर थे। उस वक्त उन्होंने जेडीयू के टिकट पर चुनाव लड़ा था। इस चुनाव में आरजेडी नेता रामजी मांझी ने दूसरा स्थान हासिल किया था। वर्ष 2014 के चुनाव में मोदी लहर के चलते बीजेपी को काफी वोट मिले थे। हालांकि, इस बार ऐसा होना मुश्किल है, क्योंकि कोई लहर नहीं है। अगर मान लिया जाए कि आरजेडी का वोट बैंक अछूता है तो जीतनराम मांझी के लिए जीत की राह आसान दिख रही है, क्योंकि उन्हें आरजेडी का वोट भी मिलेगा और उनका अपना भी। वहीं, बीजेपी उम्मीदवार के पक्ष में यह जा रहा है कि इस बार उन्हें जेडीयू का भी वोट मिलेगा, क्योंकि जेडीयू और बीजेपी साथ हैं। हालांकि, बीजेपी के साथ जाने के चलते जेडीयू के दलित वोट बैंक में सेंध लगने की भी आशंका है। अगर ऐसा होता है तो जीतनराम मांझी को फायदा मिलेगा।
जमुई लोकसभा सीट : जमुई लोकसभा सीट 1952 में ही अस्तित्व में आई थी, लेकिन बीच में परिसीमन के चलते 2 बार यह सीट खत्म हुई और फिर अस्तित्व में आई। जमुई जैन धर्मावलंबियों की तीर्थस्थली है। कहा जाता है कि जमुई को कभी जम्भियाग्राम भी कहा जाता था। मान्यता है कि 24वें जैन तीर्थंकर महावीर को यहां ज्ञान प्राप्त हुआ था। वहीं, कई राजवंशों ने भी यहां शासन किया। जमुई स्टेशन से आगे बढ़ने पर सड़क किनारे बने चबूतरों पर लिखे नारे यहां के मिजाज की बानगी देते हैं। एक बैनर पर लिखा मिलता है- इस चबूतरे पर बैठकर खैनी बनाना और खाना मना है। ऐसे ही और भी कई नारे हैं। बहरहाल, हम बात करते हैं यहां कि सियासी फिजा की। जमुई सीट पर 4 बार कांग्रेस ने जीत हासिल की है। एक बार सीपीआई, एक बार जेडीयू और 2014 के चुनाव में अभिनेता से नेता बने एलजेपी मुखिया व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान ने बाजी मारी। इस चुनाव में आरजेडी उम्मीदवार सुधांशु कुमार भास्कर दूसरे नंबर पर थे।
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समीकरण का संकेत : यह इस सीट इस बार भी एलजेपी के खाते में गई है और चिराग पासवान दूसरी बार चुनावी समर में हैं। उनका मुकाबला भूदेव चौधरी से है, जिन्होंने वर्ष 2009 के आम चुनाव में जेडीयू के टिकट पर जीत दर्ज की थी। इस बार भूदेव महागठबंधन की सहयोगी पार्टी आरएलएसपी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। स्थानीय लोगों का मानना है कि इस बार चिराग पासवान के लिए जीत आसान नहीं होगी, क्योंकि उन्हें अपने दम पर चुनाव लड़ना है। जमुई में कुल 9 लाख मतदाता हैं। इनमें पिछड़ों के साथ राजपूत, यादव व मुस्लिमों की भी ठीक-ठाक आबादी है। पिछले चुनाव में चिराग पासवान को पिछड़ों के साथ राजपूतों को भी वोट मिला था, लेकिन स्थानीय लोगों ने बताया कि इस बार राजपूत चिराग पासवान को वोट नहीं देंगे, क्योंकि उन्हें लेकर नाराजगी काफी ज्यादा है। वहीं, भूदेव चौधरी की बात करें तो उन्हें आरजेडी के साथ आरएलएसपी का भी वोट मिलेगा। पिछले चुनाव में मोदी लहर के बावजूद आरजेडी प्रत्याशी को करीब 3 लाख वोट मिले थे और जीत का अंतर 85 हजार वोट था। जमुई बिहार का इकलौता जिला है, जहां करीब 4 लाख बीड़ी वर्कर रहते हैं। इन वर्करों की हालत दयनीय है, क्योंकि इन्हें मजदूरी बेहद कम मिलती है। ये वर्कर भी चुनाव में भारी उलटफेर करने का माद्दा रखते हैं, लेकिन अफसोस की बात है कि किसी भी पार्टी ने उनमें संभावना तलाशने की कोशिश नहीं की।
