बात 1991 की है। दलित उत्थान के लिए संघर्षरत कांशीराम इटावा उपचुनाव जीत चुके थे। बहुजन समाज के लिए क़रीब एक दशक का  राजनीतिक संघर्ष और 1988 में इलाहाबाद लोकसभा उपचुनाव में मिली शिकस्त के बाद यह पहला मौका था, जब कांशीराम का चुनावी दखल अपना दम-खम दिखाने लगा। इसी दौरान उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा कि चुनावी राजनीति में नए समीकरणों की शुरुआत हो चुकी है। उन्होंने नई राजनीतिक आहटों को भांपते हुए मुलायम सिंह से हाथ मिलाने की पहल शुरू की। क्योंकि, कांशीराम खुद देश की उन 85 फीसदी आबादी की वकालत करते थे, जिसमें दलित, आदिवासी और पिछड़ा समाज शामिल था और मुलायम सिंह यादव भी पिछड़ा समाज (यादव) का चेहरा थे। कांशीराम ने अपने इंटरव्यू के जरिए मुलायम सिंह यादव पर अपना दांव खेलने की खुलेआम पहल की। उन्होंने कहा कि यदि मुलायम सिंह यादव से वह हाथ मिला लेते हैं, तो उत्तर प्रदेश से सभी दलों का सुपड़ा साफ हो जाएगा।

बीबीसी के मुताबिक कांशीराम के इस इंटरव्यू को पढ़ने के बाद ही मुलायम सिंह यादव ने उनसे मुलाकात की। मुलायम दिल्ली स्थित उनके आवास पर पहुंचे और नए राजनीतिक समीकरण पर बातचीत की। इस दौरान कांशीराम ने उत्तर प्रदेश में राजनीतिक हालातों और भविष्य की गतिविधियों को समझाया तथा नए राजनीतिक समीकरण का खाका पेश किया। नए सियासी समीकरण को जमीन पर उतारने के लिए उन्होंने मुलयाम सिंह यादव को पहले अपनी पार्टी बनाने की सलाह दी। जिसके बाद 1992 में मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी का गठन किया।

1985 में कांशीराम द्वारा गठित बहुजन समाज पार्टी को 1992 तक कोई खास सीटें हासिल नहीं हुई थी। उत्तर प्रदेश से 1989 के चुनाव में 13 और 1991 के चुनाव में पार्टी को 12 सीटें हासिल हुई थीं। लेकिन, समाजवादी पार्टी से हाथ मिलाने के बाद बीएसपी के सीटों की संख्या और राजनीतिक कद में भयंकर इजाफा हो गया। 1993 यूपी विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने 256 और बहुजन समाज पार्टी ने 164 सीटों पर चुनाव लड़ा और पहली बार बहुजन समाज की सरकार बनी। ये वो दौर था जब बाबरी मस्जिद ढहाई गई थी और उत्तर प्रदेश में बीजेपी के कार्यकर्ता और दक्षिणपंथी हिंदू संगठन राम मंदिर बनाने के लिए मुहिम छेड़े हुए थे। उस दौरान चुनाव में बीजेपी के कार्यकर्ता ‘जय श्रीराम’ के नारे लगा रहे थे। बीजेपी के इस नारे के जवाब में एसपी-बीएसपी के कार्यकर्ताओं का नारा था, ‘मिले मुलायम-कांशीराम, हवा हो गए जय श्रीराम’।

हालांकि, मुलायम और कांशीराम का गंठजोड़ ज्यादा दिनों तक नहीं टिका। लेकिन, सियासत में मौके को कैसे साधकर ताकतवर बना जाता है यह कांशीराम से सीखा जा सकता है। राजनीति में अपनी साख सत्ता के जरिए ही मजबूत की जा सकती है और कांशीराम इसे बाखूबी समझते थे। यही वजह रही कि उन्होंने बीजेपी से भी हाथ मिलाने में कोई परहेज नहीं किया। उन्होंने खुद अपने भाषण में यह बात कही थी कि पहले हम हारेंगे, दूसरी बार हराएंगे और तीसरी बार हम जीतेंगे। गठबंधन ही सही लेकिन उनकी पार्टी सत्ता में आई और पूर्ण बहुमत के साथ भी सत्ता में आई। हालांकि, बहुजन राजनीति को आयाम देने वाले कांशीराम ने अपनी जगह हमेशा मायावती को तवज्जो दी और वही बीएसपी का नेतृत्व करते हुए मुख्यमंत्री भी बनीं।