एक पुरानी देहाती कहावत है कि नाराजगी के बावजूद डरने वाले कुम्हार की अपनी पत्नी पर तो कोई पार बरसी नहीं पर उसने गधे के कान जरूर ऐंठ दिए। अपने नीकु भी कुछ ऐसा ही व्यवहार कर रहे हैं। नीकु यानी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार। सूबे में शराबबंदी के बाद अब अपने पड़ोसी आदिवासी राज्य झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास पर खुन्नस निकाल रहे हैं। जबकि बेचारे रघुवर दास का तो कोई कसूर है भी नहीं। बिहार के लोग अगर सीमा पार कर झारखंड में अपना मद मोह पूरा कर रहे हैं तो रघुवर दास क्या कर सकते हैं? नीकु ने उन्हें चिट्ठी लिख कर शराब बंदी में सहयोग मांगा था। रघुवर दास ने वह चिट्ठी अपने मद्य निषेध महकमे को भेज दी और नीकु को भी अवगत करा दिया। नीकु इसी बात से चिढ़ गए। उन्होंने सोचा होगा कि उनकी चिट्ठी के बाद रघुवर दास अपनी पुलिस को उन बिहारियों की पकड़-धकड़ में तैनात कर देंगे, जो सीमा पार कर नशे की लत मिटाने उनके सूबे में जा रहे हैं।
पर ऐसा हुआ नहीं। काश नीकु अपनी पुलिस से ही ऐसे सुरा प्रेमियों की धर-पकड़ करा लेते। जिन्हें लत है वे भला पुलिस के काबू में कहां आ पाते हैं। सो, नीकु ने एलान कर दिया है कि वे अब शराबबंदी अभियान झारखंड में भी चलाएंगे। दस मई का कार्यक्रम भी बना लिया है। इस बहाने मकसद भाजपा विरोधियों को गोलबंद करना होगा। यह बात अलग है कि रघुवर दास को कोई सफाई नहीं देनी पड़ी। विचरण करने वाले बिहारी सुरा प्रेमी खुद ही अपने मुख्यमंत्री से सवाल पूछ रहे हैं। जो पत्र उन्होंने रघुवर दास को लिखा है वैसा ही पत्र अखिलेश यादव को क्यों नहीं लिखा? बिहार की बड़ी सीमा तो यूपी से भी लगती है। बिहारी तो यूपी में भी जाकर मिटा रहे हैं अपनी प्यास। झारखंड की तुलना में यूपी के शराब विक्रेताओं की कहीं ज्यादा चांदी कट रही है। जाहिर है कि शराब तो बहाना है। नीकु को तो भाजपा को निपटाना है। यूपी में तो समाजवादियों का राज है। अखिलेश से भला वे पंगा क्यों लेने लगे।
नहले पर दहला
रामविलास पासवान अपनी पार्टी के मुखिया भी हैं। मोदी सरकार में अपनी पार्टी के इकलौते मंत्री तो खैर हैं ही। बिहार के मुख्यमंत्री को घेरने का मौका खोज लाए। धरना देकर बिहार सरकार को अपनी मांग पूरी करने की चेतावनी भी दे डाली। नीतीश सरकार अगर उनकी मांग पूरी नहीं करेगी तो पासवान अपना आंदोलन तेज कर देंगे। दरअसल बिहार सरकार ने ताड़ी संबंधित नियमों का कड़ाई से पालन शुरू कर दिया है। शराबबंदी के लिए बने कानून पर अमल का ही यह दूसरा अध्याय है। नीतीश को कतई सरोकार नहीं कि ताड़ी के बल पर रोजी-रोटी चलाने वालों पर आफत आ गई है। ज्यादातर दलित ठहरे। नीतीश के हिसाब से तो महादलित। पुलिस और प्रशासन के अफसर उन्हें ताड़ी उतारने ही नहीं दे रहे, बेचने की इजाजत का तो सवाल ही नहीं उठता। लालू के राज में इसका उलटा था। उन्होंने तो ताड़ी के पेड़ों के पंजीकरण की व्यवस्था को ही खत्म कर