Lok Sabha Election 2019: लोकसभा चुनाव 2019 के आखिरी चरणों (छठे-सातवें) की लड़ाई अब चरम पर पहुंच चुकी है। उत्तर प्रदेश में जोर की आजमाइश जारी है और अब अखाड़ा बन गया है पूर्वांचल। पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लड़ाई अब गंगा, राप्ती, आमी, घाघरा, सरयू जैसी नदियों के किनारे आ गई है। पूर्वांचल की महत्वपूर्ण सीटों में से एक संतकबीर नगर में इस बार मुकाबला त्रिकोणीय कहा जा सकता है। वहीं, अभी सीट पर कब्जा जमाए बीजेपी के लिए इस सीट को लेकर हालिया फैसले फायदे से ज्यादा मुसीबत भरे साबित हो सकते हैं। महान संत और हिंदी के सबसे बड़े साहित्यकारों में एक संत कबीर की धरती में इस बार चुनावी बयार उल्टी बह रही है। किसी पार्टी के लिए मुकाबला सीधा नहीं रह गया है। सबसे ज्यादा मुश्किल हो रही है पिछली बार इस सीट को अपने कब्जे में करने वाली बीजेपी को। तीन ऐसे बड़े झंझावातों में बीजेपी के लिए यह सीट फंस गई है। 12 मई को इस सीट पर मतदान होना है।
बीजेपी के लिए बड़ी मुश्किल बनकर उभरे हैं ये तीन कारण
1. पहला सबसे बड़ा कारण, जिसने बीजेपी को परेशान किया है, वह है मौजूदा सांसद शरद त्रिपाठी द्वारा विधायक राकेश सिंह बघेल को जूते से मारना। इसके बाद यहां बीजेपी में बड़े पैमाने पर बिखराव हुआ, जिसे रोकने के लिए पार्टी ने मौजूदा सांसद का टिकट काटा। हालांकि, लंबे समय से अंदर-अंदर पनप रहे ब्राह्मण-ठाकुर के टकराव को फिर चर्चा में लाने से नहीं रोका जा सका। दोनों जातियां एक-दूसरे के साथ होते हुए भी दूर-दूर खड़ी हैं, जो बीजेपी के लिए घातक साबित होगा। पार्टी ने शरद त्रिपाठी का टिकट तो काटा है, लेकिन उनके पिता और बीजेपी के बड़े संगठनिक नेता समझे जाने वाले रमापति त्रिपाठी को देवरिया से टिकट देकर ‘भरपाई’ भी की है। बिखराव का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां त्रिपाठी परिवार अब पूरी तरह से देवरिया में प्रचार-प्रसार में जुट गया है। ऐसे में प्रवीण निषाद पर किसी भी तरह जीतने की जिम्मेदारी आ गई है। रमाशंकर संस्कृत विद्यापीठ के प्रधानाचार्य हरिप्रसाद सिंह कहते हैं कि जूताकांड से बिखराव तो हुआ है, लेकिन बीजेपी ने डैमेज कंट्रोल की पूरी कोशिश की है। इस आचरण को अशोभनीय बताते हुए वह कहते हैं कि इतने बड़े पद पर बैठे किसी भी व्यक्ति से ऐसे बर्ताव की उम्मीद नहीं की जा सकती। हालांकि, उनकी तरह इस क्षेत्र के कई लोग अपने सांसद यानी विधायक पर जूता चलाने वाले शरद त्रिपाठी को प्रबुद्ध, अच्छा वक्ता और आजकल के युवा नेताओं में खास मानते हैं।
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2. दूसरा सबसे बड़ा कारण महागठबंधन और ब्राह्मण प्रत्याशी। बीजेपी के लिए यहां लड़ाई दोहरी है, उसे न सिर्फ बसपा और सपा के वोटर्स से मुकाबला करना है, बल्कि गठबंधन ने क्षेत्र के बड़े ब्राह्मण नेता और पूर्व मंत्री हरिशंकर तिवारी के बड़े बेटे भीष्म शंकर तिवारी उर्फ कुशल तिवारी को मैदान में उतारा है। पिछली बार भले ही मोदी लहर में कुशल तिवारी हार गए थे, लेकिन इस बार उनके पास बसपा के अलावा सपा का वोट बैंक भी है। यही नहीं, ब्राह्मण वोटों में सेंध के कारण बीजेपी के लिए सवर्णों का जो वोट पड़ता है, उसमें कमी देखने को मिल सकती है। तिवारी परिवार ब्राह्मण वोट में सेंध लगाने का काम बड़े ही गुपचुप तरीके से करता आया है। यही कारण है कि लंबे समय से बसपा की ओर से वह इस इलाके में टिके हुए हैं।
