पीपल चैंरी पर सघन हरी पत्तियों की छाया में उसके पांवो के निशान थे, मोटा पौड़ी से आनन फानन में जीप लाया, इतनी सुबह कोई सवारी कैसे मिलती पर मोटे को मंजूर था खाली गाड़ी लाना…, मोटा जीप से उतरा, उसने देखा पहाड़ी पर खुशनुुमा धूप उतर आई है, उसने कमर पर हाथ रख आस-पास नजरें छितरा दीं, जहां तक आंख जाती कंजी झाड़ी कंदराओं में खोजने लगा शिकारे… कोई नहीं दिखा तो मोटा दांत किटकिटाने लगा ‘कहां मर गई ऽ…ऽ?’
मौटा फौज से सेवानिवृत्त था या कर ही दिया था, उसने जीप खरीदी और आस-पास के गांवों से सवारी ले जाता, उसकी आमदनी अच्छी हो जाती तो वह एक जिंदा मुर्गा लाता और एक बोतल, अगले दिन वह लोगों से कहता उसके घर में मुर्गा बचा है खाओगे? लोग उसकी उपेक्षा करते, बल्कि उससे घृणा करते, मोटे को इस सब से क्या फर्क पड़ता, वह हंसता राक्षसी हंसी ‘मुफ्त का दे रहा हूं नहीं लेते तो बदकिस्म साले…’। मोटे से सब बचना चाहते, विशेषकर औरतें, वे जब भी काम करने खेतों में जातीं तो मोटा बीच रास्ते में अड़स जाता, जहां मोटा खड़ा होता उससे दो फुट आगे उसका पेट होता…, इस तरह मोटा अपने से पांच गुनी ज्यादा जगह घेरता। लोग सोचते विचार करते कि मोटे की मोटी बुद्धि में कभी तो आएगा कि जरूरत से ज्यादा जगह नहीं घेरनी चाहिए, लेकिन मोटा तो ठस्स दिमाग का ठहरा, वह सोचता दूसरे की जगह हथियाने से उसका वर्चस्व बना रहेगा…, स्त्रियां उसे रास्ता छोड़ने को कहतीं तो मोटा हीं हीं करके सरकता, ‘लो छोड दिया रस्ता…. इस स्थिति में मोटे के पेट का स्पर्श न चाहते हुए भी उन्हें करना पड़ता! इसके सिवा कोई चारा भी नहीं होता, मोटा इतना ढीठ कि कुछ कहने पर झगड़ने को उतारू हो जाता, तो स्त्रियां उससे उलझने की बजाय बचकर निकलने में अपनी भलाई समझतीं और मोटा विजयी भाव से मुस्कराता, मोटे के संस्कार थे बाप भी, उसका वैसा ही ठहरा…, पुलिस में दरोगा हुआ तो उसके भाव सातवें आसमान पर पहुंच गए। गांव आता तो जिस किसी को गरियाता, स्त्रियों को भूखी नजरों से ताकता, लेकिन इस तरह की हरकत नहीं करता था जैसा बेटा करता था… पुलिस का आदमी होते हुए भी वह गांव वालों से डरता और भीतर ही सेंध लगाता रहा… बाहर के डर से आतंकित होकर मोटे की पत्नी को शिकार बनाया तो गांव में बात फैल गई, अपमानित होने की डर से मोटे के बाप ने गांव छोड़ दिया और अपनी काली कमाई से बाजार में कोठी बना दी और लोगों को दिखा दिया कि ताकत और पैसे के बल पर कुछ भी किया जा सकता है। मोटे ने बाप के कर्म को अनैतिक मानते हुए अपनी पत्नी से संबंध तोड़ दिए थे। यह उन दिनों की बात थी जब मोटा जम्मू में तैनात था। मोटे ने वहां एक और करिश्मा किया एक दूसरे धर्म की स्त्री से बाकायदा विवाह रचाया तो मोटे की पत्नी बिफर उठी। उसने ससुर के कच्चे चिट्ठे गांव जाकर पढ़ने शुरू किए तो गांव वालों ने उसे भी दुत्कार दिया था, यह कहकर कि ‘उसे तत्काल आवाज उठानी चाहिए थी।’
पूरा गांव इस परिवार से त्रस्त रहते हुए अब चैन की सांस ले रहा थ, वैसे मोटे का बाप और मां किसी पर्व या त्योहार पर एक आध दिन के वास्ते आते तो मोटे का बाप अपने ही बिल में घुसा रहता, गांव वाले उनके जाने की राह देखते और मनौती मांगते कि कलयुग के इन अधर्मी मनुष्यों का गांव की सीमा में आगमन न हो कभी।
लेकिन वे नहीं जानते थे कि कलयुग में पाप ही फलता है तो जब तक निशाचरी कायाएं न हों तो पाप का विस्तार कैसे होता भला…, लोग सोचते विचारते तो थे, लेकिन उनकी बुद्धि और आत्मबल नपुंसक था। इस मोटे के परिवार से घृणा करते हुए भी वे उनके खिलाफ न हो पाए कभी। मजबूरी में ही सही बर्दाश्त करते रहे उन निशाचरों को…।

तो अभी चैन की सांस लेने वाले गांव को सौगात देने कलयुग के गर्भ से उत्पन्न हुआ निशाचर एक और पहुंच गया। गांव की पवित्र आत्मा को कीचड़ में लधेड़ने… मोटा अब दूसरे धर्म की पत्नी को धकिया कर आ गया तो मोटे की पत्नी भी आ गई। साथ रहने और दोनों में भयंकर झगड़े होने लगे, तो मोटे की मां उसे अपनी अजगरी दुनिया में वापस ले गई और मोटा सांड सा, मदमस्त डोलने लगा…!