दिया था। साथ ही ताड़ी के बल पर रोजी-रोटी चलाने वाले दलितों को ताड़ी उतारने और बेचने की पूरी आजादी दे डाली थी। लालू की पार्टी भी तो सरकार में शामिल है। पर लालू कुछ बोल नहीं रहे। पासवान ठहरे दलितों के नेता। वे क्यों चुप रहें? वैसे भी सरकार में तो उनके विरोधी बैठे हैं। सोच-समझ कर मांग उठाई है पासवान ने। ताड़ी पर लगी पाबंदी को हटवा कर ही दम लेंगे। इससे दलित उनके पक्ष में एकजुट हुए हैं। जीतन राम मांझी भी इस मुद्दे पर पासवान के साथ हैं। दुविधा में राजद और जद (एकी) के दलित नेता आ गए हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा कि क्या करें? हालांकि दलितों की चिंता उन्हें भी है ही। हां, पासवान के साथ कतई नहीं जा सकते। अलबत्ता उनका विरोध ही करना धर्म ठहरा। शायद इसी नीयत से पासवान पर वोट के लिए विरोध करने का आरोप जड़ रहे हैं। उनकी देखा-देखी लालू ने भी यही दलील दे डाली। पर पासवान ने पलटवार करने में पल भर की देर नहीं लगाई। बेबाकी से बोल दिया- शराब बंदी का फैसला भी क्या वोट की राजनीति का हिस्सा नहीं है? महिलाओं के वोट के फेर में ही तो किया है नीतीश ने यह फैसला।
बानगी हिम्मत की
रघुवर दास आदिवासी राज्य झारखंड के पहले गैरआदिवासी मुख्यमंत्री ठहरे। शायद इसी वजह से आदिवासियों को वे हजम नहीं हो रहे। रघुवर दास की सरकार ने आदिवासियों के बारे में स्थानीय नीति बनाई है, उसे लेकर विरोध तेज हुआ है। विरोध कर रहे आदिवासियों को लगता है कि इससे बाहरी लोगों यानी गैरआदिवासियों को अपना वर्चस्व बढ़ाने में मदद मिलेगी। वे तो रघुवर दास को भी बाहरी बता रहे हैं। वैसे जब से झारखंड अस्तित्व में आया है, स्थानीय नीति की मांग उठती रही है। सूबे के पहले मुख्यमंत्री बाबू लाल मरांडी आदिवासी थे। वे भी तब भाजपाई थे। पर नीति नहीं बना पाए। इसके बाद भाजपा के अर्जुन मुंडा को तीन बार सत्ता मिली। वे भी इस मोर्चे पर विफल ही रहे। इसी तरह झारखंड मुक्ति मोर्चे के शिबू सोरेन तीन बार तो उनके पुत्र हेमंत सोरेन भी एक बार मुख्यमंत्री रहे। बीच में निर्दलीय मधु कोड़ा की भी किस्मत चमकी। पर स्थानीय नीति लाने की हिम्मत इनमें कोई नहीं कर पाया। जबकि सब आदिवासी थे। रघुवर दास ने यह हिम्मत कर दिखाई। नतीजतन उन्हें विरोध का सामना करना पड़ रहा है। विरोध आसानी से थमेगा भी नहीं। यों भी भीतरी और बाहरी की लड़ाई से अछूता तो कोई भी राज्य नहीं है। कहीं तकरार साफ दिखती है तो कहीं दबी ढंकी।
हवाई किले
मतदान के सारे दौर निपटे भी नहीं कि पश्चिम बंगाल में सत्ता के दोनों दावेदार अपनी-अपनी जीत के दावे करने लगे हैं। यों पांच चरणों के मतदान का मतलब 294 में से 269 सीटों का चुनाव निपट गया। पर जीत के दावे तो चौथे दौर के साथ ही सामने आ गए थे। वैसे भी चुनाव के दौरान अपनी पराजय का दावा तो कोई करेगा भी क्यों? गनीमत है कि भाजपा अभी इस होड़ से दूर है। दौड़ में एक तरफ ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस है तो दूसरी तरफ वाम मोर्चा और कांग्रेस का गठजोड़। दोनों ही अपनी-अपनी ही ढपली पर अपना अलग राग अलाप रहे हैं। छुटभैए नेता ऐसे दावे करते तो कोई बात न होती पर यहां तो 25 अप्रैल के बाद ही एक तरफ ममता बनर्जी खुद फिर सत्ता में आने का अनुमान लगाने लगीं तो दूसरी तरफ माकपा के सूर्यकांत मिश्र को भी मुख्यमंत्री की कुर्सी ख्वाब में दिखने लगी। 