भारतीयता के बीच जो स्त्री-छवि है, वह विश्व के अन्य समुदायों के बीच स्थित स्त्री-छवि से कई स्तरों पर जुदा दीखती है (हालांकि, कई समानताएं भी हैं। भारत की ‘स्त्री’ के बारे में जो स्वप्न समाज के हैं, वे एकदम महानता के आवरण में लिपटे हुए से हैं- पतिव्रता नारी, त्यागमयी, माता वगैरह। लेकिन आज की तारीख में उस महिमामंडित स्वरूप को जींस और खुले-खुले कपड़े पहनकर और नौकरी करके स्त्रियों ने काफी कुछ बदल डाला है। लेकिन स्त्री का मन अभी भी ज्यादा नहीं बदला है। उसके मन में स्नेहमयी माता, कुशल बहू आदि बने रहने के स्वप्न व्यावहारिक धरातल पर मौजूद हैं। बाहरी दबावों के तहत पिछले पचास साल के बीच, वक्त ने पूरे परिवेश पर बहुत सारे घुमावों के साथ कई एक नए स्वरूपों को स्थापित कर डाला है- मोबाइल, कंप्यूटर, स्कूटी-मोटरसाइकिल की कतार और फ्लैटों के रहन-सहन के बीच पचास वर्ष पहले के बिंब लुप्तप्राय से हो गए हैं।
अपने स्त्रीगत देशी स्वभाव के अंतर्गत वह हमेशा सबों की सहमति से कदम बढ़ाना चाहती है। भारतीय स्त्री कितनी भी बुद्धिमान क्यों न हो, उसके पूरे जीवन में ऐसा वक्त कम ही आता है जब वह एकदम से अपने लिए (बेटे-बेटियों के लिए भी) कोई भी निर्णय ले ले और परिवार को अवगत करा दे, इस विश्वास के साथ कि सभी लोग स्वाभाविक रूप से उस निर्णय को मान लेंगे। व्यावहारिक धरातल पर ऐसा नहीं पाया जाता है। हर स्तर पर स्त्री से उम्मीद की जाती है कि वह सभी निर्णयों के लिए पुरुष वर्ग का मुंह जोहे, कभी भयमिश्रित सम्मान से, कभी प्यार से, तो कभी स्नेह से। अनेक बार हम इसके प्रमाण आसपास देखते हैं और हमें यह स्वाभाविक सा लगता है। देखा जाता है सेवानिवृत्त स्त्रियां, जो अपना पैसा बेटे-बेटियों से पूछ-पूछकर खर्च करतीं हैं, उनकी कमाऊ संतान अपनी कमाई का ब्योरा मां को देना जरूरी नहीं समझती- यह दयनीय विसंगति हमारे समाज में बड़ी ही सहजतापूर्वक मौजूद है।
इस तरह के व्यवहार उपार्जन, धन वगैरह से संबंधित नहीं हैं, बल्कि यह भारतीय समाज की अदा है-असम्मान और असमानता की अदा। अब आगे बढ़ते हुए दूसरे पक्ष पर नजर डालते हैं तो हम पाते हैं कि एक से एक आधुनिक कहलाने वाली लड़कियां हैं जिसमें से कई तो उपार्जन भी करती हैं, लेकिन बारीकी से पड़ताल करने पर दीख पड़ता है कि उनके आवास-निवास और कई तरह के खर्चों का जिम्मा पिता, पति (या कई बार प्रेमी) के जिम्मे रहता है। कड़वी सच्चाई है कि महीने भर में, वर्ष भर में जो खर्च वे अपने ऊपर करतीं हैं, उतना कमा सकने की कुव्वत उनके पास नहीं है। कारण जो भी हो, लेकिन स्त्री से जुड़े मुद्दों के बीच यह बहुत जरूरी बिंदु हैं। जिस पर सभी भारतीय स्त्रियों को गहराई से विचार करना चाहिए और अपनी वास्तविक स्थिति को परखते हुए यह विचारना चाहिए कि वास्तव में उन्हें चाहिए क्या। समाज