बिहार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तेजरफ्तार राजनीतिक रथ को रोकने के लिए जो सामूहिक ‘आक्रमण’ हुआ, उसका प्रयोग देश के राजनीतिक इतिहास में नया नहीं है। इस ऐतिहासिक जनादेश के बाद अगर कुछ नया और कसौटी पर हो सकता है तो वह है सत्ता सुख के लिए विकास का लॉलीपॉप दिखा कर हासिल की गई जीत के उपलक्ष्य में मिली खिचड़ी सरकार का स्थायित्व।
बहरहाल, अब हम आगे सब ठीक होने की दुआ करें। लेकिन इस सदिच्छा के लिए अगर देश के पिछले कुछ सालों के राजनीतिक इतिहास पर गौर करें तो निराशा ही हाथ लगेगी। यों भी, एक बेमेल और सुविधा की शादी में तलाक की आशंका हर वक्त बनी रहती है।
नीतीश के शपथग्रहण मंच पर पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा से लेकर प्रफुल्ल महंत तक की हाजिरी ने 1989 की याद ताजा कर दी जब भारतीय राजनीति के इतिहास में पहली दफा एक-दूसरे के धुरविरोधी वाम और दक्षिणपंथ एक साथ आए। तब यह गठजोड़ कांग्रेस के खिलाफ हुआ था और अब भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ। लेकिन इधर-उधर की र्इंट से जोड़ा गया भानुमति का वह कुनबा केवल ग्यारह महीने में ही बिखर गया।
इसके पहले 1977 में आपातकाल के बाद हुए आम चुनावों के दौरान ‘इंदिरा हटाओ’ के नारे से जेपी ने बिहार से संपूर्ण क्रांति का नारा देकर गुजरात तक के युवाओं को आंदोलित कर दिया था, जिसका नतीजा एक चुनावी गठबंधन के रूप में सामने आया। तब तमाम विपक्षी दल जनता पार्टी की छांव तले इकट्ठा हुए थे। इस गठबंधन ने भारतीय राजनीति की दिशा बदलते हुए पहली बार कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया। लेकिन सरोकारों के तमाम दावों के साथ एकजुट हुआ वह गठबंधन अपने-अपने नारों के साथ महज ढाई साल में तितर-बितर हो गया।
इसी तरह, चुनावी नतीजों के बाद हुए गठजोड़ों का भी बुरा हाल रहा है। मायावती ने सपा के साथ जुगाड़ का शासन किया तो कांग्रेस और माकपा के बीच केंद्र की सत्ता पर काबिज होने के लिए कायम हुए बेमेल संबंध को अमेरिका के साथ एटमी डील ने ही तुड़वा दिया था। अभी ज्यादा समय नहीं हुए हैं, जब प्रधानमंत्री मोदी ने देश को सहिष्णु होने की नसीहत दी तो भाजपा की सहयोगी शिवसेना ने उन्हें खरी-खरी सुनाई कि आपका सम्मान और आपकी पहचान तो गुजरात दंगों के कारण है।
हाल ही में महाराष्ट्र में निकाय चुनावों के दौरान देवेंद्र फडणवीस और शिवसेना जनता की गली में बेहद निचले स्तर पर जाकर झगड़ते नजर आए। एक ने दूसरे को बाघ का पंजा याद दिलाया तो दूसरे ने कहा कि हम तो बाघ के जबड़े में हाथ डालने वाले हैं, जाकर यह घुड़की शरद पवार को दिखाओ। एक ने गुलाम अली को फिर से आमंत्रित करने की कोशिश की तो दूसरे ने धमकी दी कि जरा बुला कर देखो, कसूरी जैसा हाल करेंगे! अब वोट मांगते वक्त ‘तलाक-तलाक’ कह कर रुक गए दोनों पक्ष निकाय चुनाव निपटते ही संबंध बचाने के तौर-तरीकों में जुट गए हैं। तो यह है गठबंधन का मजबूर बंधन, जिसकी गांठ हमेशा खुलने को तैयार रहती है।
हां, हम गठबंधन की सरकार के कुशल खेवनहारों को भी नहीं भूल सकते। अटल बिहारी वाजपेयी ने 20 से ज्यादा दलों के संयुक्त परिवार रूपी सरकार को छह साल साथ और संभाले रखा। वहीं जिन मनमोहन सिंह पर राजनीति का ककहरा भी नहीं जानने का आरोप लगा, वे लोकसभा में अपने अल्पमत सदस्यों के बावजूद विरोधाभास से भरे सहयोगी दलों के साथ एक दशक तक बने रहे। बंगाल में भी कांग्रेस को दूर रखने के लिए ज्योति बसु के नेतृत्व में कुछ जगहों पर एक-दूसरे के विरोधी वामपंथी दलों ने तीन दशक से अधिक का सफल गठजोड़ निभाया।
बहरहाल, बिहार के लोगों ने तो महागठबंधन को देश के प्रधानमंत्री के लुभावने वादों, अप्रतिम वाक्पटुता और बेहतरीन आयोजन की क्षमता के ऊपर तरजीह दी। अपने हिंदुत्व के एजंडे को लागू करने की हड़बड़ पार्टी और सरकार को जनता ने सबक सिखाया।
