दो दशक पहले तक आम भारतीय विमर्श में बाजार एक नकारात्मक शब्द था। दो साल पहले बहुमत से आई राजग सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी सत्ता के शब्दकोश में टीम इंडिया जैसे शब्द लेकर आए और खुद को भारत के बाजार का ब्रांड अंबेसडर घोषित किया। पिछले दो सालों में मोदी दुनिया के बाजार में घूमकर भारत की ब्रांडिंग कर रहे हैं।  लेकिन बाजार का एक कड़वा सच यह है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है और बड़ा पैसा, छोटे पैसे को खींच लेता है। डर यही है कि वैश्विक बाजार में खरीदारी के दौरान कहीं हम अपने हित न बेच डालें। मोदी के हालिया विदेशी दौरों में भारत का नफा-नुकसान तलाशने की कोशिश करता बेबाक बोल।

अमेरिकी संसद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तालियों की गड़गड़ाहट पश्चिमी और भारतीय मीडिया में खूब गूंजी। इन तालियों की अनुगूंज पाकिस्तान तक भी पहुंची। इसके बाद पाक मीडिया ने नवाज शरीफ पर हल्ला बोल दिया और अवाम ने सोशल मीडिया पर एक अदद विदेश मंत्री की मांग कर दी। तो मीडिया के ‘पॉपुलिस्ट’ नजरिए से देखें तो यह दौरा दम रखता है। क्योंकि मोदी की सफलता की सुई नवाज शरीफ की निष्क्रियता पर जाकर अटक गई।
तो, वाशिंगटन से सीधे प्रसारण में मोदी छा गए। इसके साथ ही परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में भारत की सदस्यता का रास्ता साफ होता दिख पाकिस्तान और चीन की भौंहें तन गर्इं। यह तो साफ है कि देश में मोदी से चाहे कई लोग या दल नाराज हों, पर विदेश में उनकी लोकप्रियता बरकरार है। यह भी तय है कि सुषमा स्वराज केंद्रीय विदेश मंत्री बस नाम की ही हैं और विदेश मंत्री का उनका काम असल में प्रधानमंत्री खुद ही अतिरिक्त रूप से संभाले हुए हैं। मोदी के भाषण के लहजे, उच्चारण और तथ्यों को देखें तो शायद ही यह उनके श्रेष्ठ भाषणों की श्रेणी में आ सके। लेकिन जहां तक तालियां, उत्साह, जोश और खड़े होकर अभिवादन के नजरिए से देखा जाएगा तो फिर हमें पूरे नंबर देने पड़ेंगे।
भाषण के बाद अमेरिकी सांसदों की उनके हस्ताक्षर लेने की जद्दोजहद भी कमाल थी। जाहिर तौर पर यह लम्हा देशवासी के लिए गर्व का विषय हो रहा था, क्योंकि मोदी अमेरिकी संसद में किसी एक व्यक्ति या किसी दल की नुमाइंदगी न करके पूरे देश के प्रतीक थे।

मोदी के इस दौरे को अगर अमेरिकी राष्टÑपति बराक ओबामा या अमेरिका से दोस्ताना बढ़ाने के इतर देखा जाए तो यह उपलब्धिपरक रहा। मोदी इस दौरे के दौरान देश के लिए मिसाइल टेक्नोलाजी कंट्रोल रिजीम की सदस्यता हासिल करने में कामयाब रहे। इसकी सदस्यता मिलते ही भारत दुनिया के उन 35 देशों में शुमार हो जाएगा जो मिसाइलों के कारोबार और उसके नियंत्रण के लिए लामबंद हैं। यह सदस्यता भारत के परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) का सदस्य बनने का रास्ता भी साफ कर देगी। अमेरिका ने तो भारत की एनएसजी की सदस्यता को पहले ही हामी दे दी थी और मोदी मेक्सिको का समर्थन भी जुटा लाए। यह सच है कि चीन के भारत के समर्थन में आने तक यह सदस्यता शायद संभव नहीं। लेकिन यह भी सच है कि इस तरह से चीन पर दबाव तो बढ़ ही रहा है।