19 मई को निकलेंगे ईवीएम से नतीजे। पर तब तक जुबान पर ताला तो नहीं लगा सकते। माकपा-कांग्रेस गठबंधन ने तो दो सौ सीटों का लक्ष्य तय कर रखा है। मिश्र के सुर में सुर कांग्रेस के सूबेदार अधीर चौधरी ने भी मिला दिया। चौथे चरण के मतदान के साथ ही ममता की सत्ता से बेदखली साफ दिखगई उनको। ममता के कारिंदे भी पीछे क्यों रहते? मुकुल राय को तो चौथे दौर के मतदान की 216 सीटों में से ही 200 सीटें मिलती दिख गईं।
ढीली हुई अकड़
राजस्थान में जिला कलेक्टरों और पुलिस कप्तानों के सालाना सम्मेलन की अहमियत खूब बढ़ी है। जब भी वसुंधरा सरकार इस सम्मेलन की तारीख तय करती है, नौकरशाही में घबराहट छिपाए नहीं छिपती। इस बार चार से छह मई के दौरान होगा यह सम्मेलन। लेकिन तारीखों के एलान से पहले ही दर्जन भर जिला कलेक्टरों को वसुंधरा ने बदल दिया। नए कलेक्टर सम्मेलन में काम संभाले ज्यादा दिन नहीं होने की दलील देना चाहेंगे। पर वसुंधरा ने इसका भी हल खोज लिया। पुराने कलेक्टरों की भी लगेगी सम्मेलन में पेशी। मंत्री तो खैर मौजूद रहेंगे ही। वसुंधरा राजे वैसे भी गुस्सैल मानी जाती हैं। अफसरों को फटकार लगाती हैं तो उन्हें सांप सूंघ जाता है। इस बार विधायकों ने अपने कलेक्टरों की शिकायतें भी खूब की हैं मुख्यमंत्री से। सरकार का आधा कार्यकाल तो बीत ही चुका है। बचे वक्त में मुख्यमंत्री को अगले चुनाव की फिक्र करनी ही पड़ेगी। जयपुर, अजमेर और बीकानेर के कलेक्टरों की ज्यादा शिकायतें थी। इसीलिए तीनों को हटा कर हल्के पदों पर भेज दिया। अजमेर और बीकानेर में तो महिला अफसर थी तैनात। जयपुर के मुख्यमंत्री सचिवालय से नजदीकी रिश्तों का रौब गालिब करती थीं। विधायकों और सांसदों की तो दूर मंत्रियों तक की परवाह नहीं थी उनको। ऐसे में वसुंधरा ने एक झटके में बता दी उन्हें औकात।
बढ़ता असंतोष
पंजाब विधानसभा चुनाव में अभी एक साल का वक्त है। पर प्रदेश में सत्तारूढ़ अकाली दल की गुटबाजी अभी से सतह पर आने लगी है। हाकी से सियासत में आए परगट सिंह के नाराज तेवर इसकी बानगी हैं। पिछले हफ्ते पांच विधायकों को मुख्य ससंदीय सचिव बनाने का एलान किया था बादल सरकार ने। परगट सिंह भी उन्हीं में हैं। इलाके में अच्छी पैठ बना रखी है। तभी तो पिछला विधानसभा चुनाव अच्छे अंतर से जीता था। बादल परिवार ने खास तवज्जो नहीं दी, सो नाराजगी स्वाभाविक थी। चुनाव से ठीक पहले बांटी गई रेवड़ियां बाकी चार ने बेशक ले ली, पर परगट सिंह प्रलोभन में नहीं फंसे। शपथ समारोह में उनका इंतजार ही करते रह गए मुख्यमंत्री और दूसरे नेता। बादल पिता-पुत्र अब इसी आशंका में घिरे हैं कि कहीं चुनाव से पहले पार्टी न छोड़ दें नाराज परगट।
