बिहार में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है, यहां की सियासत में अलग तरह का उबाल है। ये उबाल उस पलटी का संकेत है जो अब किसी भी वक्त हो सकती है। सीएम नीतीश कुमार का महागठबंधन से मोह भंग हो गया है, वे अब फिर एनडीए के साथ जाने का मन बना चुके हैं। बड़ी बात ये है कि आधिकारिक तौर पर कोई कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है, लेकिन बैकडोर से सबकुछ हो रहा है, किसे कौन सा मंत्रालय मिलेगा, इस बात तक की चर्चा है।

लेकिन बिहार में हो रहा ये सियासी खेला सिर्फ एक राज्य तक सीमित नहीं रहने वाला है। इस समय 2024 का लोकसभा चुनाव बिल्कुल नजदीक है, इंडिया गठबंधन ने मोदी को हराने की ठानी है। उस गठबंधन को बनाने में नीतीश कुमार का बड़ा रोल था, उन्होंने ही सभी दलों को साथ लाने का काम किया था। दिल्ली के लगातार चक्कर काटने से लेकर अलग-अलग विचारों के नेताओं को एक मंच पर लाने तक, काफी कुछ नीतीश की मेहनत का नतीजा रहा। ऐसे में अब जब वे खुद ही उस गठबंधन से अलग होने का मन बना रहे हैं, इसका असर पूरे विपक्ष पर पड़ना लाजिमी है।

असर नंबर 1- परसेप्शन बैटल में हार

राजनीति में परसेप्शन मायने रखता है, जमीनी हकीकत के साथ क्या दिखाने की कोशिश हो रही है, उस पर भी सियासत निर्भर करती है। अब इसी रेस में इंडिया गठबंधन पिछड़ता दिख रहा है। पिछले कुछ दिनों में जो मोमेंटम विपक्ष के पक्ष में बना था, वो खो सा गया है। पहले पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया, इसके बाद पंजाब में सीएम मान ने अपना ऐलान कर दिया, यूपी में अखिलेश ने अपने मन से कांग्रेस को कम सीटें देने की बात की। इन सभी घटनाओं का निष्कर्ष तो ये निकल रहा है कि चुनाव से पहले ही इंडिया गठबंधन में दरार आ रही है।

ये दरार अब और ज्यादा बढ़ने जा रही है क्योंकि नीतीश कुमार पाला बदलने की फिराक में है। उनके जाने से तो और ज्यादा क्लियर मैसेज जाएगा कि मोदी को हराने के सपने देखने वाले अपने कुनबे को ही एक नहीं रख पा रहे। ये संदेश जनता के वोटिंग पैटर्न पर भी असर डाल सकता है।

असर नंबर 2- अति पिछड़ा वोट छिटकेगा

बात अगर अकेले बिहार की हो तो यहां तो नीतीश कुमार का चेहरा ही वोट देने के लिए काफी रहता है। विपक्ष तो बिहार को लेकर पूरी तरह आश्वस्त चल रहा था, आरजेडी के साथ जेडीयू का होना हर मायने में मजबूत समीकरण बना रहा था। नीतीश के पास खुद का अति पिछड़े समुदाय का एक वोटबैंक है, वहीं साथ में जब लालू के मुस्लिम और यादव आते हैं, ये गठजोड़ जमीन पर पूरी तरह हवा बदलने का दम रखता है।

बिहार में एक तरफ कुर्मी 5 फीसदी के करीब बैठते हैं तो वहीं कोइरी का आंकड़ा 11.5 प्रतिशत रहता है। ये 16 फीसदी के करीब वोट जिस भी पाले में चले जाते हैं, उनकी जीत सुनिश्चित मानी जाती है। इसी वजह से नीतीश जब किसी के साथ हाथ मिलाते हैं तो ये वोटबैंक भी उनके पास शिफ्ट हो जाता है। अब जब नीतीश फिर बीजेपी की तरफ से बैटिंग कर सकते हैं, इंडिया गठबंधन को ये 16 फीसदी वोट काफी खटकने वाला है। किसके सहारे इसे फिर अपने पाले में किया जाए, ये बड़ी चुनौती रहेगा। इसके ऊपर जिस तरह से केंद्र ने कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने का ऐलान किया है, उसका असर भी पिछड़े वोटर पर पड़ने जा रहा है, यानी कि दोनों तरफ से मुश्किल विपक्ष की बढ़ रही है।

असर नंबर 3- पीएम रेस से एक बड़ा चेहरा OUT

अब ये तो नुकसान की बात हुई, लेकिन कई ऐसे भी नेता हैं जिनके लिए नीतीश की एक्जिट से अवसर बन सकते हैं। नीतीश कुमार ने कभी सामने से खुद के लिए पीएम पद नहीं मांगा, लेकिन जिस तरह से वे इंडिया गठबंधन से नाराज चल रहे थे, जिस तरह से वे लगातार अपना आपा खो रहे थे, ये साफ था कि उनकी कुछ इच्छाएं पूरी नहीं हो पा रही थीं। उन्हें इस बात का मलाल भी था कि पूरे विपक्ष को एकजुट करने के बाद भी उन्हें उसका उतना क्रेडिट नहीं मिला जो मिलना चाहिए था।

इसी वजह से अब नीतीश तो अलग हो रहे हैं, लेकिन दूसरे कई नेताओं के लिए एक रूम फिर क्रिएट हो रहा है। सरल शब्दों में इसे कॉम्पटीशन का कम होना कहा जा सकता है। इंडिया गठबंधन में पीएम बनने के सपने तो ममता बनर्जी से लेकर अखिलेश यादव तक, कई नेता देख रहे हैं, समय-समय उनकी पार्टी की तरफ से समर्थन में तर्क भी दिए गए हैं। ऐसे में नीतीश जैसा चेहरा जब इस रेस से हट जाएगा तो ये लाजिमी सी बात है कि दूसरे नेताओं का नंबर बन सकता है।

असर नंबर 4- कांग्रेस और ज्यादा बैकफुट पर

वैसे नीतीश का जाना कांग्रेस को और ज्यादा बैकफुट पर भी ला सकता है। अभी तक कई मौकों पर देखा गया कि कांग्रेस के लिए खुलकर बैटिंग करने का काम नीतीश कुमार ही कर रहे थे। जिस समय देश में थर्ड फ्रंट बनाने की बात हो रही थी, नीतीश ही कांग्रेस को हर बार साथ लेकर चलने की बात कर रहे थे। लेकिन बाद में जब सीट शेयरिंग में देरी हुई, जिस तरह से कांग्रेस ने एमपी चुनाव के दौरान जेडीयू को कोई सीट नहीं दी, तल्खी बढ़नी शुरू हो गई थी। कांग्रेस की वो बेरुखी भी नीतीश के फिर एनडीए के साथ जाने का एक बड़ा कारण है। ऐसे में इंडिया गठबंधन को कांग्रेस को घेरने में देर नहीं लगेगी। उस प्रयास में कांग्रेस की बारगेनिंग पावर भी कम होती चली जाएगी और उसे सीटों की और ज्यादा कुर्बानी देनी पड़ सकती है।