एकता कानूनगो बक्षी
अगर आपको अपना पहला सृजन याद हो तो आप कुछ बातें गौर सकते हैं। हो सकता है वह किसी कागज पर बनाया आड़ी-तिरछी लकीरों वाला रेखाचित्र हो या फिर कागज को मोड़-तोड़ कर बनाई गई कोई नाव, हवाईजहाज, बत्तख या शेरनुमा कोई आकृति। या फिर हो सकता है अपने ही अल्हड़पन में छेड़ी गई कोई सुरीली तान या फिर सबको थिरका देने वाला कोई नृत्य रहा हो। कविता,गीत, कहानी, लेख, फोटोग्राफी के हुनर से खींचा कोई चित्र, अंकों को जोड़ने-घटाने की कोई अकल्पनीय तरकीब। इन दिनों तो कोडिंग के जरिए भी सृजन होता है डिजिटल ऐप बनाकर, जिससे कई लोगो का जीवन सहज और सुविधाजनक बनाया जा सकता है। और भी कई विविधताओं से भरा रहता है सृजन का हमारा कैनवास।
वैसे प्रकृति में भी कई माहिर कलाकार मौजूद हैं, जो हमें अपनी सृजनात्मकता से पल-पल विस्मित कर देते हैं। बीज में से चुपके से हुआ अंकुरण और उसका हर दिन नया पल्लवन, पौधा, पेड़, फूल, फल, आसमान को छूती उसकी शाखाएं और उन शाखाओं पर तिनका-तिनका जुटाती नन्ही-सी मुनिया का नन्हा-सा घोंसला। पेड़ पर लटका हुआ हवा में डोलता कुशल कारीगरी से बना बया का खूबसूरत घोंसला। कुशल गायक नर्तक पक्षी ‘मछरिया’ का मोहक प्रदर्शन। नन्ही-सी मधुमक्खी तो कई सृजनात्मक गतिविधियों की कारक बनती है, परागन की अद्भुत प्रक्रिया को अंजाम देकर। नया रचने के इनके अपने जोखिम भी होते हैं, जिसके लिए अपने आरामदायक सुरक्षित क्षेत्र से बाहर निकलने की हिम्मत करनी होती है। गुरुत्वाकर्षण के विपरीत तो कभी परंपरागत ढर्रे के विरुद्ध ऊंची उड़ान भी भरनी पड़ती है।
कुछ नया रचना हमेशा बेहद रोमांचक होता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि हर नई रचना के साथ कलाकार भी नया होता जाता है। वास्तविक सृजन रोमांचक यात्रा की तरह होता है, जिसका लक्ष्य केवल मुकाम तक पहुंचने भर तक सीमित नहीं होता। जब हम कुछ रचते हैं, तब हमारे अंदर बहुत कुछ बदल जाता है। हम पहले से अधिक कुशल हो जाते हैं और अपनी ही कृति से बेहतर रचने की सामर्थ्य रखने लगते हैं।
बेहतरी की अगली लड़ाई खुद हमें अपने आप से ही लड़नी होती है। लगातार प्रयत्नशील, सीखने-समझने को उत्सुक बने रहने से हम अपनी ही पुरानी कृति को और भी निखारने में समर्थ होते जाते हैं। सृजन हमें हर संदर्भ में पहले से अधिक परिपक्व बनाता है। असल में सृजन जितना बाहरी रूप में नवीन दिखाई देता है, उससे कहीं अधिक वह हमारे भीतर हमें नवीकृत कर रहा होता है। अगर इस यात्रा को सफलतापूर्वक, लगन और समर्पण के साथ पूरा किया जाए, तब कलाकार और उसकी रचना एक दूसरे के पूरक बन जाते हैं। कहना मुश्किल होता है कि कलाकार ने कृति की रचना की है या रचना ने कलाकार का रूपांतरण कर दिया है।
सृजन कभी-कभी मनुष्य की सहजता को निगल भी जाता है। यह तब होता है जब हम अपनी बनाई हुई चीज पर गुरूर करने लगते हैं। उसे लेकर एकाधिकार रखने लगते हैं, खुद को सर्वश्रेष्ठ मानने लगते हैं। यह समझना जरूरी होगा कि कोई भी नई रचना सृजन के बाद समाज की हो जाती है। नवसृजन एक परंपरा का हिस्सा होता है जो पिछले को ग्रहण कर आगे का रास्ता हमेशा बनाता रहता है। श्रेष्ठ कभी सर्वश्रेष्ठ नहीं होता। सर्वश्रेष्ठ की प्रतीक्षा कभी समाप्त नहीं होती।
हमें सोचना चाहिए कि हम समाज द्वारा निर्मित बस कुछ मापदंडों पर खरे उतरने को ही अपने जीवन का लक्ष्य क्यों मान लेते हैं। दूसरों को अपनी उपलब्धि, अपना वैभव दिखाने के लिए लालायित रहते हैं। ऐसी सोच धीरे-धीरे व्यक्ति को आत्मकेंद्रित बनाकर निगल लेती है। जबकि नवसृजन खुशियां बांटता है और नया सीखने, बेहतर रचने की ऊर्जा देता है। व्यक्तित्व के सकारात्मक पहलुओं को बढ़ावा देता है और जटिलताओं को समाप्त कर देता है।
सृजन की सही प्रक्रिया का असली सौंदर्य प्रकृति से सीखा जा सकता है जो हर पल कुछ नया रच रही है खामोशी के साथ। रात में दिखी अधखुली कली सुबह मुस्कुराता हुआ फूल बन कर हमसे बातें करने लगती है। दोपहर के बाद धीरे-धीरे फूल कुछ सिमटा हुआ-सा नजर आने लगता है, जैसे इंसान के चेहरे पर भी उम्र की सलवटे दिखने लगती हैं। फूल अपने बदले हुए रूप को सहजता के साथ स्वीकार करता है। पौधा भी अपनी सुंदर कृति को सहजता से विदा कर देता है शाम ढले। ऐसी कई सृजन की प्रक्रियाएं लगातार चलती रहती है प्रकृति में।
यही कारण है कि प्रकृति हमेशा नई बनी रहती है। सुंदर होती रहती है। अपने काम में लगी हुई है समर्पित भाव से। फर्क नहीं पड़ता उसे कि कितने लोगों को पता चला है उसकी बेमिसाल सृजनधर्मिता का। प्रकृति न किसी तरह के प्रचार-प्रसार में लगी हुई है, न ही अपनी उपलब्धि का जश्न मनाने के लिए अलग से कोई दिन निर्धारित कर रखा है। लगता है कि जैसे प्रकृति ने सृजन का कोई निरंतर उत्सव जारी रखने का संकल्प लिया हो और सृजन की लंबी यात्रा पर निकल पड़ी हो।