चुनावों में अक्सर राजनीतिक दलों के शीर्ष नेता दो या अधिक सीटों पर नामांकन करते देखे जाते हैं। ऐसा वे सुरक्षा की दृष्टि से करते हैं कि किसी एक सीट से जरूर जीत जाएंगे। ऐसा करना गैरकानूनी नहीं है, क्योंकि किसी को भी एक से अधिक सीटों से चुनाव लड़ने का प्रावधान है। मगर कई बार ऐसा होता है कि कुछ नेता सभी सीटों से चुनाव जीत जाते हैं। कानून है कि कोई भी नेता एक ही क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर सकता है। इसलिए उन्हें एक के अलावा बाकी सीटों से इस्तीफा देना पड़ता है। ऐसे में वहां दुबारा चुनाव कराया जाता है।

इस तरह न सिर्फ प्रत्याशियों और पार्टियों को दुबारा उसी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है, प्रचार-प्रसार पर धन खर्च करना पड़ता है, बल्कि निर्वाचन आयोग का खर्च भी बढ़ जाता है। उन इलाकों के प्रशासन को भी अपने नियमित कामकाज छोड़ कर फिर से चुनाव कराने में जुटना पड़ता है। इसलिए निर्वाचन आयोग ने विधि मंत्रालय से एक से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने वाले कानून को खत्म करने की सिफारिश की है। उसने यह भी सुझाव दिया है कि अगर इस कानून में बदलाव संभव नहीं है तो दो जगहों से चुनाव लड़ने वालों पर भारी जुर्माना लगाया जाए और उपचुनाव का सारा खर्च उनसे वसूला जाए।

एक से अधिक सीटों से चुनाव लड़ने का प्रावधान 1996 में जन प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन करके किया गया था। जाहिर है, इस कानून के पीछे मंशा शीर्ष नेताओं को चुनाव जीतने की सुरक्षा देने की रही होगी। यह कानून बनने के बाद लगभग परिपाटी-सी बन गई है कि हर पार्टी अपने बड़े नेता को, जिन्हें प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर पेश किया जाता है, एक से अधिक सीटों से चुनाव लड़ाती है।

अक्सर कुछ नेता दोनों या तीनों सीटों पर चुनाव जीत जाते हैं, फिर एक ही सीट का प्रतिनिधित्व करते हैं। बाकी सीटों पर उपचुनाव कराए जाते हैं। निर्वाचन आयोग ने सिफारिश की है कि जो जीता हुआ नेता अपनी सीट छोड़ता है और वहां दुबारा चुनाव कराया जाता है, उससे पूरे चुनाव का खर्च वसूल किया जाए। उसने विधानसभा सीट के लिए यह रकम पांच लाख रुपए और लोकसभा के लिए दस लाख रुपए रखने की सिफारिश की है।

निर्वाचन आयोग की सिफारिश उचित है। इसकी मांग करीब अठारह साल पहले उठी थी। अब निर्वाचन आयोग ने विधि मंत्रालय को इस पर अपनी सिफारिश भेजी है। मगर लगता नहीं कि सरकार इस प्रावधान को समाप्त करने की दिशा में कोई कदम बढ़ाएगी। अगर इसे लेकर गंभीर होती, तो कुछ दिनों पहले ही जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन किया गया, तभी इस पर भी विचार किया गया होता। दरअसल, ऐसे किसी भी कानून को बदलने में सरकारों की रुचि नहीं होती, जिससे उनके सामने भी संकट खड़ा हो सकता है।

जहां तक जुर्माने की बात है, अगर वह लागू होता है तो इसकी रकम इतनी कम है कि कोई भी नेता भरने को सहर्ष तैयार होगा। आज किसी भी चुनाव में पांच या दस लाख रुपए बहुत मामूली रकम है। मगर सवाल मतदाता के विश्वास का है। उसने जिसे चुना, वही उसे छोड़ कर चल दे, तो वह ठगा महसूस करता है। मतदान कोई उपकरण तो नहीं कि उसका जब चाहे इस्तेमाल किया और फिर छोड़ दिया। किसी नेता में अगर अपने चुनाव जीतने का भरोसा या हारने की हिम्मत नहीं, तो उसे चुनाव लड़ना ही क्यों चाहिए।