Nari Shakti Vandan Adhiniyam: राजस्थान विधानसभा चुनाव 2023 में चुनी हुई महिला उम्मीदवारों की संख्या में काफी गिरावट देखी गई है। हाल में हुए विधानसभा चुनाव में 50 में से सिर्फ 20 महिलओं ने जीत हासिल की है, जो 2018 के चुनावों में 23 से कम है और साल 2013-2018 में 28 से भी कम है। इस लिहाज से 200 सदस्यीय सदन में महिलाओं की ताकत 10 प्रतिशत के करीब है, जो काफी कम है। जबकि हाल ही में संसद में पारित महिला आरक्षण विधेयक में 33 फीसदी कोटा की परिकल्पना की गई है, लेकिन इसी के साथ सवाल यह भी उठता है कि नारी शक्ति वंदन अधिनियम का सपना कैसे पूरा होगा। इसको लेकर बीजेपी, कांग्रेस समेत राजनीतिक दलों से सवाल पूछे जा सकते हैं।
भाजपा या कांग्रेस द्वारा मैदान में उतारे गए उम्मीदवारों में महिलाएं एक तिहाई भी शामिल नहीं थीं। भाजपा ने मात्र 20 महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, जबकि कांग्रेस ने 28 महिलाओं या अपने कुल उम्मीदवारों में से 14% के साथ थोड़ा बेहतर प्रदर्शन किया। जीतने वाली महिला विधायकों में 9 बीजेपी और 9 कांग्रेस की हैं, जबकि दो निर्दलीय हैं।
चुनावों के दौरान महिलाएं मतदान प्रतिशत के मामले में पुरुषों से थोड़ा आगे रहीं। जिसमें 74.72% महिला मतदाताओं ने अपना मताधिकार का प्रयोग किया, जबकि 74.53% इतने पुरुषों ने वोट डाले। वहीं 2018 के विधानसभा में पुरुषों के अधिक भागेदारी रही थी। तब पुरुषों ने 74.53% फीसदी डाले, जबकि 73.49% महिलाओं की भागेदारी रही थी।
महिला प्रत्याशियों को टिकट देने में बीजेपी-कांग्रेस दोनों पीछे
चुनावों से पहले भाजपा ने महिलाओं के खिलाफ अपराधों में वृद्धि को एक प्रमुख चुनावी चिंता के रूप में उजागर किया, जबकि कांग्रेस ने मुफ्त सैनिटरी नैपकिन और मुफ्त स्मार्टफोन प्रदान करने जैसे अपने महिला-केंद्रित कार्यक्रमों पर भरोसा किया। हो सकता है कि उन्होंने ऐसे कदम उठाए हों, लेकिन जब महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारने की बात आई, तो दोनों पार्टियां पीछे रह गईं।
बाड़मेर को ही लीजिए, जहां 2016 में 17 वर्षीय दलित लड़की के साथ बलात्कार और हत्या ने बड़ी लहर पैदा कर दी थी। 2018 में सत्ता में आई कांग्रेस सरकार ने उनके नाम पर एक गांव का नाम बदल दिया था। इस चुनाव में न तो कांग्रेस और न ही बीजेपी ने किसी महिला को उम्मीदवार नहीं बनाया और बीजेपी की बागी प्रियंका चौधरी ने निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीत हासिल की।
तीन बार के मौजूदा कांग्रेस विधायक मेवाराम जैन को हराने वाली प्रियंका चौधरी ने द इंडियन एक्सप्रेस से कहा, ‘चुनाव जीतने के लिए तो बड़ी-बड़ी बातें तो सभी करते हैं, लेकिन जब समर्थन देने का समय आता है तो कोई मुंह मोड़ लेता है। हमें राजनीतिक प्रतिनिधित्व पाने के लिए संघर्ष करना होगा।’ वो कहती हैं कि पुरुष राजनेता नहीं चाहते कि महिलाएं सफल हों या आगे आएं… उन्हें एक समर्पित, मेहनती और मजबूत महिला राजनेता अपने लिए खतरा लगती हैं।’
वो कहती हैं कि सर्वे में उन्हें क्षेत्र का सबसे अच्छा उम्मीवार माना गया, लेकिन इसके बावजूद बीजेपी ने उनको टिकट नहीं दिया। उन्होंने कहा कि जिला स्तरीय पार्टी संगठन ने इसे स्वीकार नहीं किया। मेरे नामांकन के ख़िलाफ़ निर्णय लेने वालों में एक भी महिला नहीं थी। मैं 15 वर्षों से पार्टी में समर्पित होकर काम कर रही थी। किसी को परवाह नहीं थी। हमें विशेष रूप से इस बार निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाली एक महिला उम्मीदवार की आवश्यकता थी, लेकिन मेरी अपील अनसुनी कर दी गई।
राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार तबीना अंजुम बताती हैं कि राज्य में दो बार वसुंधरा राजे के रूप में महिला मुख्यमंत्री होने के बावजूद महिला उम्मीदवारों के लिए स्थिति नहीं बदली है। अंजुम कहती हैं, “कांग्रेस ने शफ़िया ज़ुबैर को टिकट नहीं दिया, जिससे वह बाहर होने वाली पहली मौजूदा विधायक बन गईं… पार्टी ने अपने 80% से अधिक मौजूदा विधायकों को बाद की सूचियों में बरकरार रखा।”
शफिया ने टिकट काटे जाने पर जताई थी नाराजगी
विज्ञान में स्नातक और रामगढ़ से मौजूदा विधायक शफिया को कांग्रेस की दूसरी सूची में उनके पति जुबैर खान के साथ बदल दिया गया। अंजुम का कहना है कि शफिया अपनी बोलने की शैली के लिए जानी जाती हैं। निर्वाचन क्षेत्र में उनका अपना प्रभाव है। उन्होंने 2018 में 10,000 से अधिक वोटों से सीट जीती थी।
टिकट काटे जाने पर साफिया ने नाराजगी जाहिर की थी। साफिया ने कहा था कि पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं का निर्वाचन तो हो जाता है, लेकिन काम नहीं कर पाती है।
भाजपा द्वारा मैदान में उतारी गई कुल 20 महिला उम्मीदवारों में से 10 आरक्षित वर्ग से थीं, जबकि कांग्रेस द्वारा मैदान में उतारी गई 28 महिला उम्मीदवारों में से 11 आरक्षित वर्ग से थीं। राजनीतिक विश्लेषक अशफाक कायमखानी कहते हैं, ”आरक्षित सीटों पर सामान्य सीटों की तुलना में कम उम्मीदवार होते हैं। यह प्रतीकात्मकता का उदाहरण है। पार्टियों को लगता है कि ‘हमें चुनाव में कुछ महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारना होगा’, इसलिए वे इन सीटों को चुनते हैं।’
राजनीति में पुरुष आगे बढ़ जाते, लेकिन महिला नहीं
अंजुम कहती हैं कि आदिवासी सीटों पर महिला मतदाता अधिक हैं, इसलिए वे महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारने के लिए इन सीटों को चुनते हैं। वो कहती हैं कि पार्टियां ऐसे फैसलों में महिलाओं के सशक्तिकरण पर वास्तव में विचार करने के बजाय अपने हितों को प्राथमिकता देती हैं।
जबकि राजनीतिक या शाही परिवारों से महिला नेताओं के उदाहरण कई है। कायमखानी बताती हैं कि वरिष्ठ पुरुष राजनेता, इसके विपरीत, अपने बेटों को बढ़ावा देते हैं और बहुत कम ही अपनी बेटियों को आगे आने देते हैं। वे कहते हैं, ”अशोक गहलोत, राजेश पायलट, रामनाथ सिंह, नारायण सिंह, गोपाल खंडेला तो इसके कुछ उदाहरण हैं।”
अंजुम यह भी बताती हैं कि राज्य के निवर्तमान विपक्षी नेता राजेंद्र राठौड़ जैसे कई पूर्व छात्र नेता राजनीति में सफल हुए हैं, लेकिन महिलाओं को परिवर्तन करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। 2011 में प्रभा चौधरी राजस्थान यूनिवर्सिटी छात्र संघ की पहली महिला अध्यक्ष बनीं और खूब सुर्खियां बटोरीं। वह कहती हैं कि प्रभा चौधरी अब कहां हैं? शैक्षणिक सत्र के बाद वह गुमनाम हो गईं और अब किसी भी पार्टी से विधायक पद की उम्मीदवार भी नहीं हैं। उनके कुछ पुरुष समकक्ष, जिन्होंने बहुत बाद में छात्र राजनीति में शुरुआत की, अब मौजूदा विधायक हैं।’
द इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए, राजस्थान चुनाव में विद्याधर नगर सीट से सबसे ज्यादा अंतर से जीतने वाली बीजेपी की मौजूदा सांसद दीया कुमारी ने कहा कि चीजें बदलाव के लिए तैयार हैं। उन्होंने कहा कि महिला आरक्षण विधेयक हाल ही में पारित किया गया है। आने वाले चुनाव में इसका ज्यादा असर पड़ेगा। भाजपा पहले से ही महिलाओं को पर्याप्त टिकट दे रही है।’ भोपालगढ़ से कांग्रेस की विजयी प्रत्याशी गीता बरवार ने कहा, “चूंकि एक महिला के पास अपनी घरेलू जिम्मेदारियां भी होती हैं, इसलिए पार्टी द्वारा हमें कम अवसर दिए जाते हैं।”