देवयानी भारद्वाज
कुछ साल पहले शिक्षक प्रशिक्षण के लिए पुस्तकों पर चर्चा के दौरान सत्र की शुरुआत एक ऐसे प्रश्न से करने की बात आई जो सभी प्रतिभागियों को उद्वेलित करे और दिए गए विचार के पक्ष या विपक्ष में मजबूती से अपने तर्क रखने के लिए प्रेरित करे। इसी मकसद से यह प्रश्न रखा गया कि क्या दुनिया की सारी पाठ्य पुस्तकों को महासागर में फेंक देना चाहिए! आप इस विचार से सहमत हैं या असहमत? और क्यों? लगभग तीस सदस्यों के समूह में इसके पक्ष-विपक्ष पर आधा घंटा बहस के बाद भी दो पक्ष आपस में सहमत होने को तैयार नहीं थे।
जो इस बात से सहमत थे, उनका मानना था कि अगर शिक्षक काबिल हैं, अपने विषय को ठीक से समझते हैं, विद्यार्थियों के सीखने के स्तर और शिक्षण विधियों की समझ उन्हें है तो पाठ्य पुस्तकों की आवश्यकता नहीं है। इसके बजाय स्कूलों में एक समृद्ध पुस्तकालय होना चाहिए, हर कक्षा में पढ़ने का कोना होना चाहिए, जिसमें बहुत सारी किताबें और अन्य सामग्री उपलब्ध हो।
बच्चों को आपस में और शिक्षक के साथ बातचीत करने के अवसर हों तो निश्चय ही पाठ्य पुस्तकों को प्रशांत महासागर में फेंक देना चाहिए! वहीं दूसरे पक्ष का कहना था कि ऐसे शिक्षक मिलेंगे कहां, जिन्हें अपने विषय, विद्यार्थियों, उनकी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि, परिवेश, सीखने के स्तर और शिक्षण विधियों की ठीक-ठीक समझ हो!
इसके अलावा, उनका सरोकार शिक्षक के व्यक्तिगत आग्रहों और रुझानों को भी लेकर था। उनका यह मानना था कि पाठ्य-पुस्तकें कक्षा प्रक्रिया को वस्तुनिष्ठ बनाए रखने में सहायता करती हैं। अगर इसे शिक्षकों पर छोड़ दिया जाए कि कक्षा में क्या पढ़ाया जाना है तो उनके सामाजिक-राजनीतिक आग्रहों को जांचने का कोई वस्तुनिष्ठ पैमाना बच्चों के पास नहीं रह जाएगा।
इस चर्चा के नतीजे के तौर पर ध्यान इस बात की ओर दिलाया गया कि जो वक्तव्य से सहमत थे, उनकी बात ‘अगर’ से शुरू होती है। यानी जिस तरह के शिक्षक उम्मीद वे करते हैं, सभी शिक्षक जब तक उन पैमानों पर तैयार नहीं हो जाते, तब तक पाठ्य पुस्तकों को हम फेंक नहीं सकते। दूसरे, अगर शिक्षक अकादमिक रूप से तैयार हो भी जाएं तो क्या अपने व्यक्तिगत आग्रहों से वे पूरी तरह मुक्त हो सकते हैं?
यहीं सोचने का विषय है कि क्या वस्तुनिष्ठता का यह सवाल सिर्फ शिक्षकों तक सीमित है! खासतौर पर एक ऐसे समाज में जहां राजनीतिक सत्ता के बदलाव के साथ पाठ्य-पुस्तकों में बदलाव किए जाते हों। इन दिनों पाठ्य-पुस्तकें फिर चर्चा में हैं। ऐसा बताया जा रहा है कि कुछ स्कूली किताबों से कुछ खास अध्याय निकाल दिए जाएंगे। नागरिक शास्त्र की पाठ्य पुस्तकें शीत युद्ध और अमेरिका के वर्चस्व की बात नहीं करेंगी, तो किसी कक्षा के बच्चे लोकतंत्र और विविधता के बारे में नहीं पढ़ेंगे!
किसी कवि की कविताएं बाहर हो जाएंगी तो किसी प्रचारित उपन्यासकार को जगह मिलेगी! यह कौन तय कर रहा है कि पाठ्यपुस्तकों में क्या शामिल हो और क्या निकाल दिया जाए? किताबों से पाठों के हटाने से क्या इतिहास बदल जाएगा? मगर इसके अन्य पहलू भी हैं। क्या यह सवाल सिर्फ राजनीतिक सत्ताधीशों से किया जाना चाहिए? एक समाज के रूप में हम जहां खड़े हैं, वहां कैसे आ गए?
अगर हमने इस देश और समाज में पढ़ने की संस्कृति का विकास किया होता तो भी क्या हमारे बच्चे क्या पढ़ें, इस पर राजनीतिक सत्ता का इस कदर नियंत्रण रह सकता था? हमने हर बच्चे के हाथ में मोबाइल फोन तो थमा दिया, जिसमें वाट्सऐप और यूट्यूब से घृणा और अश्लीलता भरी कोई भी सामग्री उन तक पहुंच सकती है, लेकिन हर गली में ऐसे पुस्तकालय नहीं बना सके, जिसमें बच्चे मिल कर किताबें पढ़ते और उन पर चर्चा करते।
स्कूल को हमने ज्ञान के निर्माण की जगह के बनाने की बजाय बच्चों के मस्तिष्क को नियंत्रित करने के ठिकानों के रूप में विकसित किया है, जहां बच्चे अपने माता-पिता की अधूरी महत्त्वाकांक्षाओं का बोझ ढोते हुए हांफने लगते हैं। हमने न उन्हें अपने विवेक पर भरोसा करना सिखाया और उनके सपनों को पंख दिए।
समाज के अधिसंख्य हिस्से को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसी किताब से कौन-से पाठ गायब हैं। उनकी चिंता यह रहती है कि बच्चे किसी तरह इंजीनियरिंग या मेडिकल की परीक्षा निकाल लें। फिर चाहे वे कोटा के किसी कोचिंग सेंटर में आत्महत्या ही क्यों न कर लें! हमें इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि किसी कालेज में लड़कियों से बदतमीजी करने वाले लड़के खुले घूमते रहते हैं और प्रशासन से जवाब मांगने वाले विद्यार्थियों को पुलिस मारपीट कर थाने पर बिठा लेती है!
लड़कियों को गिरफ्तार करने में पुलिस शोहदों के मुकाबले किस तरह की भूमिका अदा करती है, यह सब जानते हैं। हम इतने ‘इम्यून’ या पूरी तरह सुरक्षित कवच में घिरे हैं कि हमें कोई फर्क नहीं पड़ता। हम सोशल मीडिया पर फैज की नज्म पढ़ते हैं और हमारे ही घरों में बच्चे मुक्केबाज या वीडियो गेम या सीरीज के प्रशंसक हुए जाते हैं।