छमाही आर्थिक विश्लेषण की कई बातें उलझन में डालने वाली हैं। मसलन, पैरा 1.4 कहता है ‘‘यह सही है कि बजट में जताए गए अनुमानों के बरक्स जीडीपी की दर में थोड़ी भी कमी राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 3.9 फीसद तक लाने के लक्ष्य को हासिल करना चुनौतीपूर्ण बना देगी।’’ फिर राजकोषीय घाटे का स्तर 0.2 फीसद और ऊपर होगा। इसके बावजूद पैरा 1.5 जोर देकर कहता है कि ‘‘वित्तवर्ष 2015 की तरह इस साल भी घोषित लक्ष्य को हासिल करने की अपनी प्रतिबद्धता पर सरकार दृढ़ है… अगर राजस्व संग्रह और व्यय के चालू ढर्रे को हिसाब में लें, तो पहली छमाही का परिणाम सालाना लक्ष्य से एकदम मेल खाता है।’’
इस आशावाद का स्वागत है। इसने फौरी शक को फौरन दूर भगा दिया। फिर भी मैं हैरान था कि शंका पहले उठी ही क्यों। सालाना लक्ष्य पा लेने के सरकारी दावे में दिख रही कमजोरी को लेकर भी मैं उलझन में था।
अप्रत्याशित लाभ की बात क्यों नहीं मानी
सरकार क्यों यह मानने से कतरा रही है कि तेल में उसे अप्रत्याशित लाभ मिला? मई 2014 में कच्चे तेल की कीमत 109.5 डॉलर प्रति बैरल थी। सितंबर 2014 में यह कीमत 97.5 डॉलर प्रति बैरल हो गई, और उसके बाद तो भारी गिरावट का दौर शुरू हो गया। इसका भारत के तेल के मद पर क्या असर पड़ा इसका अंदाजा निम्नलिखित आंकड़े से लगाया जा सकता है:
2014 सितंबर – 97.0 डॉलर
अक्तूबर – 85.7 डॉलर
नवंबर – 77.1 डॉलर
दिसंबर – 61.1 डॉलर
2015 जनवरी – 46.9 डॉलर
जनवरी 2015 से कच्चे तेल की कीमत एक दायरे के भीतर बनी रही है, तथा हाल के हफ्तों में उसमें और भी गिरावट आई है। दो रोज पहले, कच्चे तेल की कीमत चौंतीस डॉलर प्रति बैरल से नीचे पहुंच गई!
मैंने यह अनुमान लगाने का प्रयास किया है कि तेल आयात के मामले में, दिसंबर 2014 से नवंबर 2015 के दरम्यान, पिछले साल की इसी अवधि (दिसंबर 2013 से नवंबर 2014) के मुकाबले कितनी ‘बचत’ हुई। बारह-बारह महीनों के इस दो दौर में औसत कीमत रही 53.6 डॉलर और 101.3 डॉलर, यानी 47.7 डॉलर प्रति बैरल की बचत!
इस प्रकार लगभग चालीस अरब डॉलर की बचत हुई (93.47 डॉलर-52.74 डॉलर)। भारतीय मुद्रा में, तब की विनिमय दरों को लागू करने पर, बारह महीनों में हुई बचत का अनुमान 2,33,000 करोड़ रुपए बैठता है।
निस्संदेह वित्तवर्ष अप्रैल 2015 से मार्च 2016 तक है, और हो सकता है 2,33,000 करोड़ रुपए का अनुमान एकदम सटीक न बैठे। मेरा खयाल है, यह राशि कहीं ज्यादा हो सकती है, क्योंकि नवंबर 2015 से कच्चे तेल की कीमतों में और भी गिरावट आई है।
सरकार ने इस लाभ का क्या किया
इस ‘बचत’ या उपलब्धि पर पूरी अर्थव्यवस्था का हक है और सरकार, कॉरपोरेट जगत तथा आम लोगों, सभी का इसमें हिस्सा होगा। अब हम सरकार के हिस्से में आए फायदे का अनुमान लगाएं। सरकार को तीन तरह से फायदा हुआ: (1) बजट के बाद पेट्रोलियम और पेट्रोलियम पदार्थों पर लगे अतिरिक्त कर; (2) फर्टिलाइजर, रसोई गैस और केरोसिन के सबसिडी बिल में कमी; और (3) सरकारी विभागों खासकर रेलवे तथा रक्षा विभागों द्वारा तेल की अपनी खपत में की गई कटौती।
मैं आपके ऊपर आंकड़ों का बोझ डालना (या बोर करना) नहीं चाहता। मेरा अनुमान है कि तेल के मद में 2,33,000 करोड़ रुपए के अप्रत्याशित फायदे का साठ फीसद सरकार के हिस्से में जाएगा, जो कि लगभग 1,40,000 करोड़ रुपए होगा। और भी दिलचस्प सवाल यह है कि सरकार ने इस बचत का क्या उपयोग किया, या वह कैसे करेगी?
