उमेश कुमार राय: 1989 के भागलपुर दंगे के एक साल बाद 1990 में जब बिहार विधानसभा का चुनाव हुआ था, तो 196 विधानसभा सीटों पर कब्जा करनेवाली कांग्रेस महज 71 सीटों पर सिमट गई थी। इसके बाद से कांग्रेस के जनाधार के गिरने का जो सिलसिला शुरू हुआ, तो गिरता ही चला गया। वर्ष 2010 के विधानसभा चुनाव में तो कांग्रेस की सीट सिमटकर चार रह गईं और यह समझा जाने लगा था कि अब कांग्रेस की वापसी मुमकिन नहीं। लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने वापसी करते हुए राजद और जदयू के साथ मिल कर चुनाव लड़ा और 23 सीटों की बढ़त लेते हुए 27 सीटों पर जीत हासिल की।

कांग्रेस का कमबैक: कांग्रेस की इस जीत को उसके कमबैक के रूप में देखा जाने लगा। 2019 लोकसभा चुनाव में भी वर्ष 2015 के प्रयोग को ही दोहराने का फैसला लिया गया और हर संभव कोशिश की गई कि सियासी गलियारों में ऐसी अफवाह न उड़े कि राजद और कांग्रेस के बीच किसी तरह की खींचतान है। लेकिन, सीटों के बंटवारे को लेकर कांग्रेस और राजद में खींचतान की खबरें अब बाहर आने लगी हैं। माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश की तरह ही बिहार में भी कांग्रेस अलग चुनाव लड़ने को मजबूर हो सकती है। अगर ऐसा होता है, तो आम चुनाव के परिणाम का मानचित्र काफी बदल सकता है।

सीटों पर विवाद : बीते दिनों बसपा और सपा सुप्रीमो ने संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कहा था कि वे दोनों मिल कर चुनाव लड़ेंगे और इसमें कांग्रेस नहीं होगी। ये उस दिन की सबसे बड़ी राजनीतिक खबर बनी थी। इस घोषणा के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की तरफ से संतुलित बयान आया था जिससे साफ हो गया था कि वह अकेले चुनाव लड़ने के लिए मानसिक तौर पर तैयार हैं। लेकिन यूपी के बाद अब बिहार में भी सीटों के समझौते को लेकर राजद और कांग्रेस में गतिरोध है। बताया जा रहा है कि कांग्रेस 15 सीटें मांग रही है, लेकिन राजद सात सीटें ही देने को तैयार है। गौरतलब है कि वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 12 सीटें दी गई थीं, लेकिन वह महज दो सीटों पर ही जीत दर्ज कर सकी थी। हालांकि, अभी तक आधिकारिक तौर पर इसपर कोई बयान नहीं आया है।

राहुल गांधी करेंगे जनसभा को संबोधित: बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष मदन मोहन झा का इस मामले पर कहना है कि सीटों के समझौते पर अब तक कोई बात ही नहीं हुई है, फिर गतिरोध का सवाल कहां पैदा होता है। उन्होंने कहा, 14 जनवरी के बाद सीटों पर समझौते को लेकर बैठक होनेवाली थी, लेकिन अभी तक बैठक नहीं हुई है। हम लोग जल्द ही बैठ कर सीटों पर बातचीत करेंगे। वहीं इन सबके बीच कांग्रेस ने तीन फरवरी को गांधी मैदान में एक जनसभा करने की घोषणा कर दी है। इस जनसभा को खुद राहुल गांधी संबोधित करेंगे। माना जा रहा है कि जनसभा के जरिए कांग्रेस बिहार की सियासत में पांव टिकाने की कोशिश करेगी। कांग्रेस से जुड़े एक नेता ने नाम नहीं बताने की शर्त पर कहा, ‘पार्टी हाईकमान अकेले चुनाव लड़ने की संभावना को भी खारिज नहीं कर रहा है। इस जनसभा के माध्यम से पार्टी नेतृत्व यह आकलन करना चाह रहा है कि अकेले चुनाव लड़ने की सूरत में पार्टी को कितना फायदा या नुकसान हो सकता है।’हालांकि, इस जनसभा में महागठबंधन के नेता भी शामिल होंगे। मदन मोहन झा ने इसकी पुष्टि करते हुए कहा, ‘महागठबंन में शामिल सभी पार्टियों के वरिष्ठ नेताओं को आमंत्रण भेजा जाएगा।’

पुराने आम चुनावों का रिपोर्ट कार्ड: वर्ष 2004 से वर्ष 2015 के बीच हुए तीन लोकसभा और तीन विधानसभा के चुनावों के आंकड़ों को देखते हुए ठोस तौर पर कोई राय बनाना मुश्किल है। लेकिन, इतना जरूर है कि हाल के चुनाव के आंकड़े बताते हैं कि राजद के साथ गठबंधन कांग्रेस के लिए फायदे का सौदा है। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में बिहार में राजद और कांग्रेस एक साथ थे। इस चुनाव में कांग्रेस को वैसे तो वोट प्रतिशत में 4.23 प्रतिशत का नुकसान हुआ था, लेकिन वह तीन सीटों पर जीत कायम रखने में कामयाब हो गई थी। वहीं, 2009 में बिहार में कांग्रेस और राजद ने अलग अलग चुनाव लड़ा था, तो कांग्रेस का वोट शेयर बढ़ कर 10.26 प्रतिशत हो गया था, लेकिन उसे एक सीट का नुकसान हुआ था। कांग्रेस उस चुनाव में बिहार में महज दो सीट ही जीत पाई थी। वहीं इसके बाद 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस और राजद साथ थे, तो कांग्रेस को 8.4 प्रतिशत वोट मिले थे और उसने दो सीटों पर कब्जा जमाया था।

