Lok Sabha Election 2019: पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी महागठबंधन से भरसक अलग नहीं होंगे, लेकिन सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव ने अपनी राह अलग कर ली है। पप्पू का अंदाज वैसे भी राजद को कभी पसंद नहीं रहा, लेकिन बीच-बीच में मांझी भी परेशानी खड़ी करते रहे हैं। इनके अलावा उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश सहनी जैसे दावेदार भी हैं। शरद यादव तो बहरहाल मध्यस्थ की भूमिका में आ गए है, लेकिन कांग्रेस की हसरत से राजद की नींद उड़ी हुई है।

बुधवार को दिल्ली में कांग्रेसियों के साथ महागठबंधन के बिहारी दिग्गजों ने सीटों के बाबत विचार-विमर्श किया। बाकी रह गई बात गुरुवार यानी आज होनी है। सूत्रों से छनकर आई सूचना के मुताबिक कांग्रेस 12 सीटों तक समझौता कर सकती है। इससे पहले 14 और उससे पहले कम से कम 18 सीटों की मांग हो रही थी। कहलगांव विधानसभा क्षेत्र से लगातार नौवीं बार विधायक चुने गए सदानंद सिंह ने तो दो दिन पहले मुश्कें तक तान ली थीं। इस खुले एलान के साथ कि कांग्रेस अपने दम पर अकेले मैदान में उतर सकती है। 18 सीटों की मांग के पीछे कांग्रेस का अपना तर्क है।

बिहार में राजग के दो मुख्य सहयोगी भाजपा और कांग्रेस 17-17 सीटों पर उम्मीदवार उतारने वाले हैं। कांग्रेस की मांग का असल आधार यही है। पिछले चुनाव में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) की जीती हुई कटिहार सीट को मिलाकर कांग्रेसअपने लिए 18 सीटों की मांग कर रही थी। कटिहार के सांसद तारिक अनवर कुछ दिन पहले राकांपा छोड़ कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं। फिलहाल वे महागठबंधन में उम्मीदवारी का पेंच सुलझाने में लगे हुए हैं। एक तरह से मध्यस्थ की भूमिका है।

अगुवाई को लेकर कांग्रेस और राजद में खींचतान: अभी महागठबंधन की अगुवाई को लेकर भी दांव-पेच है। दिल्ली की हैसियत के हवाले से कांग्रेस अपने को बड़ा भाई मान रही, जबकि बिहार में जनाधार और लालू प्रसाद के कद-पद के मद्देनजर राजद की अपनी दावेदारी है। लालू की गैरहाजिरी में पार्टी के तमाम काम उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव निपटा रहे, जबकि सिंबल लालू ही देंगे। लालू अभी रांची के जेल में चारा घोटाले की सजा काट रहे हैं। तेजस्वी उनके छोटे पुत्र हैं और अपने बड़े भाई तेजप्रताप की तुलना में ज्यादा समझदार और संगठन को समेट कर चलने की क्षमता रखने वाले।

मांझी के अपने तर्क हैं, बीच में परिवार भी: लोकसभा के पिछले चुनाव यानी 2014 में जदयू ने अपनी राह भाजपा से अलग कर ली थी। भाजपा द्वारा नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के उम्मीदवार घोषित किए जा चुके थे और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को वह घोषणा नागवार गुजरी थी। चुनाव में जदयू की करारी शिकस्त हुई। नैतिकता के आधार पर नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। जीतन राम मांझी को नीतीश अपना उत्तराधिकारी चुने। उस समय मांझी राज्य में अनसूचित जाति-जनजाति कल्याण विभाग के मंत्री थे। मुख्यमंत्री की कुर्सी पाते ही मांझी पैंतरा लेने लगे। अंतत: जदयू ने उन्हें हटाते हुए एक बार फिर नीतीश कुमार को विधायक दल का नेता चुन लिया। उसके बाद नरेंद्र सिंह और वृशिण पटेल आदि के साथ मिलकर मांझी ने हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (सेक्युलर) यानी हम का गठन किया।

बाद में वे भाजपा के बगलगीर हो गए। विधानसभा चुनाव में जैसे-तैसे अपनी सीट बचा पाए। बाद में उनके पुत्र संतोष कुमार सुमन को विधान परिषद की सदस्यता मिल गई। मांझी के लिए यह बोनस रहा। उसके बाद के मोल-तोल के लिए वे राजद के साथ हो गए। आज साथी बिखर चुके हैं, फिर भी मांझी को गुणा-गणित से परहेज नहीं। सूत्र बताते हैं कि महागठबंधन उन्हें गया संसदीय क्षेत्र से उम्मीदवार बनाए। वे अपनी पार्टी से उम्मीदवार हों या राजद-कांग्रेस के टिकट पर। गया सुरक्षित संसदीय क्षेत्र है और मांझी के गांव-घर का इलाका। गया के अतिरिक्त बहुत हुआ तो मांझी को कोई एक सीट और मिल जाएगी उसके बाद की गुंजाइश नहीं। मांझी की मानें तो वे आखिरी फैसला 15 मार्च को प्रस्तावित हम के संसदीय बोर्ड की बैठक में करेंगे।

सन ऑफ मल्लाह की है अपनी दावेदारी: लोकसभा और विधानसभा के पिछले चुनाव में मुकेश सहनी राजग के मुखर प्रचारक थे। गाडिय़ों का काफिला और लक-दक पोशाक वाले पिछलग्गुओं का हुजूम। इसके लिए इंतजाम-गुंजाइश की बातें भी जितने मुंह उतनी। बाद में वे महागठबंधन के हिमायती बन गए। दावेदारी तो चार से छह लोकसभा क्षेत्रों पर है, लेकिन दो नहीं तो एक सीट से भी संतोष कर लेंगे। विकासशील इंसान पार्टी के नाम से उन्होंने अपना संगठन खड़ा कर रहा है और मछुआरों-मल्लाहों को अपना वोट बैंक बताते हैं। फिलहाल मुकेश सहनी के पीछे राजद लगा हुआ है और उसकी कोशिश है कि उन्हें लालटेन थमा दी जाए। दिल्ली में कांग्रेस के बिहार प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल और वेणुगोपाल से विचार-विमर्श करने गई महागठबंधन की टीम में वे भी शामिल रहे।