हालांकि जानकारों का यह भी मानना है कि पाकिस्तान जिस तरह से आतंकवाद को प्रश्रय दे रहा है उसके कारण अमेरिका भारत को एशिया में एक बड़ी ताकत के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहता है। और इस दिशा में मोदी चाबहार समझौते का तुरुप का पत्ता चल कर ही अमेरिका रवाना हुए। अफगानिस्तान में अमेरिका का दखल छिपा नहीं और उसमें पाकिस्तान की मदद इस मायने में दरकार रहती है कि अफगानिस्तान तक का रास्ता पाकिस्तान से ही गुजरता है। लेकिन चाबहार बंदरगाह के बाद यह निर्भरता खत्म हो जाएगी। और न सिर्फ अमेरिका वरन भारत को अब बारास्ता पाकिस्तान अफगानिस्तान नहीं पहुंचना पड़ेगा। वहां भारत की सीधी पहुंच हो जाएगी। चाबहार समझौते ने चीन और पाकिस्तान को बड़ा झटका दिया है। भारत के उद्यमी अब सीधे ईरान होकर अफगानिस्तान पहुंच सकते हैं।

तालिबान के आतंक से टूटे पड़े अफगानिस्तान को खड़ा करने में भारत ने हर कदम पर अपना योगदान दिया है। इसमें अफगानिस्तान के विकास के लिए 1700 करोड़ की लागत से एक बांध तैयार करके देना भी है। अफगानिस्तान से भारत की यह नजदीकी भी पाकिस्तान की आंखों में खटक रही है जिसके कारण पड़ोसी देश अक्सर भारत पर हल्ला बोलता ही रहता है। मोदी ने अमेरिकी संसद में पाकिस्तान का नाम लिए बिना पड़ोसी देश को आतंकवाद की पनाहगाह बता वैश्विक मंच पर अपनी आवाज उठाने में परहेज नहीं किया। आखिर पाकिस्तान के आतंकवाद से रिश्ते अमेरिका से भी तो छिपे नहीं हैं। वरना पाकिस्तान को बताए बिना उसकी हद में घुस कर तालिबान प्रमुख उसामा बिन लादेन को मारने की नौबत थोड़े ही आती। और उसी के बाद से पाकिस्तान को समझाने को कोशिश हो रही है कि अच्छा या बुरा आतंकवादी जैसी कोई चीज नहीं होती। अपने हालिया चीन दौरे में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी यही बात मजबूती से रखी थी।

ओबामा के साथ इस समय मोदी का दोस्ताना है। यह दावा एकतरफा नहीं लगता। जिस तरह से अमेरिका भारत के साथ खड़ा दिखाई दे रहा है, उससे यह बराबरी की टक्कर ही दिखाई देती है। लिहाजा इस दोस्ती का सही फायदा उठाने का यही समय था। क्योंकि अमेरिका में जल्द ही सत्ता परिवर्तन होने वाला है और उस हालात में कई समीकरण आगे-पीछे होंगे। यहां तक कि भारत के साथ भी अमेरिका के समीकरण बदल सकते हैं। क्योंकि यह तय है कि एनएसजी के मुद्दे पर जो रुख अमेरिका का है उसके मद्देनजर अमेरिका के पाकिस्तान से संबंध भी बिगड़ सकते हैं। पाकिस्तान जितना कमजोर है उसे देख कर बिगड़े न भी, पर उसमें खटास तो आ ही जाएगी। लेकिन भारत के साथ तो पाकिस्तान के संबंधों की दरार और भी गहरा जाएगी। ऐसे में मोदी का नवाज शरीफ के लिए अचानक बधाई देने लाहौर उतरने की व्यक्तिगत कूटनीति भी शायद ही कोई मदद कर पाए।

यह नहीं भूलना चाहिए कि देशों के आपसी संबंधों को बनने-बिगड़ने में कोई ज्यादा समय नहीं लगता। मोदी की पिछली यात्राओं के दौरान अमेरिकी मीडिया ने गुजरात दंगों जैसे मुद्दे को उठाने से परहेज किया था। लेकिन मोदी की चौथी अमेरिकी यात्रा और ओबामा से सातवीं बार मुलाकात के समय अमेरिकी मीडिया ने यह नरमी नहीं बरती और गुजरात दंगों का जिक्र कर ही दिया। अमेरिकी संसद में तालियों की गड़गड़ाहट के इतर अमेरिकी मीडिया का आलोचनात्मक सुर सतर्क होने की चेतावनी दे रहा है।

इसलिए यह जरूरी है कि इस समय अमेरिका के साथ जो सौहार्दपूर्ण स्थिति है उसका फायदा लिया जाए। एनएसजी की सदस्यता बहुत अहम है। भारत 2008 से इसके लिए प्रयास कर रहा है। उसकी सदस्यता भारत को 48 देशों के उस आभिजात्य समूह में स्थान दिलाएगी जो विश्व भर के परमाणु वाणिज्य के कायदे-कानून को तय करते हैं। साथ ही भारत को परमाणु हथियार बेचने की सहूलियत भी हासिल होगी। चीन को इस मामले में अलग-थलग करने के साथ-साथ भारत को चीन के साथ इस मामले में कूटनीतिक प्रयासों को भी बल देना चाहिए। क्योंकि एनसएजी की सदस्यता के लिए चीन की सहमति तो चाहिए ही।

