एक विधा के रूप में ‘अनुवाद’ और एक कृति के रूप में ‘गीतांजलि’ का परस्पर संबंध है। गौरतलब है कि मूल बांग्ला में लिखित ‘गीतांजलि’ में एक सौ सत्तावन गीत थे, जो सितंबर, 1910 में प्रकाशित हुई थी। इसके बाद नवंबर, 1912 में अंगरेजी में अनूदित और एक सौ तीन गीतों का संकलन ‘गीतांजलि: सांग आफरिंग्स’ का प्रकाशन इंडिया सोसाइटी से हुआ था। गीतांजलि के अंगरेजी संस्करण के लिए रवींद्रनाथ ठाकुर ने बांग्ला मूल ‘गीतांजलि’ से केवल तिरपन गीत लिए थे, शेष पचास गीत उनकी दूसरी रचनाओं जैसे ‘कल्पना’, ‘नैवेद्य’, ‘स्मरण’, ‘शिशु’, ‘उत्सर्ग’, ‘खेया’, ‘अचलायतन’, ‘गीतिमाल्य’ और ‘चैताली’ से लिए गए थे। नोबेल पुरस्कार ‘गीतांजलि: सांग आफरिंग्स’ के लिए ही मिला था, ‘गीतांजलि’ के लिए नहीं।
नोबेल का नाम जुड़ने के बाद हिंदी सहित देश-विदेश की विभिन्न भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ और मूल गीतांजलि विश्व-पटल पर बहस से अपेक्षाकृत पीछे छूट गई। हालांकि बाद में कुछ दूसरी भारतीय भाषाओं में गीतांजलि का गद्य और पद्य रूपों में भी अनुवाद हुआ, जिनमें देवनागरी में किया गया लिप्यंतरण भी शामिल है। अब तक गीतांजलि के अकेले हिंदी में पैंतीस से अधिक अनुवाद हो चुके हैं। बहुत से जिज्ञासु लोगों ने सिर्फ गीतांजलि के आस्वाद के लिए बांग्ला सीखी। चूंकि टैगोर ने खुद मूल ‘गीतांजलि’ की शेष एक सौ चार कविताओं का अनुवाद कभी किया ही नहीं, इसलिए हिंदी और विश्व के अन्य कविता-प्रेमी इसके रसास्वादन से वंचित थे। अब इस अभाव की पूर्ति की संभावना दिखती है।
बीते सात अगस्त को रवींद्रनाथ ठाकुर के निधन के पचहत्तरवें वर्ष के अवसर पर उनके जीवन और रचनाओं पर नए सिरे से कुछ संदर्भ जुड़े हैं। इसमें एक संदर्भ बांग्ला गीतांजलि के अंगरेजी अनुवाद को लेकर है। शांतिनिकेतन के रवींद्र भवन के उदय नारायण सिंह द्वारा अनूदित और व्याख्यायित कृति ‘द ओरिजिनल गीतांजलि’ अनावरित हुई। इसका भारतीय संस्करण अभी अगस्त में ‘ई-लेखन’ ने किया, हालांकि मूल का प्रकाशन यूरोप में एंडोरा से 2015 में एनिमा विवा मल्टीलिंग्वा द्वारा किया गया था। इसमें कुल एक सौ सत्तावन बांग्ला गीतों के पद्यानुवाद के साथ विस्तृत रूप से व्याख्याएं भी दी गर्इं हैं। चूंकि अनुवादक खुद एक कवि हैं और रवींद्र-विशेषज्ञ हैं, इसलिए अनुवाद में लयात्मकता और कृति में कविता का स्वाभाविक प्रवाह निखर कर सामने आया है। जिसमें प्रेम, प्रकृति और संवेदना को उसके मुखरित स्वर के साथ देखा जा सकता है।
‘गीतांजलि: सांग्स आफरिंग’ पर पश्चिम में कुछ टिप्पणियां इसके प्रवाह को लेकर भी हुई हैं। इसके फे्रंच अनुवाद की भूमिका में नोबेल प्राप्त आंद्रे जीद लिखते हैं कि ‘‘टैगोर ‘गीतांजलि: सांग्स आफरिंग’ के पतलेपन को दूर करने के लिए दूसरी रचनाओं से कविताओं के चयन में जल्दी में दिखते हैं या शायद प्रकाशक के इस दबाव में रहे हों कि इस संग्रह को बड़ा करना है। लेकिन इन सबके परिणाम स्वरूप वे इसे तितर-बितर ही छोड़ देते हैं।’’
गौरतलब है कि खुद अनुवाद में भी अर्थ के स्थानांतरण की समस्या हमेशा से रही है। इसे खुद रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपनी भतीजी इंदिरा देवी को लिखे पत्र में स्वीकार किया है कि गीतांजलि की पश्चिम में ऐसी स्वीकार्यता की उम्मीद उन्हें नहीं थी। यहां यह भी जोड़ा जाना चाहिए कि कवि ने यह अनुवाद अनमने ढंग से विभिन्न यात्राओं या बीमारी के दौरान किया था और जाहिर है कि इसका स्रोत भी एक न होकर अनेक दूसरी रचनाएं थीं। इन सबके बावजूद ‘गीतांजलि: सांग्स आफरिंग’ के नोबेल पुरस्कार के निर्णायक और खुद इस पुरस्कार के विजेता रहे वेर्नर वॉन हाइडेंस्टम ने लिखा था कि वे पिछले बीस से अधिक वर्षों में टैगोर की रचना के स्तर का कोई गीति-काव्य नहीं देखा है।
