कभी देश में कांग्रेस का एकछत्र राज था, लेकिन अब कांग्रेस कुछ राज्यों तक ही सीमित हो गया है। बिहार में कांग्रेस का जनाधार 1989 के भागलपुर कौमी दंगे के बाद लगातार गिरता ही गया। 1977 में कांग्रेस एक भी संसदीय सीट पर जीत हासिल नहीं कर सकी थी। तब माना गया था कि वह आपातकाल का असर था। 1989 के चुनाव में केवल चार सीटों पर कांग्रेस को संतोष करना पड़ा था, जबकि आंकड़े बताते है कि इससे पहले हुए चुनाव में कांग्रेस का सितारा बुलंदी पर रहा है। 1952 में 45, 1957 में 41, 1962 में 39, 1967 में 34, और 1971 में 39 लोकसभा की सीटें जीतने वाली कांग्रेस 2019 में एक सीट पर सिमट कर रह गई।

गठबंधन में नौ सीट भी मिलती नजर नहीं आ रही है

हालांकि, महागठबंधन का हिस्सा बनी कांग्रेस को बिहार में सीटों पर उम्मीदवार उतारने के लिए राजद की मान मनौवल करनी पड़ रही है। राजनीतिकार बताते है कि 15 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारने की मंशा रखने वाली कांग्रेस को नौ सीटें भी बंटवारे में नहीं मिलती नजर आ रही हैं। वहीं पूर्णिया सीट फंसी है। पप्पू यादव ने अपनी पार्टी का कांग्रेस में इसी वजह से विलय किया है कि पूर्णिया सीट पर वे ताल ठोकेंगे।

1989 से लगातार पीछे ही जा रही है पार्टी

उधर जद(एकी) छोड़कर राजद की सदस्यता लेने वाली रुपौली की विधायक बीमा भारती भी इसी उम्मीद में है कि महागठबंधन की उम्मीदवार बनाई जाएगी लेकिन कांग्रेस की हालत बिहार में पतली है। इसमें दो राय नहीं है। आंकड़ों पर सरसरी निगाह डालने से भी साफ नजर आती है। 1989 में -चार, 1991-एक, 1996 में- दो, 1998 में -पांच, 1999 में – चार, 2004 में- तीन, 2009 में- दो, 2014 में- दो, 2019 में -एक पर विजयश्री मिली।

जबकि केंद्र में 2004 और 2009 में कांग्रेस नीत गठबंधन सरकार रही, लेकिन बिहार में कांग्रेस की हालत सुधारने और कुशल नेतृत्व देने में कोई ध्यान नहीं दिया या फिर ठोस नेतृत्व का आभाव रहा। दरअसल गुटबाजी, और सामाजिक न्याय का समीकरण बैठाने की कमी रही।

कांग्रेस के एक नेता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि गठबंधन का लाभ भी कांग्रेस को नहीं मिला और नेतृत्व भी ऐसा नहीं मिला जो सामाजिक न्याय की स्वीकार्यता की क्षमता रखता हो। यह अलग बात है कि राहुल गांधी भारत जोड़ो न्याय यात्रा के सिलसिले में बिहार के पूर्णिया और कटिहार आए। लेकिन पूरे बिहार में इसका असर नहीं के बराबर है।

कांग्रेस के मुकाबले राजद का बोलबाला है। जबकि भाजपा ने अपने बलबूते अपना संगठन को मजबूती से राज्य में खड़ा किया और सामाजिक स्वीकार्यता वाली अपने नेताओं की फौज खड़ी की। बल्कि सामाजिक फैसलों के लिए जद(एकी) से गठबंधन कर समाज के पिछड़े व अतिपिछड़ा वर्ग का भरोसा भी जीता। वहीं कांग्रेस इसमें भी पीछे होती गई।