नवादा लोकसभा सीट : करीब 19 लाख वोटरों वाला नवादा उन गिनी-चुनी सीटों में शुमार है, जिस पर राज्यभर की निगाहें जमी हुई हैं। इस सीट से टिकट कटने के कारण गिरिराज सिंह खासा नाराज हो गए थे और चुनाव नहीं लड़ने की धमकी दे डाली थी। हालांकि, पार्टी नेतृत्व ने उन्हें तवज्जो नहीं इह और बेगूसराय से तैयारी करने का फरमान सुना दिया। इस प्रकरण के बाद से नवादा सियासी गलियारों में चर्चा का केंद्र बना हुआ है। भूमिहार बहुल इस सीट से कभी पिछड़े वर्ग से आने वाले नेता जीतते थे, लेकिन अब इस वर्ग के नेता हाशिए पर हैं। कांग्रेस, कम्युनिस्ट के साथ ही बीजेपी उम्मीदवार को भी कई बार संसद तक पहुंचाने वाली इस सीट पर भूमिहारों का वोट ही निर्णायक होता है। भूमिहार कार्ड खेलकर ही 2009 और फिर 2014 में बीजेपी ने जीत दर्ज की थी। 2009 में भोला सिंह सांसद बने तो 2014 के चुनाव में नवादा ने गिरिराज सिंह को चुना। नवादा सीट के साथ दुर्भाग्य यह है कि इसे स्थानीय सांसद नहीं मिला। चाहे वह गिरिराज सिंह हों, डॉ भोला सिंह, वीरचंद पासवान, संजय पासवान, मालती देवी या कामेश्वर पासवान हों।
समीकरण के संकेत : इस बार समझौते में यह सीट बीजेपी के हाथों सरककर एलजेपी के पास चली गई है। एलजेपी ने बाहुबली नेता सूरजभान के भाई चंदन कुमार को टिकट दिया है, जबकि आरजेडी ने पार्टी के पूर्व विधायक और रेप के अभियुक्त राजबल्लभ यादव को मैदान में उतारा है। यहां एलजेपी के लिए जीत काफी हद तक आसान दिख रही है। दरअसल, यहां आरजेडी और बीजेपी का यहां अपना वोट बैंक तो है ही, जेडीयू का भी ठीकठाक वोट है। 2014 के चुनाव में जेडीयू उम्मीदवार को 168217 वोट मिले थे। 2014 का चुनाव जेडीयू ने अकेले लड़ा था, जबकि इस बार वह एनडीए के साथ है। ऐसे में जेडीयू-बीजेपी का वोट भी एलजेपी उम्मीदवार को मिलेगा। आरजेडी को अपने पारंपरिक वोट बैंक पर ही भरोसा करना होगा।
औरंगाबाद लोकसभा सीट : मगध क्षेत्र में शामिल औरंगाबाद को बिहार का चित्तौड़गढ़ भी कहा जाता है, क्योंकि यहां राजपूतों की आबादी सबसे ज्यादा है और सियासत में उनका खासा हस्तक्षेप भी है। सियासी हस्तक्षेप का आलम यह है कि यहां कभी भी गैर राजपूत उम्मीदवार ने जीत दर्ज नहीं की। यहां वोटरों की तादाद करीब 17 लाख 37 हजार है। औरंगाबाद पर बिम्बिसार से लेकर अजातशत्रु, चंद्रगुप्त मौर्य और सम्राट अशोक तक का शासन रहा। जीटी रोड देने वाले शेरशाह सूरी ने भी यहां राज किया। उनकी मौत के बाद यह मुगल बादशाह अकबर की सल्तनत का हिस्सा हो गया।
समीकरण के संकेत: यूं तो यह सीट काफी समय तक कांग्रेस के पास रही, लेकिन हाल के वर्षों में यहां सियासी रुझान बदला है। यूं भी कह सकते हैं कि यहां पार्टी से ज्यादा व्यक्ति केंद्रीत राजनीति होती है। इस सीट से मौजूदा सांसद सुशील कुमार सिंह राजपूत बिरादरी से आते हैं और अलग-अलग पार्टियों के टिकट पर 3 बार जीत दर्ज चुके हैं। इससे पता चलता है कि उनका अपना वोट बैंक भी है। वर्ष 2014 का चुनाव उन्होंने बीजेपी के टिकट पर लड़ा था और जीत दर्ज की थी। इस बार भी पार्टी ने उन्हें ही टिकट दिया। महागठबंधन में यह सीट जीतनराम मांझी की पार्टी हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा (सेकुलर) को मिली है। मांझी ने यहां से उपेंद्र कुशवाहा को उम्मीदवार बनाया है, जो पहले जेडीयू में थे। इस सीट पर कांग्रेस की नजर थी, लेकिन मांझी की पार्टी को टिकट मिलने से औरंगाबाद के कांग्रेस नेता व 2004 के चुनाव में औरंगाबाद से जीतकर सांसद बने निखिल कुमार काफी नाराज हुए। निखिल के समर्थकों ने इसे लेकर बिहार कांग्रेस के दफ्तर में हंगामा भी किया था। वैसे देखा जाए, तो यहां कांग्रेस का समर्पित वोट बैंक रहा है। वर्ष 2014 में नरेंद्र मोदी की लहर के बावजूद कांग्रेस को इस सीट पर दो लाख 41 हजार वोट मिले थे। ऐसे में अगर कांग्रेस को यह सीट मिली होती तो जबरदस्त मुकाबला होता। मगर, हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा को टिकट मिल जाने से निखिल गुट नाराज है। ऐसे में संभव है कि यह गुट भितरघात भी कर दे। अगर ऐसा होता है तो उपेंद्र कुशवाहा इस लड़ाई में कमजोर पड़ जाएंगे।

