पंचायती चुनाव लड़ने के अधिकार सीमित करने का ट्रेंड बन चुका है। हरियाणा में अब वे ही कैंडिडेट चुनाव लड़ सकेंगे जिनके पास कुछ न्यूनतम अर्हता के अलावा घर में टॉयलेट होगा। 2014 में राजस्थान ने भी ऐसी ही बंदिश लगाई और सुप्रीम कोर्ट ने उस पर स्टे देने से इनकार कर दिया। इस महीने की शुरुआत में एक दो सदस्यीय बेंच ने हरियाणा के उस कानून को वैध ठहराया, जिसकी वजह से अनुसूचित जाति की महिलाओं को पांचवें दर्जे की शिक्षा न होने की वजह से चुनाव लड़ने से अलग कर दिया गया। कुछ ऐसा ही कुछ अन्य प्रत्याशियों के साथ भी हुआ, जो अब तक घरों में टॉयलेट नहीं बनवा सके थे। कोर्ट ने माना कि टॉयलेट इस वक्त की जरूरत है और ऐसा पूरे भारत में होना चाहिए।
भारतीय नागरिकों के पास मूलभूत, संवैधानिक और वैधानिक अधिकार हैं। वैधानिक अधिकार सीमित होते हैं और इन्हें किसी कानूनी संशोधन से खत्म किया जा सकता है। मूलभूत अधिकारों पर वाजिब नियंत्रण लगाया जा सकता है, लेकिन वाजिब क्या है, वो संसद या सुप्रीम कोर्ट फैसला करती है। संवैधानिक अधिकार न तो मूलभूत होते हैं और न ही वैधानिक, इसलिए इन्हें संवैधानिक संशोधन के जरिए ही बदला जा सकता है।
यह सच है कि पंचायती चुनाव लड़ना राज्य विधायिका की ओर से बनाए कानून के अंतर्गत आता है और आर्टिकल 101 और 191 के प्रावधान के तहत कुछ खास ग्राउंड हैं, जिनके आधार पर संसद या राज्य विधानसभा के लिए अयोग्य करार दिया जा सकता है। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि राज्य पंचायत चुनाव लड़ने की इच्छा रखने वालों से इसका अधिकार छीन ले क्योंकि सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यों वाली दो बेंच दो बार यह फैसला दे चुकी है। क्या सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को इस मामले में एक बड़ी बेंच नहीं बना देनी चाहिए थी? यह कहना कि न तो वकीलों न और न ही जजों ने इसकी मांग की, समुचित प्रतिक्रिया नहीं है। अगर क्यूरेटिव पिटीशन दाखिल की जाती तो बड़ी बेंच बनाना ही पड़ता? आखिर क्यों न्याय चरणबद्ध तरीके से मिले और सही नतीजे पाने के लिए इंतजार करते रहा जाए।
कहा जा सकता है कि शायद कोर्ट ने आर्टिकल 326 से मिलने वाले संवैधानिक अधिकार का गलत मतलब निकाला हो। आर्टिकल 326 जो वोट देने और चुनाव लड़ने, दोनों का हक देता है। संवैधानिक अधिकारों को वैधानिक अधिकारों के समकक्ष नहीं रखा जा सकता। मुश्किल यह है कि कोर्ट चुनाव लड़ने को वैधानिक हक के तौर पर देखता है, जबकि वोट देने को संवैधानिक हक के तौर पर। ऐसा क्यों है? ऐसा क्या है जो विधानसभा या कोर्ट को यह घोषित करने से रोकता है कि दोनों अधिकार ऐसे जैसे हैं? यह विचार डराने वाला है कि लोगों के मताधिकार को विधानसभा या संसद किसी हद तक तक बदलाव कर ले और सुप्रीम कोर्ट उसके सुर से सुर मिलाए।
यह सच है कि संविधानिक अधिकारों की भी मूलभूत अधिकारों की तरह ही वाजिब सीमाएं तय होनी चाहिए। लेकिन इससे जुड़े कानूनों को वाजिब होना चाहिए न कि मनमाना या वाजिब होने के पुराने वर्गीकरण पर आधारित। टॉयलेट की अनिवार्यता को वाजिब यह कहकर बताया कि यह ग्रामीण भारत में खुले में शौच करने के अस्वास्थ्यकर तरीके को खत्म करने की दिशा में लाभकारी कदम है। कोर्ट ने यह भी कहा कि गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले साढ़े आठ लाख घरों में से करीब 7.2 लाख राज्य सरकारों की मदद से टॉयलेट बनवा लिया है। आंकड़ों की प्रामाणिकता को छोड़ भी दें तो यह कहना गलत नहीं होगा कि विधायिका की ओर से हतोत्साहित करने के बावजूद बहुत बड़ा बदलाव हुआ है। ऐसे में अब सिर्फ 1.3 लाख घरों को चुनाव लड़ने से क्यों दूर करना। कोर्ट ने फैसला सुनाते वक्त कहा, ”जो लोग उन निकायों का चुनाव लड़ना और शासन करना चाहते हैं, उन्हें दूसरों के लिए उदाहरण पेश करना चाहिए।” लेकिन हमें यह नहीं पता कि फैसले से प्रभावित लोगों को टॉयलेट बनवाने के लिए सरकार से आर्थिक मदद हासिल करने में क्या परेशानियां हैं। हम यह भी नहीं जानते कि उन्होंने जानबूझकर टॉयलेट नहीं बनवाए होंगे। हम यह भी नहीं जानते कि इस तरह के दंडकारी रवैया अपनाने से उस छोटे आबादी पर पड़ने वाला प्रभाव मददगार साबित होगा कि नहीं।
कोर्ट की ही मानें तो उसके फैसले की वजह से 68 प्रतिशत अनुसूचित जाति की महिलाएं अब पंचायत चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य हो जाएंगी। लोतांत्रिक प्रक्रिया लोगों की संख्या की ताकत पर निर्भर करती है। फैसला देने वाले जज का मानना है कि शिक्षा जरूरी है क्योंकि शिक्षा ही किसी व्यक्ति को सही या गलत में फर्क करना सिखाता है। यह किसी हद तक सही हो सकता है लेकिन क्या समुचित शिक्षा ही हमें पूरी तरह से सही या गलत में फर्क करना बताता है? लोकतंत्र का मूल तत्व अब दांव पर है। कोर्ट को अब और ज्यादा डिमांडिंग होना होगा। उन्हें लोगों पर बंदिशें लगाकर उन्हें देश के राजनीतिक सिस्टम का हिस्सा बनने से रोकने के बजाए राज्य के इस तरह के फैसलों का औचित्य बेहतर ढंग से पूछना होगा।
(लेखक यूनिवर्सिटी ऑफ वारविक में कानून के प्रोफेसर हैं। वे साउथ गुजरात और दिल्ली की यूनिवर्सिटीज के वाइस चांसलर भी रह चुके हैं। यहां लिखे विचार उनके निजी हैं।)