पुराने विधानसभा चुनावों का रिपोर्ट कार्ड: विधानसभा चुनाव के आंकड़े देखें, तो राजद के साथ गठबंधन के चलते ही वर्ष 2015 के चुनाव में कांग्रेस ने दो दशक में सबसे उम्दा प्रदर्शन करते हुए 23 सीटों की बढ़ते लेते हुए 27 सीटों पर कब्जा जमाया था। हालांकि, वोट शेयर के लिहाज से देखें, तो कांग्रेस को नुकसान हुआ था। वर्ष 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 5 प्रतिशत वोट मिले थे। वर्ष 2010 में कांग्रेस के वोट शेयर में 3.38 फीसदी का इजाफा हुआ था और उसे कुल 8.38 प्रतिशत वोट मिले थे। वहीं, 2015 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को करीब डेढ़ प्रतिशत का नुकसान हुआ था, लेकिन उसने अपनी जीत का दायरा बढ़ाया था और ऐसा इसलिए हुआ था कि राजद उसके साथ था।

कांग्रेस को क्यों हो सकता है नुकसान: बिहार में चुनाव में जातीय समीकरण अहम होता है। यहां की सत्ता की चाबी पिछड़ों व दलितों के हाथों में होती है। अगड़ी जातियों की आबादी बिहार में करीब 15 फीसदी है। इतनी ही आबादी मुस्लिमों की भी है। लालू प्रसाद यादव ने मुस्लिम व यादव-दलितों का समीकरण साध कर ही लंबे समय तक बिहार की सत्ता पर कब्जा जमाये रखा था। राजद का यह वोट बैंक कमोबेश अब भी सुरक्षित है। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस के साथ दिक्कत ये है कि उसका कोई समर्पित वोट बैंक नहीं है। अलबत्ता बहुत थोड़ी आबादी सवर्णों की है, जो कांग्रेस के प्रति वफादार हैं। कांग्रेस ने अगड़ी जातियों को लुभाने के लिए ही बिहार कांग्रेस का अध्यक्ष मदन मोहन झा को बनाया। यही नहीं, कई और अहम पद भी सवर्णों को दिये। लेकिन, बिहार में सवर्णों की एक बड़ी आबादी भाजपा को वोट देती रही है और अब भी दे रही है। हाल ही में केंद्र की भाजपा सरकार ने सवर्ण गरीबों को 10 प्रतिशत आरक्षण देकर अगड़ी जातियों का वोट बैंक सुरक्षित कर लिया है। इसलिए अब केवल सवर्ण वोटों के भरोसे चुनाव लड़ना कांग्रेस के लिए ‘आत्महत्या’ करने जैसा होगा। राजनीतिक विश्लेषक सुरूर अहमद इस पर रोशनी डालते हुए कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को सवर्णों का अच्छा-खासा वोट मिलता है, इसलिए वहां वह अकेले लड़ती है, तो भी फायदे में रहेगी, लेकिन बिहार में ऐसा नहीं है। दूसरी बात यह भी है कि कांग्रेस का बिहार में बहुत अच्छा प्रदर्शन नहीं रहा है। ऐसे में राजद के साथ चुनाव लड़ना उसके लिए फायदेमंद रहेगा। इससे वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव की तरह उसे बिहार में वापसी करने में मदद मिल सकती है।’

क्या मोलभाव के लिए उड़ाई जा रही अफवाह : चुनाव के वक्त गठबंधन टूटने-बनने की खबरें या कहें कि अफवाहें खूब उड़ती हैं। आरजेडी और कांग्रेस की तरफ से आधिकारिक तौर पर किसी तरह का बयान नहीं आने के बावजूद यह चर्चा चल रही है कि कांग्रेस आरजेडी से अलग होने जा रही है। इस पूरे मामले पर जानकारों का कहना है कि अगर कांग्रेस की तरफ से ऐसी अफवाह उड़ाई जा रही है, तो इसका मतलब यह भी हो सकता है कि वह अधिक सीटें पाने के लिए दबाव बना रही है। ऐसी अफवाहें दबाव बनाने के लिए ही उड़ाई जाती हैं। ये साफ है कि कांग्रेस के साथ राजद के अच्छे संबंध हैं। 2009 के आम चुनाव में लालू यादव ने बिहार में गैर-कांग्रेसी व गैर भाजपाई गठबंधन बनाया था, लेकिन चुनाव के बाद लालू ने अपनी गलती स्वीकार करते हुए कांग्रेस को केंद्र में निःशर्त समर्थन देने का ऐलान किया था। इसके साथ ही राहुल गांधी और तेजस्वी यादव के बीच भी अच्छी कैमिस्ट्री है, इसलिए जानकार मानते हैं कि दोनों ही नेता किसी भी हाल में गठबंधन नहीं टूटने देंगे। बहरहाल, इन सारे कयासों व अफवाहों की परिणति किस रूप में होगी, इसके लिए तीन फरवरी तक इंतजार करना होगा।