गांव-गांव में सवारी के बहाने वह स्त्रियों की थाह ले लेता कि कौन उसके फंदे में आ सकती है…, मोटे की कुबुद्धि रही जो सोच नहीं पाई कि कोई भी स्त्री किसी पुरूष के लिए बाजार नहीं होती, जिसे खरीद लिया जाए। फिलहाल पहाड़ों में ऐसा चलन नहीं रहा।
मोटा सवारियों से मनमाना किराया वसूलता तो लड़कियों से और कम उम्र की महिलाओं से फुसलाने के अंदाज में मामूली किराया मांगता। स्त्रियां अपनी तरह उसका विरोध करना चाहतीं, लेकिन उसकी जीप में बैठना उनकी मजबूरी होती, वक्त- बेवक्त मोटे की गाड़ी ही सुलभ होती, फिर भी मोटा किसी पर दिनदहाड़े हाथ नहीं डाल पाता था। उसे अपना भी डर होता अपराधी चाहे कितना ही बलशाली हो भीतर से वह चूहा होता है। मोटे को ऐसा ही लगता। कुछ दिनोंं में मोटा शिकार पाने की उम्मीद पाले हुए जीप चलाता, खूब मस्त होकर भौंडे गीत गाता, उसे लगने लगा था कि शिकार उसके जाल में जरूर फंसेगा एक दिन…
उन्हीं दिनों तल्ला गांव की सोना उसके गांव में दूध देने आने लगी, वह समय और सोना पर आंख रखने लगा…, सोना का पति फौज में था। इस बीच गांव के ज्यादातर परिवार शहरों को पलायन कर गए थे। अब गांव में कुछ मजबूर परिवार थे या बूढ़ी-बूढ़े, जिन्हें उनके बच्चे आफत समझकर गांव छोड़ गए थे या वे अपनी मर्जी से गांव में रहने को विवश थे। सोना तीन परिवारों को अपनी भैंस का दूध लाती और जाते वक्त पहाड़ जैसा घास का गट्ठर ले जाती सिर पर। आते समय उसके हाथ में दूध की ठेकी और रस्सी के साथ धारदार दरांती होती, जिसे वह पत्थर पर रगड़-रगड़ कर धार देती थी। सोना से गांव वाले खुश रहते। वह शुद्ध दूध मुहैया कराती और बदले में रुपयों के साथ मुफ्त में हरी-सूखी घास काटती। घास काटते वक्त वह अपनी सुरीली आवाज से पहाड़ी गुंजा देती, पति वियोग में सोना लोकगीत गाती ‘ऐगे बसंत ऋतु बौडिकी डांडी वा कांठयू मां, तुम बिन स्वामी पट मोरि जौलू गाढ गदंयू मांऽ….’, गीत गाते हुए उसकी आवाज भीगने लगती आंसू छलक उठते, ऐसे ही क्षण में मोटा उससे रू-ब-रू हुआ। मोटा बोला सोना, ‘मैं तेरा दुख समझता हूं तू रो मत मेरे सारे खेतों की घास काट ले… पर रो मत…’

मोटा बोला ‘सोना मुझे रोती हुई लड़कियां अच्छी नहीं लगती तुझे क्या दुख है सोना…? हेऽ… छोरीऽ…हेऽ… सोनालीऽ… हेऽ… बांद सोना…।’ मोटा अस्फुट बुदबुदाने लगा।
‘तेरा मालिक दूर है…?’ देख इधर… हेऽ…सोनपरी… जीप में घुमाऊंगा तुझको…, हेऽ लाटीऽ… शिरनगर ले जाऊंगा…’
सोना ने आंसू पोंछे और आवाज में कड़की लाने की कोशिश की, ‘देवर जीऽ तुम यहां से चले जाओऽ मेरा जी न दुखाओऽ…’। मोटा उसके गालों पर ढुलके आंसू पोंछने के लिए आगे बढ़ा फिर कुछ सोचकर रुक गया। सोना घास काटने लगी थी।
उस दिन मोटा चला आया था, दूसरे दिन वह फिर गया, सोना तब भी गीत गा रही थी । उसे मोटे की उपस्थिति का आभास न हुआ। उसे पति के साथ बिताए क्षण याद आ रहे थे, मोटा धीरे से कूदा ‘सोना, देख तो तेरे लिये मैं क्या लाया हूं…?’
