सदानंद शाही

कबीरदास का एक दोहा है: ‘निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय/ बिन पानी साबुन बिना, निरमल होत सुभाय।’ तर्क दिया है कि निंदक बिना साबुन और पानी के चित्त निर्मल कर देता है। कबीर का यह दोहा कई बार सतत निंदा से उपजे क्षोभ का विरेचन करने के काम आता है। हो सकता है कि कबीर ने यह दोहा इसीलिए लिखा हो। एक संभावना यह लगती है कि कबीर ने अपने समय की सत्ता को नेक सलाह दी हो कि भाई निंदकों की सुनिए। आपका भला ही होगा। कबीरदास काफी मजबूत आदमी थे। निंदा को सहने की और उसमें से सकारात्मक खोज लेने की सामर्थ्य थी उनके पास। हम इतने कमजोर हो गए हैं कि निंदा तो दूर की बात है, आलोचना तक सुनने की सामर्थ्य नहीं रह गई है।
कई लोग आलोचना और निंदा को समानार्थी मान लेते हैं।

लेकिन दोनों में बुनियादी भेद है। निंदा के मूल में प्राय: ईर्ष्या होती है, जबकि आलोचना के मूल में बेहतर की ओर ले जाने का भाव होता है। आलोचना करके अगले की उन कमियों का रेखांकन करते हैं, जिन्हें दूर करके वह अपने को दुरुस्त कर सके। साहित्यिक आलोचना की एक जिम्मेदारी और होती है कि वह पाठकों के लिए रचना के आस्वादन का रास्ता बनाती है। आलोचना पाठक के ‘सहृदय’ का निर्माण भी करती है। इसीलिए आलोचना की दोहरी सामाजिक भूमिका होती है। आलोचक का दायित्व निभाते हुए हम असहमत होते हैं। आलोचना की तरह असहमति की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। किसी भी लोकतांत्रिक और विकसित समाज में असहमति की गुंजाइश होती है। जैन मत ने असहमति के स्वीकार के लिए स्याद््वाद का अद्भुत तरीका ईजाद किया था।

इसी तरह एक और चीज है, जिसे कहते हैं विनोद या विनोदप्रियता। विनोद और विनोदप्रियता सामाजिक मस्तिष्क के विरेचन का उद्योग करती है। किसी भी समाज को स्वस्थ, जीवंत और सकारात्मक बनाए रखने के लिए आलोचना, असहमति और विनोदप्रियता की बड़ी भूमिका होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो जीवंत और प्राणवान समाज में ही आलोचना, असहमति और विनोद की गुंजाइश होती है। किसी भी रुग्ण समाज को भीतर से ही आलोचना की जरूरत होती है। विडंबना यह है कि मानसिक तौर पर रुग्ण समाज आलोचना सुनने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं होता। असहमति को निंदा या शत्रु भाव करार दे दिया जाता है।

यही हाल विनोदप्रियता का है। जो समाज (या व्यक्ति) भीतर से जितना कमजोर और रुग्ण होगा, उसमें आलोचना, असहमति और विनोदप्रियता की गुंजाइश उतनी ही कम होगी। एक बार इस पैमाने पर भी हम आत्म-समीक्षा करें और देखें कि कहीं हम धीरे-धीरे एक रुग्ण समाज तो नहीं बनते जा रहे हैं। एक ऐसा समाज, जो जरा-सी आलोचना पर कुम्हड बतिया की तरह कुम्हला जाए। छुईमुई हो जाए। असहमति पर आगबबूला हो जाए। विनोद को सुनने और सहने की ताब ही न हो। असहमति, आलोचना और विनोद के शब्द कान में गोली की तरह लगें और हम लाठी-डंडा लेकर पिल पडें। गालिब कहते हैं: ‘यार से छेड़ चली आती है असद/ न सही इश्क अदावत ही सही’। विनोदप्रियता इतनी कम हो गई है कि यार से भी छेड़छाड़ करने में डर लगा रहता है। यार अगर सत्ता के केंद्र में है तो कहना ही क्या?

