आखिरकार दिल्ली नगर निगम के महापौर और उप महापौर का चुनाव संपन्न हो गया। जैसी कि उम्मीद थी, दोनों पदों पर आम आदमी पार्टी को विजय हासिल हुई। पिछले साल दिसंबर के पहले हफ्ते में नगर निगम चुनाव के नतीजे आए थे और उसमें आम आदमी पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिला था। इसलिए माना जा रहा था कि महापौर के पद पर भी उसी के प्रत्याशी की जीत होगी।
शुरू में भाजपा ने कह दिया था कि वह इन दोनों पदों पर अपने उम्मीदवार नहीं उतारेगी। मगर जब आम आदमी पार्टी ने अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी तो भाजपा ने भी अपने उम्मीदवार घोषित कर दिए। तभी से कयास लगाए जाने लगे थे कि जब सदन में भाजपा को किसी भी तरह से बहुमत हासिल नहीं है तो आखिर वह अचानक चुनाव मैदान में उतर क्यों रही है।
वहीं आम आदमी पार्टी इसमें कोई साजिश तलाशने लगी। उसे आशंका थी कि भाजपा कोई तोड़फोड़ करके उसी तरह अपना महापौर बनाने का प्रयास करेगी, जिस तरह चंडीगढ़ नगर निगम में उसने किया था! इसके चलते उसने भाजपा की हर गतिविधि पर प्रतिक्रिया देनी शुरू कर दी। नतीजा यह हुआ कि तीन बार टलने के बाद अब चौथी बार चुनाव हो भी पाए, तो सर्वोच्च न्यायालय की दखल के बाद।
दिल्ली में आम आदमी पार्टी और भाजपा की तनातनी किसी से छिपी नहीं है। जब से वर्तमान उपराज्यपाल ने कार्यभार संभाला है, तब से दोनों के रिश्ते लगातार तनावपूर्ण बने हुए हैं। उसका असर नगर निगम चुनाव पर भी साफ दिखा। उपराज्यपाल ने बिना सरकार की सलाह के दस सदस्यों का मनोनयन कर दिया। फिर कहा कि ये सदस्य भी महापौर चुनाव में मतदान कर सकते हैं।
इसे आम आदमी पार्टी ने संवैधानिक चुनौती दी और दोनों के बीच तल्ख बयानबाजी हुई, जिसे एक सरकार और उपराज्यपाल के बीच मर्यादित नहीं माना जाता। उपराज्यपाल अपने अधिकार क्षेत्र को लेकर अड़े रहे, तो आम आदमी पार्टी सरकार अपने अधिकारों को लेकर। इसी तनातनी में मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा और वहां से फैसला आम आदमी पार्टी के पक्ष में आया।
सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया कि मनोनीत सदस्य इस चुनाव में मतदान नहीं कर सकते और उप महापौर का चुनाव महापौर की निगरानी में ही होगा। अदालत ने इसे लेकर कड़ी टिप्पणी भी की थी कि देश की राजधानी के महापौर चुनाव में इस तरह की राजनीतिक धींगामुश्ती हैरान करने वाली है। इस फैसले के बाद स्वाभाविक ही आम आदमी पार्टी की आशंकाएं दूर हो गर्इं और उसे अपनी जीत सुनिश्चित नजर आने लगी।
करीब दस साल बाद दिल्ली में फिर से एक महिला महापौर बनी हैं। वे युवा हैं और उत्साही भी। अपनी जीत के बाद उन्होंने चुनाव के समय किए गए वादों को पूरा करने और दिल्ली के लिए बेहतर काम करने का संकल्प दोहराया। दिल्ली के महापौर को नगर निगम को लेकर कोई फैसला लेने के लिए स्वतंत्र माना जाता है।
ऐसे में नए महापौर के सामने चुनौती होगी कि उनकी पार्टी ने चुनाव के वक्त जिन कमियों पर भाजपा को घेरने का प्रयास किया था, उन्हें कैसे दूर करना है। कूड़े के पहाड़ हटाने की तरफ सबकी नजर रहेगी। फिर निगम के कर्मचारियों के वेतन आदि के मद में केंद्र से मिलने वाले धन को लेकर खींचतान चलती रहती है, उसमें कैसे संतुलन सधेगा, यह देखने की बात होगी। हालांकि उपराज्यपाल से भी अपेक्षा की जाती है कि वे निगम के कामकाज को सुचारु रूप से चलने का वातावरण बनाएंगे। राजनीतिक तल्खियां चुनावों तक ही रहनी चाहिए, उनका असर व्यवस्था पर नहीं पड़ना चाहिए।