राष्ट्रीय महा लेखाकार ने नवंबर 2015 तक के राजस्व और खर्चों के आंकड़े दिए हैं। प्राप्ति के मोर्चे पर देखें तो पिछले वित्तवर्ष और पिछले पांच साल के औसत के मुकाबले कुल कर राजस्व, गैर-कर राजस्व और कर्जों की वसूली में प्रदर्शन बेहतर रहा है। केवल पूंजीगत प्राप्ति कम रही है, संभवत: विनिवेश योजना के लचरपन के चलते। नवंबर तक सरकार का खर्च, बजट अनुमानों के बरक्स, 64.3 फीसद था। जबकि पिछले साल 59.8 फीसद और पिछले पांच सालों में औसतन 60.4 फीसद।
लिहाजा, सरकार को हुई प्राप्तियों और उसके खर्चों में अभी तक कोई विशेष बात नहीं दिखती। किसी भी विभाग का खर्च बजट-प्रावधान से ज्यादा रहने का अनुमान नहीं है, न ही किसी विभाग को अतिरिक्त धनराशि आबंटित हुई है। किसी अन्य उद््देश्य के लिए धनराशि आबंटन का कोई विशेष वादा भी नहीं किया गया है। इस बात के कोई संकेत नहीं हैं कि सरकार ने किसी ऋण की पूर्व अदायगी की हो, या कर्जों का बोझ घटाने के लिए बांडों से छुटकारे की समय-सीमा घटा दी हो। सब कुछ अमूमन बजट के मुताबिक ही चलता लग रहा है।
फायदा कहां गया
लिहाजा, साल के अंत में सवाल उठेगा कि जो अप्रत्याशित फायदा हुआ, वह कहां गया? मुझे शक है कि जवाब इस प्रकार होंगे:
1. ‘हम विनिवेश का लक्ष्य हासिल नहीं कर पाए।’ यह सरकार के लिए तारीफ की बात नहीं हो सकती, जो सार्वजनिक उद्योगों के निजीकरण की वकालत करती है!
2. ‘हम कर राजस्व का लक्ष्य पूरा करने में नाकाम रहे।’ अगर ऐसा होता है, बजट के बाद अतिरिक्त कर लगाए जाने के बावजूद, तो यह राजस्व विभाग का सिर ऊंचा करने वाली बात नहीं होगी!
3. ‘जीडीपी की वृद्धि दर में रह गई कसर ने राजकोषीय घाटे को बढ़ा दिया।’ अगर चेताए जाने के बावजूद सरकार वृद्धि दर में कमी होने का अनुमान नहीं लगा सकी (और कोई दूसरी योजना नहीं बना सकी), तो यह सरकार (और पार्टी) के लिए अच्छी बात नहीं होगी, जिसका दावा था कि अर्थव्यवस्था के सामने खड़ी सभी चुनौतियों का समाधान उसी के पास है!
जो अप्रत्याशित फायदा मिला उसका इस्तेमाल इन्हीं अंतरालों को पाटने के लिए किया गया। अर्थव्यवस्था के लिए उस लाभ की कल्पना कीजिए, जो 1,40,000 करोड़ रुपए के सार्वजनिक निवेश के चलते उसे मिला होता! यह भी कल्पना कीजिए कि अगर कुछ अहम कार्यक्रमों के लिए बजट में घटाए गए आबंटन बहाल कर दिए जाते, तो कल्याणकारी मदों में क्या फर्क पड़ता!
हमें अप्रत्याशित फायदा मिला। और वह हवा में उड़ गया।
तेल का फायदा कहां गया
छमाही आर्थिक विश्लेषण की कई बातें उलझन में डालने वाली हैं। मसलन, पैरा 1.4 कहता है ‘‘यह सही है कि बजट में जताए गए अनुमानों के बरक्स जीडीपी की दर में थोड़ी भी कमी राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 3.9 फीसद तक लाने के लक्ष्य को हासिल करना चुनौतीपूर्ण बना देगी।’’
Written by पी. चिदंबरम
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First published on: 09-01-2016 at 22:55 IST