उसके हाथ में साड़ी और मिठाई का डिब्बा था- वह बोला, ‘सोना, तेरा चंदन भी तो यही लेकर आता… है न सोना, तो जब तक वह लौटता है तू मुझे ही अपना मान ले सोना…’। मोटा नजदीक आने लगा था, सोना ने उसे घूर कर देखा था, ‘तूऽ… मेरे पति की जगह लेगा…?’
मोटे को लगा कि उसके जाल में फंस रही है चिड़िया… वह सामान उसे थमाते हुए बोला ‘क्या फर्क पड़ता है सोना… तेरा चंदन भी फौजी मैं भी फौजी।’
सोना ने सामान दीवार पर रख दिया, ‘नहीं रेऽ… सामान थोड़े ही चाहिए मुझे… तू मेरा घास का गट्ठर मेरे घर छोड़ दे बस…।’ सोना घास का गट्ठर उसे थमाने लगी।
मोटा लालची नजर से उसे देखता रहा… ‘तू भी तो जीप में ही चलेगी?’
‘ नहीं रे मुझे अभी और घास काटना है।’
मोटा घास का जीप में डालकर उसके चैक में डाल आया…
सोना पैदल ही पहाड़ी उतरी।
आज सोना कहीं दिखाई नहीं दी। वह घाटी में घास काट रही थी, पहाड़ी के दूसरी तरफ जहां से उसकी आवाज बिला रही थी, मोटा उसे खोजने लगा, आज भी घास का गट्ठर ले जाने को कहेगी तो वह साथ चलने को कहेगा- आखिर पैदल क्यों चलेगी बेवकूफ औरत! आज वह कहने वाला था मालामाल कर दूंगा तुझे सोना… और आज भी नहीं मानेगी तो खींच कर लाऊंगा…! उसके भीतर का निशाचर काल्पनिक मंसूबे बनाता हुआ पहाड़ी उतरने लगा तो उसने देखा सोना ऊपर जा रही है। काली मंदिर की तरफ… वह उसकी ओर लपका… सोना मंदिर के सामने बैठ गई। घास का गट्ठर नीचे रख दिया। आज उसके पति का मनीआर्डर भी उसे लेना था। कल देर से उसे सूचना मिली थी। सोना ने देखा वासना का भेड़िया उसकी तरफ लपक रहा था, वह हांफ रहा था, सोना उसके हिलते पेट को देखकर हंसने लगी, मोटे को अच्छा लगा, पर सोना की हंसी रूकी। नहीं वह पवित्र खिलखिलाहट अट्हास में बदलने लगी तो मोटा पल भर को सहम गया, लेकिन सोना का चेहरा उसकी आंखों में चुंधियाने लगा तो विचलित होकर बोला ‘सोना तू रंग मत बदल… मुझे खौफ मत दिला…!’
जैसे ही मोटे ने सोना को पकड़ना चाहा सोना के हाथ में त्रिशूल आ गया। मोटा चीखा, ‘ नहींऽ सोना…, नहींऽ सोना…, त्रिशूल नीचे रख, त्रिशूल नीचे रख…।’ कहते हुए पीछे खिसकने लगा, सोना भी आगे बढ़ने लगी… मोटा का पैर फिसला और वह नीचे लुढ़का और सोना ने त्रिशूल उसके पेट में घुसेड़ दिया। खून फौव्वारा फूटने लगा तो भी सोना की हंसी रुकी नहीं… हाऽ हाऽ हाऽ…. जब तक गांव वाले नहीं आए वह हंसती ही रही… ०

कुसुम भट्ट