‘द डेली मेल’ ने एक लेख में इसकी भूमिका लिखने वाले प्रसिद्ध अंगरेजी कवि डबल्यूबी एट्स को उद्धृत करते हुए लिखा था कि ‘मैं अपने जीवन में ऐसे किसी को नहीं जानता, जिसने अंगरेजी भाषा में टैगोर की रचना के बराबर कुछ भी किया हो।’ गौरतलब है कि यह सब कुछ उस कृति के बारे में कहा गया है, जो ‘गीतांजलि’ की बनिस्बत एक तरह की द्वितीयक उत्पाद ही थी, जिसमें चयन से लेकर अनुवाद की स्थिति में आने वाले स्वाभाविक अवरोधों का होना स्वाभाविक है। साथ ही औपनिवेशिक समय में भारतीयों के अंगरेजी ज्ञान और उसकी स्वीकार्यता की मानसिकता की सीमा भी। इन सब सीमाओं से परे टैगोर की गीतांजलि से जुड़ी मूल थाती बांग्ला में लिखित थी, जो व्यापक प्रसिद्धि से परे ही रही है।
अमर्त्य सेन ‘टैगोर ऐंड हिज इंडिया’ में कहते हैं कि ‘कोई भी जो टैगोर की बांग्ला रचनाओं से परिचित होगा, वह उनके किसी भी अनुवाद से संतुष्ट नहीं हो सकता, चाहे यह एट्स के साथ मिल कर ही किया गया क्यों न हो।’ ऐसे में यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि अपने कलेवर में एक रचना के तौर पर ‘गीतांजलि: सांग्स आफरिंग’ से बेहतर मूल ‘गीतांजलि’ ही होगी। यह प्रकारांतर से एक बहुस्वीकृत तथ्य है कि टैगोर की दूसरी कई रचनाएं पुरस्कृत गीतांजलि से बेहतर हैं। हालांकि लेखक को किसी पुरस्कार से परे उसकी जनस्वीकृति से मूल्यांकित किया जाना चाहिए और टैगोर को इस मामले में किसी को शिकायत नहीं होनी चाहिए। बंगाल की संस्कृति, कला और विचार उनके लेखन की मूल चिंता रही है। एक दूरदर्शी शिल्पी, सर्वाग्रही विचारक आदि रूपों में वे व्यक्ति नहीं, बल्कि एक मुकम्मल संस्थान थे। यह किसी व्यक्तित्व की विराटता का ही परिचायक है कि उसके पाठ के कई अंतर्पाठ संभव हों।
अनुवाद सिर्फ दो भाषाओं, संस्कृतियों और जीवन-वृत्तियों का मिलन-स्थल नहीं, बल्कि आत्म का विस्तार भी होता है। अभिव्यक्ति का ऐसा आयाम, जो पारिभाषिक और अंतर-सांस्कृतिक पटल तक पहुंचे। यह भी सच है कि अनुवाद के सामयिक और सत्ताई संदर्भ भी होते हैं, जो कई बार सायास होते हैं, जो कुटिल मंशाओं को तृप्त करते रहे हैं। बहरहाल, बहुभाषिक विश्व और सपाट होते भूगोल में अनुवाद की भूमिका महज एक कामचलाऊ पुल की होती जा रही है। वैसे भी आज मीडिया से लेकर प्रशासन के कार्यों में अनुवाद को महज एक तात्कालिक उपक्रम बना दिया है, जो एक विधा के रूप में अनुवाद के साथ न्याय नहीं होगा। इसके साथ अनुवाद की भी अपनी निजी प्रतिबद्धता होती है, जिसे समय और काल के संदर्भों में आसानी से अलगाया नहीं जा सकता।
‘लेखक की मृत्यु’ की पश्चिम की घोषणाओं के बावजूद बहुत आसान नहीं होता है कि स्रोत और लक्ष्य भाषाओं के मध्य से अनुवादक को बाहर निकाल दिया जाए। यही कारण है कि आज अनुवाद के मूल्यांकन की नवीन दृष्टियां सामने आई हैं, जिनमें आज की प्रभावी अस्मिताएं भी हैं। ध्यान रहे कि अनुवाद ने भारत को इसके औपनिवेशिक काल में भी खूब छला था और आज भी सरकारी मशीनरी इसे महज अपनी सुविधा की दृष्टि से देखती और संरक्षित करती है। बहुभाषिक देश में सभी स्थानीय भाषाओं को भी महत्त्व दिए जाने की आवश्यकता है। जहां तक गीतांजलि के अनुवाद का सवाल है, इसे स्पष्ट रूप से स्वीकार किया जाना चाहिए कि तत्कालीन अंगरेजी अनुवाद और संकलन के माध्यम से एक कृति के रूप में इसके साथ न्याय नहीं हुआ था, ऐसे में जब उदय नारायण सिंह द्वारा अनुदित कृति ‘द ओरिजिनल गीतांजलि’ लगभग सौ सालों बाद आई, तो उम्मीद है कि पश्चिम जगत गीतांजलि और टैगोर को नए सिरे से देखेगा। इसी क्रम में अब फ्रांसीसी, स्पेनिश और चीनी में भी ‘द ओरिजिनल गीतांजलि’ का अनुवाद किया जा रहा है।