अब मोदी के मुख्य सिपहसालार और सबसे अहम मंत्रिमंडलीय सहयोगी अरुण जेटली चाहे इसे रासायनिक समीकरणों और गणित से परिभाषित करके अपने बचाव का रास्ता तलाशते फिरें, लेकिन सच यही है कि बिहार ने देश में भाजपा के पक्ष में चल रही भगवा बयार की दिशा बदल दी। बल्कि सच यह है कि बिहार की हार को प्रधानमंत्री की अंतरराष्ट्रीय छवि निर्माण के रास्ते में भी अवरोधक की तरह देखा जा रहा है।
गुजरात में बुरी तरह बंटे विपक्ष और सांप्रदायिकता की आग के बीच विकास का नारा देकर लगातार तीन बार सरकार बनाने की उपलब्धि के साथ मोदी देश के प्रधानमंत्री पद के सशक्त दावेदार बने। राष्ट्रीय पटल पर विरासती चेहरों को बार-बार देख उकताए हुए लोगों ने उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर आसीन कर दिया। जाहिर है, एक अति महत्त्वाकांक्षी प्रधानमंत्री से अपेक्षाएं भी उसी स्तर की थीं। लेकिन जब वे पूरी नहीं हुर्इं तो पहले दिल्ली और फिर बिहार। ऐसे में यह आशा वाजिब ही है कि मोदी देश की जनता को अपना जादू दिखाएं। भूख, बेरोजगारी, महंगाई और ऐसी अनगिनत मुश्किलों के अंधकार को चीर कर उम्मीदों भरा सवेरा लाएं। वैसे मोदी भी मनमोहन सिंह की तरह हलकान हो बोल सकते हैं कि मेरे पास कोई जादू की छड़ी नहीं! इसलिए अब यह आशा प्रबल है कि मोदी के रणनीतिकार अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करें और अपनी साख बचाएं।
बहरहाल, केंद्र से विमुख बिहार की जनता ने अगर प्रधानमंत्री को सबक सिखाया तो दूसरी ओर इस फैसले में महागठबंधन के लिए भी एक संदेश सन्निहित है। यह जीत नीतीश कुमार के ‘पीड़ित-पीड़ित’ की दुहाई और लालू यादव की चुटकुलिया चुलबुलाहट की न होकर देश को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करने वाली ताकतों के खिलाफ और विकास, शांति और सद्भाव के पक्ष में डाला गया वोट है। इस जीत में कांग्रेस की साझीदारी मोदी के लिए मारक अस्त्र की तरह ही घातक है। जाहिर है कि सामने जो कहें, लेकिन असल में मोदी के सिपहसालार भी उससे वाकिफ हैं।
इसके अलावा, सबसे अहम यह कि नीतीश के शपथग्रहण पर मंच पर हुआ जमावड़ा भी केंद्र के लिए खतरे की घंटी से कम नहीं। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा कांग्रेस का विकल्प बन कर उभरी, उसे जनादेश मिला और आज महज डेढ़-दो सालों के दौरान ही यह जनादेश उसके खिलाफ दिख रहा है। लेकिन जितना बड़ा जोखिम भाजपा के लिए है, उससे कम विपक्ष के लिए भी नहीं है।
दरअसल, सामूहिक जीत के बाद की सौदेबाजी आत्मघाती ही होती है। यह अच्छी बात है कि लालू अपनी बात पर कायम रहे कि नीतीश ही मुख्यमंत्री होंगे। वरना लोगों ने उनसे अपेक्षा यह की थी कि नीतीश कुमार से ज्यादा सीट लेने के बाद वे कह सकते थे, ‘वो तो चुनावी जुमला था, इसलिए जो जीता वही सिकंदर’। इसके बावजूद वे सौदेबाजी से नहीं चूके। उनके 26 वर्षीय अनुभवहीन बेटे तेजस्वी को प्रदेश के उपमुख्यमंत्री की कमान दी गई है। पुत्रमोह ऐसा कि दूसरे पुत्र को भी मंत्री पद का ताज पहनाया। परिवार को फिर से स्थापित करने की यह लालसा अभी और फलीभूत होगी और अभी यह ज्यादा खुल कर सामने आएगा, जो महज वक्त की बात है। जाहिर है, कांटों का ताज पहने मुख्यमंत्री के लिए संदेश साफ है कि ‘उपेक्षा’ करोगे तो ‘अपेक्षा’ भी मत करना। तेज प्रताप ने अनजाने में ही दोनों शब्द पहले ही उगल दिए।
बहरहाल, नीतीश के शपथग्रहण में राजनीतिक आदर्शों का खंडहर भी महत्त्वाकांक्षाओं के बारूद से मंच पर ही तबाह हो गया। पूरे प्रचार में लालू से दूर रहे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी जहां उनसे गले मिले, वहीं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी लालू से गलबहियां कर डाली। दूसरी ओर, भावावेग में जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने तो नीतीश को नसीहत ही दे डाली कि वे अब दिल्ली की ओर बढ़ें।