3. तीसरे सबसे बड़े कारण की बात करें तो बीजेपी के लिए इस सीट पर प्रवीण निषाद को उतारना। निषाद पार्टी के साथ आने के बाद बीजेपी ने कई समीकरणों को एक साथ साधते हुए गोरखपुर में गठबंधन से बीजेपी प्रत्याशी को पिछले उपचुनाव में हराने वाले प्रवीण निषाद को संतकबीर नगर में प्रत्याशी बनाया है। उनके पास निषाद के वोट बैंक (जोकि इस सीट पर गोरखपुर से बहुत कम है) के अलावा कोई विशेष जुड़ाव नहीं दिख रहा है। सवर्ण (ब्राह्मण वोट में सेंध के बीच) और निषाद के वोट के सहारे बीजेपी के लिए इस सीट पर दिक्कत हो सकती है।
कांग्रेस की ‘चाल’ से बीजेपी फायदे मेंः कांग्रेस ने आखिरी दिनों में यहां से एक वक्त में माहिर नेता भालचंद्र यादव को टिकट देकर लड़ाई को त्रिकोणीय करने की कोशिश की है। कांग्रेस ने पहले इस सीट से परवेज खान को टिकट दिया था, लेकिन उससे 24 घंटे पहले ही पार्टी में शामिल हुए भालचंद्र यादव को टिकट देकर परवेज का पत्ता काट दिया। कांग्रेस में अंदरखाने इस फैसले का बड़ा विरोध हुआ। प्रियंका गांधी के सामने भी कुछ लोगों ने आपत्ति जताई, लेकिन पार्टी के इस फैसले से सीट पर कांग्रेस टक्कर में जरूर आई है। भालचंद्र यादव का न सिर्फ यादव वोटबैंक पर बड़ा असर है, बल्कि बतौर पूर्व सांसद इलाके में उनकी पकड़ भी है। बता दें कि भालचंद्र यादव कभी समाजवादी पार्टी के टिकट से यहां से सांसद रह चुके हैं और सीट बसपा के कोटे में जाने के कारण नाराज चल रहे थे।
कबीर, कबीरपंथ, मगहर और विकास : संतकबीर नगर जिले के नाम से ही यहां की लोकसभा सीट है। यहां के महत्व की बात करें तो गोरखपुर शहर से करीब तीस किमी दूर मगहर है, जहां संत कबीर दास ने अपने जीवन के आखिरी दिन बिताए थे। लोग वाराणसी को मोक्ष की नगरी मानते थे तो कबीर ने उसी मान्यता को तोड़ने के लिए अपने जीवन के अंतिम पांच साल मगहर में बिताए। उन्हें हिंदू-मुस्लिम एकता का पैरोकार भी समझा जाता है, जिसके कारण यहां उनकी समाधि स्थलि पर दोनों धर्मों के लोग जाते थे। पिछले साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद कबीर की स्थली पर आ चुके हैं। कबीर धाम में कबीर पंथी जरूर आते हैं, देशभर में जिनकी कुल संख्या करीब 3 या साढ़े तीन करोड़ बताई जाती है। इस संसदीय क्षेत्र से गुजरने वाली आमी नदी काफी गंदी हो चुकी है। कई स्थानों में सूखकर रेत हो चुकी है तो औद्योगिक हिस्सों में यह गंदे नाले में बदल गई है, जिसकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। गोरखनाथ मंदिर के महंत योगी आदित्यनाथ ने सीएम बनने के बाद इस इलाके में विकास कार्य तेज किया। यहां सिर्फ सड़क और बिजली को पैमाने पर रखें तो विकास दिखता है। हालांकि, किसानों की समस्या और रोजगार जैसे मुद्दे चर्चा से दूर हैं, लेकिन लोगों के लिए दिक्कत वाले तो हैं ही। छोटे-मोटे व्यवसाय के अलावा यहां से देश-विदेश पलायन कर जीविका चलाना लोगों की काफी समय से मजबूरी रहा है।
तीन जिलों की जद, वोटों का समीकरण : संत कबीर नगर लोकसभा की सीट यहां तीन जिलों को मिलाकर बनी है। खुद संत कबीर नगर के अलावा गोरखपुर और अंबेडकर नगर का बड़ा हिस्सा इस सीट के तहत आता है। वोटों के समीकरण की बात करें तो मेहदावल और आलापुर विधानसभा सीटों पर बीजेपी की पकड़ रही है। यहां से गुजरने वाली नदी सरयू का किनारा पूरा निषाद बेल्ट है। प्रवीण निषाद को गोरखपुर की तरह यहां भी अपने जाति से वोट की उम्मीद है। यहां निषाद वोटर ढाई से तीन लाख के बीच बताया जा रहा है। योगी के सीएम बनने के बाद यहां के क्षेत्रों का विकास तो हुआ है, लेकिन जातीय कसौटी पर इसके बहुत मायने नहीं हैं, क्योंकि यह पक्ष में वोट डलवाने लायक नहीं है। किसी भी एक समुदाय का वोट निर्णायक नहीं है, लेकिन जातीय समीकरण में सभी किंगमेकर हैं।