पाकिस्तान व चीन की तकलीफें एक जैसी हैं। हालांकि पाकिस्तान की आशंकाएं ज्यादा प्रबल हैं। आतंकवाद को जमीन मुहैया कराने वाले पाकिस्तान को यही डर सताता है कि अगर भारत नागरिक परमाणु कार्यक्रम को आगे बढ़ाने में कामयाब होता है तो उसके सैन्य परमाणु कार्यक्रम को भी उतना ही बल मिल सकता है। हालांकि पाकिस्तान का यह डर उसके आतंकवादियों से संबंधों में छिपा हुआ है। पाक को लगता है कि इसके बाद भारत परमाणु दौड़ में पाकिस्तान से कहीं आगे निकल जाएगा। लिहाजा पाकिस्तान ने ऐसी कोई कोशिश छोड़ नहीं रखी जिसके कारण भारत का एनएसजी में प्रवेश रोका जाए।

मोदी का यह दौरा ओबामा और अमेरिकी संसद के साथ ही सीमित रहा। रणनीति के तौर पर भी उन्होंने देश के राष्टÑपति पद के दो दावेदारों डोनाल्ड ट्रंप और हिलेरी क्लिंटन से मुलाकात नहीं की। लेकिन इसके दूरगामी परिणामों को देखते हुए ही शायद उनके दौरे को मौजूदा निजाम तक ही सीमित रखा गया। कूटनीतिक नजरिए से यह एक मजबूत फैसला माना जा रहा है। अब इस सारे मामले को अमेरिका की नजर से देखा जाना भी जरूरी है। अमेरिकी संसद में जो हुआ वह कभी विश्व सुंदरी प्रतियोगिता के मंच पर घटता हुआ दिखाई दे रहा था। ऐसा ही आकर्षण तब अचानक भारत के प्रति जागा था। आलम यह था कि एक साथ मिस यूनिवर्स और मिस वर्ल्ड के ताज भारतीय सुंदरियों के सिर पर सज रहे थे। भारत को लेकर एक दीवानगी दिखाई जा रही थी।

तब दिख रहा था कि विश्व की बड़ी ताकतें इस प्रतियोगिता की आड़ में भारत के उपभोक्ता बाजार पर अपनी नजरें गड़ाए हैं। उसके बाद देश में बहुराष्टÑीय कंपनियों की बाढ़ सी आ गई थी। यूपीए सरकार में मनमोहन सिंह ने अमेरिका के साथ परमाणु करार के लिए अपनी पुरजोर कोशिश कर दी थी। गठबंधन सरकार में बाहर से सहयोगी माकपा की एक न सुनी और सरकार गिरने की परवाह भी नहीं की। अपने स्वभाव के विपरीत मनमोहन सिंह इस मसले को लेकर जिद और गुस्से में दिखे थे। और उस वक्त भी यही आरोप लगे थे कि यह करार ज्यादातर अमेरिका के पक्ष में था।

इस वक्त भी अमेरिका को भारत की सूरत में एक बड़ा बाजार दिख रहा है। इसे संयोग ही कहा जाए कि इसी दौर में भारत ने अमेरिका से छह न्यूक्लियर रिएक्टर खरीदने का सौदा भी पक्का कर लिया है। एक बार भारत के परमाणु कार्यक्रम का विस्तार तय हुआ तो उसके साथ ही अमेरिका का लाभान्वित होना तय है।

एनएसजी की सदस्यता के लिए भारत के साथ पाकिस्तान ने भी आवेदन किया है। लेकिन अमेरिका भारत के साथ है जबकि चीन का कहना है कि अगर भारत, तो पाकिस्तान भी क्यों नहीं? उसका जवाब भी इसी बाजार की तह में ढूंढ़ा जा रहा है। बहरहाल, कारण जो भी हो लेकिन भारत और अमेरिका के संबंधों का यह दौर अहम मुकाम पर है। इस ऐतिहासिक क्षण को उसके अंजाम तक ले जाने के लिए मोदी की निजी कूटनीति ने एक अहम भूमिका निभाई है। लेकिन एक सच यह भी है कि विदेश में फैली इस लोकप्रियता के मायने अपने देश में कब पलट जाएं कोई कह नहीं सकता। आखिर देश के लोगों के सामने तो उनके रोजमर्रा के मसलों के बरक्स ही जवाबदेह होना पड़ेगा और वहां पर मोदी का तिलिस्म अब 2014 सरीखा नहीं रहा।