बिहार से राजनीति में एक नए युग की परिकल्पना करने वाले अभी से इस बात को लेकर आशंकित हैं कि महत्त्वाकांक्षाओं का यह मेला कहीं भगदड़ में न बदल जाए! दरअसल, अतीत का अनुभव इस खौफ को तारी रखता है। हालांकि, भाजपा के साथ भी गठबंधन ही था, लेकिन उसके साथ से अगर रामविलास पासवान को निकाल दें तो पीछे जीतनराम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा ही बचते हैं, जिनकी राष्ट्रीय स्तर पर कोई पहचान नहीं। इसलिए नीतीश के मंच से एक संभावित व एकजुट विपक्ष का पौधारोपण देश के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में बेहद महत्त्वपूर्ण है।
मौके की सरकार का एकजुट हमले का यह प्रयास अनूठा तो नहीं पर मौजूदा राजनीतिक माहौल में एक नया समीकरण तय करने वाला जरूर है। हरियाणा के शिक्षक भर्ती घोटाले में तिहाड़ जेल में बंद पूर्व मुख्यमंत्री और इंडियन नेशनल लोकदल (आइएनएलडी) के सुप्रीमो ओमप्रकाश चौटाला ने कहा था कि राजनीति में संभावनाओं का कभी अंत नहीं होता। बिहार ने उनके कथन को चरितार्थ करते हुए देश में नई संभावनाओं को बल दिया है, जिन पर लोगों की उम्मीद के मुताबिक एक जिम्मेवार और जवाबदेह प्रशासन मुहैया कराना, नीतीश सरकार की पहली अहम जिम्मेवारी है।
दूसरी ओर, भारतीय जनता पार्टी इस समय उस घायल शेर की तरह है, जिसे बिल्लियों के झुंड ने पछाड़ दिया हो। पार्टी इस बात से भी अनजान नहीं कि विपक्ष बिहार के सहारे दिल्ली के तख्तो-ताज पर निशाना साध रहा है। मौजूदा प्रशासन की कमजोरियों से भी पार्टी अनजान नहीं। चुप है तो अपनी कमजोरियों के कारण। वरना लालू के नौवीं पास या फेल बेटे की ताजपोशी पर तूफान जरूर उठता। लेकिन एक ‘आदर्शवादी पार्टी’ स्मृति ईरानी के कंधों पर देश की शिक्षा व्यवस्था में मनमाफिक परिवर्तन करने की मुहिम छेड़ कर अपने चेहरे पर भी दाग लगा चुकी है।
जो हो, अब अपने कुनबे को संभालने की बड़ी जिम्मेदारी नीतीश कुमार पर है। ध्यान रहे कि देश की जनता को व्यक्ति के इशारे पर और संगठन के इशारे पर चलने वाला प्रधानमंत्री कबूल नहीं हुआ तो फिर लालू के रिमोट से चलने वाला मुख्यमंत्री भी गवारा नहीं होगा। पांचवें कार्यकाल के लिए सिंहासन संभाल कर नीतीश ने जो कांटों भरा ताज पहना है, उसकी नोकों से बच कर उन्हें अपने ‘सुशासन कुमार’ की छवि को सहेजना होगा। चुनावी रणनीति के नए वास्तुकार प्रशांत किशोर के भरोसे पर चुनाव जीतना आसान है, खासतौर पर तब जब प्रशांत किशोर दुश्मन के घर से ही फोड़ कर लाए गए थे और जाहिर है कि वे भाजपा की कमजोरियों से पूरी तरह वाकिफ थे और यही वजह है कि उनके निशाने आसान और कामयाब रहे। लेकिन शासन के लिए शायद प्रशांत किशोर का प्रबंधन काफी न हो।
जाहिर है कि नीतीश कुमार के इस कार्यकाल पर देश भर की नजर है। यह स्वाभाविक भी है। आखिर इसी कामयाबी ने तो मोदी से मंत्रमुग्ध जनता के मन में सेंध लगाई और उत्तर प्रदेश की जीत के शाहकार को पटकनी दी। और इसी के साथ बिहार ने राज्यसभा में भाजपा के आंकड़े में बढ़ोतरी के मोदी के सपने को भी चकनाचूर कर दिया।
अब जिम्मेदारी दोनों तरफ बराबर है, जहां नीतीश को अपनी बेमेल और सुविधा के संबंध को टूटने के कगार तक पहुंचने से बचाना है, वहीं केंद्र सरकार को भी समझना होगा कि आधुनिक युग में लोकतंत्र अलग-अलग तरह की अस्मिताओं की महत्त्वाकांक्षाओं का मेला होता है। जाति, धर्म, लिंग आधारित अस्मिताओं की आंकाक्षाओं को पूरा करने और उन्हें एक साथ लेकर चलने के लिए एक ठोस और बहुलतावादी नीति बनानी होगी। वरना एक कामचलाऊ प्रयोग का दुहराव होता ही रहता है और आगे पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और पंजाब की कठिन डगर है।