से, परिवार से, सरकार से और स्वयं से भी। स्त्रियों की अपेक्षाएं क्या हैं, इसे अवश्य रेखांकित कर लेना चाहिए। वास्तव में स्त्रियों से संदर्भित ये जो अपेक्षाएं हैं, वे समुचित उपार्जन, सामाजिक सुरक्षा और स्वनिर्भरता से जुड़ी हुई हैं और जब सिलसिलेवार ढंग से पूरी गंभीरतापूर्वक इन पहलुओं पर हम विचार करने बैठते हैं, तो पाते हैं कि ये ही वे केंद्रक हैं, जिनमें घुन लगा हुआ है।
इस तथ्य के रूबरू जब हम विदेश पढ़ने गर्इं भारतीय लड़कियों की जीवनशैली पर नजर डालते हैं तो साफ नजर आता है कि उनमें से कई ऐसी हैं जो वहां नौकरी करके अपना खर्च उठाती हैं। जितना कमाती हैं, उतने में ही हाथ रोककर गुजारा चलातीं हैं, सुरक्षित सामाजिक स्पेस के बीच जीवन बिताती हैं।
स्त्रियों के स्वतंत्र स्वरूप में व्यवधान डालने वाला यह आर्थिक पहलू, सामाजिक संरचना और प्रचलित प्रशासनिक आचारों से प्रत्यक्ष जुड़ा हुआ है और परोक्ष रूप से मनोवैज्ञानिक व्यवहारों से भी जुड़ा है।
मान लें कि आज की तारीख में कई मध्य आयवर्ग की लड़कियां ठान लेती हैं कि वे जितना उपार्जन करती हैं, उसी में गुजारा कर लेंगी, तो उनकी पहली जरूरत होगी एक कमरे के आवास की, जो सुरक्षित भी हो। लेकिन इस भारतभूमि के किसी भी शहर-कस्बे में क्या ऐसी व्यवस्था है जहां एक आत्मनिर्भर लड़की पूरी खुद्दारी से सुरक्षित रहकर स्वयं के व्यक्ति होने को सराह सके? नहीं ! ऐसी जगह दीखती नहीं है, सरकार ने ऐसी जगहों के बनने मे कभी कोई रुचि नहीं दिखाई है, न ही स्त्री मुद्दों से जुड़ी संस्थाओं ने कभी इस पर ध्यान दिया है और पुलिस कार्यों के बीच स्त्री सुरक्षा तो कोई खास मुद्दा है ही नहीं।

तो ऐसे में कैसी आत्मनिर्भरता और कैसी खुद्दारी? वास्तव में भारत में स्त्रियां ऐसे कठिन घेरों के बीच अनचाहे बंद हैं, जो घृणित कहे जाने की हद तक तकलीफदेह हैं और आश्चर्य कि स्त्रियां स्वयं भी इन मुद्दों के बारे में सिलसिलेवार ढंग से नहीं सोचतीं हैं और सही ढंग से मुश्किलों को रेखांकित नहीं कर पाती हैं, ऐसे में स्वाभाविक है कि स्त्री पक्ष के लिए लड़ी जाने वाली ज्यादातर लड़ाइयां हवा में तलवारबाजी ही बनकर रह जाया करती हंै।
स्त्री स्वातंत्र्य का मतलब आधी-अधूरी आत्मनिर्भरता नहीं है, सर्वप्रथम यह बात समस्त स्त्री समुदाय को अच्छी तरह से समझ लेनी होगी और दूसरों को भी समझाना होगा। विश्व भर में महिलाओं द्वारा की गई हड़तालों और संघर्षों को ध्यान में रखकर सोचें तो हम पाते हैं कि स्वरक्षा-निपुणता और आर्थिक-निर्भरता की छवि में स्वयं को पूर्ण प्रतिष्ठित करने के वास्ते अभी भारतीय स्त्रियों को हजारों कदम आगे बढ़ना बाकी है। ऐसे में स्त्री व्यक्तिवादी रहन-सहन और संचरण को सहजतापूर्वक स्वीकारने की दृष्टि भी समाज को अपने अंदर हर स्तर पर जाग्रत करनी होगी। ०