दुर्भाग्य से यह राजनीति और समाज का ही नहीं, साहित्य समाज का भी सच है। प्रेमचंद कहते रहें कि साहित्य राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं, बल्कि उसके आगे चलने वाली मशाल है, पर हो इसके उलट रहा है। राजनीति शब्दों का उपयोग प्राय: लाठी-डंडे की तरह करती है, तो देखादेखी साहित्य ने भी वही रास्ता पकड़ लिया। माहौल ऐसा बन गया है कि नाजुक, संजीदा और जरूरी सवाल नक्कारखाने में तूती की आवाज बन कर रह गए और गैर-जरूरी और भोंडे मुद्दे जोर-शोर से उठाए जा रहे हैं। मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक यह बात आम हो गई है। गंभीर बातें कहीं किनारे छूट जाती हैं और सतही बातें सतह पर छा जाती हैं। आत्मप्रचार और आत्ममुग्धता का बोलबोला है। विवेक का स्थान मद ने ले लिया है।

आलोचना की जगह कम हुई है, इसके कारणों की तलाश की जानी चाहिए। इसका गहरा संबंध आलोचना की जरूरत से है। आलोचना की जरूरत किसे है और कितनी है? किस तरह की आलोचना की जरूरत है? आलोचना के स्वरूप का मामला आलोचना की जरूरत से जुड़ा है। समकालीन आलोचना में बहुवर्णी विविधता है। यहां झूठी क्रांतिकारिता है, तो मक्कार विनम्रता भी है। लोलुप अवसरवादिता है, तो दयनीय चरणवंदना भी। शायद हम ऐसी ही आलोचना चाहते हैं। ये प्रवृत्तियां राजनीति से साहित्य और साहित्य से आलोचना में आई हैं। असहमति को सुनने-गुनने की सामर्थ्य न तो राजनीति में है और न ही समाज में। सच कड़वा होता है, उसे कौन सुने और कौन कहे। सच का माला जपने से न पुरस्कार होगा न पद। और न ही प्रतिष्ठा। सच कहने का दंड कबीर आज तक झेल रहे हैं। शब्दों में जो व्यक्त करते हैं वह जीवन के उलट है। पाखंड हमारे समाज का चरित्र लक्षण बन गया है। जिस तरह की सामाजिक संरचना उस तरह की राजनीति, उसी तरह का साहित्य, फिर वैसी ही आलोचना।

अब किसी बौराह ने एडवर्ड सईद को पढ़ लिया हो कि सत्ता से सच कहने का साहस ही बुद्धिधर्मिता है तो यह उसकी समस्या है। यह भी जरूरी नहीं कि सभी आलोचक बुद्धिधर्मी हों। ऐसी बुद्धिधर्मिता किस काम की, जो तुरंत लाभकारी न हो। कुछ लोग कहते हैं कि आलोचना की साख कम हुई है। उन्हें जान लेना चाहिए कि बहुतेरी आलोचना अहो रूपम् अहो ध्वनिम् में बदल गई है। आलोचना भी एक तरह की सॉफ्टस्किल बन गई है, एक तरह की अर्थकरी भले न हो लाभकरी विद्या। साख हो न हो ‘अर्थ’ तो है।

प्रेमचंद ने साहित्य की परिभाषा करते हुए कहा कि साहित्य जीवन की आलोचना है। जीवन में जो कुछ ऊबड़-खाबड़, असुंदर है, अन्यायसंगत है, साहित्य का धर्म उसकी आलोचना है। और आलोचना का धर्म यह देखना है कि साहित्य अपनी भूमिका निभा रहा है या नहीं। ऐसी आलोचना भी लिखी जा रही है, दिक्कत यह है कि उसे पढ़ा या सुना नहीं जा रहा है। क्योंकि उसे सुनना आत्मा पर जमी काई को खुरचने जैसा है। खुरचने में, खुरचे जाने में तकलीफ होती है। इसलिए वही चीजें चल रही हैं जो मानवीय गरिमा के विरुद्ध हैं। मानवीय गरिमा को बढ़ाने वाली बातें फिलहाल हाशिए पर हैं। अकबर इलाहाबादी का यह शेर कदम-ब-कदम याद आता है- बूट डासन ने बनाया मैंने इक मजमूं लिखा/ मुल्क में मजमूं न फैला और जूता चल गया।