आया राम गया राम
आखिर कुलदीप विश्नोई थक गए। 2007 में कांग्रेस से अलग होकर अपने पिता भजन लाल के आशीर्वाद से बनाई थी अपनी अलग हरियाणा जनहित कांग्रेस। पिछला लोकसभा चुनाव भाजपा से मिल कर लड़ा था। पर विधानसभा में गठबंधन टूट गया तो अकेले ही लड़ा चुनाव। पति-पत्नी ही जीत पाए आदम पुर और हांसी सीट। भाजपा की बढ़त ने मनोबल ऐसा तोड़ा कि वापस सोनिया गांधी की शरण में आना पड़ गया। नाराजगी भूपिंदर सिंह हुड्डा को मिल रही तरजीह से बढ़ी थी। अब कांग्रेस में विलय किया है पार्टी का तो परेशान हुड्डा ही बताए जा रहे हैं। तभी तो विलय के मौके पर सोनिया गांधी की मौजूदगी के बावजूद नदारद रहे। रही रणदीप सुरजेवाला की बात तो वे चुपचाप तमाशा देख रहे हैं। हुड्डा किनारे लगें तो मिलेगी उन्हें जाट नेता के नाते पार्टी में ज्यादा तवज्जो। प्रवक्ता तो फिलहाल हैं ही। कुलदीप विश्नोई को तो उपमुख्यमंत्री पद से भी संतोष हो जाएगा अगर सूबे में अगली बार सत्ता में आई पार्टी। आखिर पहले भी उनके बड़े भाई चंद्रमोहन हुड्Þडा सरकार में उपमुख्यमंत्री थे ही। फिजा मोहम्मद के इश्क ने बैरागी बना दिया था। अपना जनाधार नहीं है तो क्या? छोटे भाई कुलदीप के दिन फिरेंगे तो उनकी डुबती नैया को भी मिल जाएगा किनारा।
बेचारगी चौहान की
मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के एक फैसले ने सरकारी कर्मचारियों में खलबली मचा दी है। सरकारी नौकरियों में तरक्की में भी दिए जा रहे आरक्षण को असंवैधानिक ठहराया है। तरक्की में आरक्षण के नियम को चुनौती देने वाली 22 याचिकाओं पर सुनवाई के बाद शनिवार को आया अदालत का फैसला। अनुसूचित जाति-जनजाति के बीस हजार से ज्यादा लोगों को बारी से पहले मिली तरक्की को भी रद्द कर दिया हाईकोर्ट ने। अलबत्ता नियुक्तियों में आरक्षण को सही माना है। जिन्हें घाटा हुआ, उनके मुंह लटक गए हैं। पर जिन्हें आरक्षण ने पीछे पहुंचाया था, उनकी खुशी का ठिकाना नहीं। हाईकोर्ट ने व्यवस्था दे डाली कि तरक्की में आरक्षण कोई मौलिक अधिकार नहीं। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के 10 साल पुराने फैसले का भी हवाला दे दिया दो जजों की खंडपीठ ने। तरक्की में आरक्षण के नियम को जिन्होंने हाईकोर्ट में चुनौती दी थी उन्होंने इसे समानता के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन बताया था। अदालती फैसले के बाद राज्य सरकार के पास अब कोई विकल्प बचा ही नहीं है। फिर भी मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने सुप्रीम कोर्ट में अपील करने का एलान कर दिया है। चौहान भूल रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट में उनसे पहले इस मुद्दे पर मुंह की खा चुकी हैं यूपी, बिहार और तमिलनाडु की सरकारें।
एक पंथ दो काज