दांव-पेच लड़ा कर राह बदल लिए पप्पू: बिहार की राजनीति में राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव हमेशा एक मसला रहे हैं। पिछली बार वे मधेपुरा में राजद के टिकट से विजयी हुए थे। जदयू के तत्कालीन अध्यक्ष शरद यादव को करारी शिकस्त दी थी। उसी के बाद शरद यादव के राजनीतिक पराभव का दौर शुरू हो गया। मधेपुरा की बगल वाली सीट पर पप्पू की पत्नी रंजीत रंजन कांग्रेस के टिकट पर विजयी हुईं। घर की इन दोनों सीटों और साथ में घूमने वाली युवाओं की टोली के दम पर पप्पू यादव राजद और कांग्रेस से काफी मोल-तोल किए, लेकिन बात आगे नहीं बढ़ी। पप्पू के पुराने रिकॉर्ड, उनके मिजाज और राजनीति के अंदाज देख कर दोनों दलों में से किसी में हिम्मत नहीं हुई कि उन्हें गले लगाए।

बहरहाल पप्पू अपनी राह अलग कर चुके हैं। वे मधेपुरा के साथ पूर्णिया से भी चुनाव लड़ेंगे। पूर्णिया अभी जदयू की सिटिंग सीट है। लोकसभा के पिछले चुनाव में पूर्णिया और नालंदा तक जदयू की जीत सिमट कर रह गई थी। पूर्णिया में मात खाने वाले भाजपा के उदय सिंह उर्फ पप्पू सिंह इस बार कांग्रेस से टिकट की फिराक में हैं। इस बार पूर्णिया की लड़ाई दिलचस्प होने वाली है।

शरद की कोशिश लाज बचाने की: जदयू के दोबारा भाजपा के साथ आ जाने के बाद से शरद यादव के लिए तो जैसे दुर्दिन शुरू हो गए थे। बाद में नीतीश कुमार पार्टी अध्यक्ष बन गए। अंतत: शरद यादव ने अपनी नई पार्टी (लोजद) का गठन कर लिया। वे हर मंच से बिहार में राजद और जदयू के अलगाव को जनमत की अवहेलना करार देते रहे। विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी और पूर्व सांसद अर्जुन राय आदि शरद के सिपहसालार रहे। बहरहाल शरद यादव को महागठबंधन में मध्यस्थ की भूमिका मिल गई है।

मांझी के साथ उपेंद्र कुशवाहा आदि से वे राजद का समन्वय बना रहे। मधेपुरा से उनकी दावेदारी पक्की मानी जा रही है। लालू प्रसाद की इच्छा है कि वे राजद के टिकट पर मैदान में उतरें। शरद यादव को बाद में नेतृत्व की भूमिका चाहिए। अगर राजद चुनाव बाद संसदीय दल का नेता बनाने की गारंटी दे तो वे विचार कर सकते हैं। राजनीतिक गलियारे के सूत्र यही बताते हैं।

कुशवाहा कहीं जा नहीं सकते: केंद्रीय मंत्री पद से इस्तीफा देकर महागठबंधन में शामिल हुए उपेंद्र कुशवाहा अकेले बूते चुनाव लडऩे की हैसियत में नहीं। राजग के दरवाजे उनके लिए बंद हो चुके हैं, लिहाजा महागठबंधन में रहने की मजबूरी है। उनकी पार्टी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी यानी रालोसपा का स्ट्राइक रेट पिछले चुनाव में सौ फीसद रहा था। तीन सीटों पर उम्मीदवार उतारे और तीनों ने बाजी मार ली। इस बार पार्टी के आइटी सेल ने पांच सीटों पर तैयारी शुरू कर दी है। मुश्किल यह कि उस लायक उम्मीदवार भी नहीं। अभी लेन-देन के आरोप लगाने वाले सियासी दुश्मन भी पीछे पड़े हुए हैं। महागठबंधन में बनते-बिगड़ते समीकरण के मद्देनजर रालोसपा के लिए तीन सीटों से अधिक की गुंजाइश भी नहीं बन रही। कुशवाहा इतने से भी संतोष कर लेंगे।

उम्मीदवारी में भी मुकाबला होगा बराबरी का: अब जरा हिसाब जोडि़ए कि किस तरह बराबरी का मुकाबला होने जा रहा है। कुशवाहा को तीन सीटें। मांझी और सहनी को दो-दो सीट। कुल सात सीटें हुई। इसमें शरद यादव और एक उनके पसंदीदा उम्मीदवार को जोड़ दीजिए तो नौ सीटें बनती हैं। कांग्रेस को 14 चाहिए। इसके बाद बचीं 17 सीटें। इस तरह महागठबंधन में राजद की हैसियत फिर भी बड़े भाई की बनी रहेगी। राजग में भाजपा और जदयू के हिस्से में भी 17-17 सीटें आ रही हैं। अगर शरद यादव का खेमा लालटेन थामने को राजी हो जाता है तो कांग्रेस के लिए एक-दो सीट छोडऩे पर भी राजद की हैसियत में कमी नहीं आने वाली। दिल्ली में बुधवार को हुई बातचीत का यही लब-ओ-लुआब है।