विधानसभा चुनाव में अब ज्यादा वक्त बचा ही कहां है? सो हिमाचल के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के लाडले विक्रमादित्य सिंह सरकार की नब्ज जांच रहे हैं। विधायकों का रिपोर्ट कार्ड बनवाने की बात कही है। यानी निकम्मों और हार की संभावना वालों के टिकट काटेंगे। मुख्यमंत्री के नाते टिकट बंटवारे में अपनी चलाएंगे वीरभद्र। पिछली बार तो सत्ता भाजपा की थी। लिहाजा आलाकमान ने कई ऐसों को भी दे दिए थे टिकट जिनसे कतई नहीं पटती वीरभद्र की। विक्रमादित्य ने तो नकारा मंत्रियों के विभाग बदलने की भी चेतावनी दी है। लेकिन वे अभी किसी हैसियत में तो है नहीं। जाहिर है कि पिता के वरदहस्त ने बढ़ा दिया है, उनका हौसला। सियासत में प्रशिक्षित हो जाएंगे और पिता का सहारा तो बनेंगे ही।
असुरक्षा का भाव
हिमाचल प्रदेश में मोटेतौर पर दो दलीय सियासत ही रही है। लेकिन दोनों दल यानी कांग्रेस और भाजपा संगठन के स्तर पर कमजोर ही ठहरे। तभी तो भाजपा में प्रेम कुमार धूमल का वर्चस्व है तो कांग्रेस के पास वीरभद्र का विकल्प नहीं। दोनों दलों के सूबेदारों की हैसियत तो कठपुतली जैसी है। सतपाल सिंह सत्ती को भाजपा की तीसरी बार सूबेदारी धूमल की बदौलत ही तो मिल पाई। धूमल और जगत प्रकाश नड्डा अब एक दूसरे के अंदरखाने तो विरोधी ही बन गए हैं। नड्डा ने मोदी और अमित शाह के दौर में अपनी सियासी हैसियत बढ़ाई है। वे भी अपने कुछ चहेतों को तो टिकट दिलाएंगे ही। इससे उन इलाकों में धूमल अपने समर्थकों की बगावत कैसे रोक पाएंगे। धूमल ही क्यों बागियों से तो वीरभद्र को भी लगता है डर।
अर्श से फर्श
उत्तराखंड में अब परोक्ष रूप से राज्यपाल केके पाल का राज है। तभी तो एमए गणपति को बना दिया सूबे का पुलिस महानिदेशक। उधर पुराने डीजीपी बीएस सिद्धू के साथ बुरी बीती। रिटायर होने से एक दिन पहले ही उन्हें आरोपपत्र थमा दिया शासन ने। वन विभाग की जमीन की खरीद-फरोख्त में गुलगपाड़ा कर रखा है। गणपति की बेदाग छवि का ही नतीजा है कि ईमानदार पुलिस वालों के चेहरे खिल गए हैं।
साम-दाम-दंड-भेद
सरकार गठन को लेकर बेशक पेंच फंस गया है पर हरीश रावत की घेरेबंदी में तो जी-जान से जुट गए हैं भाजपाई। तभी तो उनके स्टिंग आपरेशन की जांच सीबीआइ को थमाई है। हरीश रावत के सलाहकारों के ठिकानों पर तो सीबीआइ ने छापे भी मारे हैं। अगली बारी उनके निजी सचिव रहे मोहम्मद शाहिद की आ सकती है। एक तरफ रावत को सीबीआइ के चक्रव्यूह में फंसा कर उनकी छवि खराब करने की रणनीति पर काम शुरू हुआ है तो दूसरी तरफ उनके सिपसालारों को भी सरकारी एजंसियों के जरिए डराने की मुहिम चालू हो गई है। रावत की सरकार में मलाई मार रहे बसपा, निर्दलीय और उत्तराखंड क्रांति दल के विधायकों की बेचैनी भी अब बढ़ने लगी है। चुनाव के अलावा और कोई विकल्प नजर नहीं आ रहा। सुप्रीम कोर्ट में मामला ऐसा उलझ गया है कि न उगलते बन रहा है और न निगलते। राष्ट्रपति शासन हटा कर तिकड़म से अपनी सरकार बनाने के मंसूबे पर पानी जो फिर दिया है अदालत ने।