अमित शाह का भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष पद पर दोबारा काबिज होना वैसे ही है, जैसे ‘डॉन’ या ‘कृष’ जैसी हिट फिल्म का भाग-दो बनाना। जिसकी कामयाबी पर नायक या नायिका की साख टिकी रहती है। अब देश की जनता मतदान केंद्र से ‘शाह द्वितीय’ की सफलता या असफलता की मोहर लगाएगी। इस लिहाज से यह तय है कि शाह का अगला तीन साल का कार्यकाल उनके लिए अग्निपरीक्षा है।
अपने माथे पर गुजरात दंगों में शमूलियत का दाग और कट्टर छवि से संवरे शाह का राष्ट्रीय पटल पर उदय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रतिछाया के रूप में ही हुआ। खुद देश की सत्ता संभालने के बाद मोदी ने शाह को पार्टी में सत्तासीन करवा कर सरकार और ‘परिवार’ पर अपना एकछत्र साम्राज्य स्थापित किया।

लेकिन सत्ता का एक साल पूरा होने के साथ ही ‘तानाशाह हुकूमत’ की चूलें हिलती दिखाई दीं। दिल्ली के चुनावी नतीजों को भांप कर उसका ठीकरा तेजतर्रार पुलिस अधिकारी किरण बेदी के सिर पर फोड़कर जांबाजों ने अपनी बहादुरी का दम भरना बदस्तूर जारी रखा। पर तब शायद यह अनुमान न था कि बिहार में जल्दी ही इसका भी पर्दाफाश हो जाएगा। बिहार में मुख्यमंत्री पद के दावेदारों ने चुनाव बुझे-बुझे लड़ा। खुद को बदकिस्मत समझा कि पार्टी के कर्णधारों ने उन पर जीत के लिए विश्वास नहीं किया, लेकिन नतीजे आते ही वे इस बात से फूले नहीं समाए कि बदकिस्मती की आड़ में किस्मत ही उन पर मुस्कुरा रही थी।

चुनाव की कमान खुद मोदी और शाह ने अपने हाथ में रखी और नतीजों ने ‘बाहरी’ को बिहार से बाहर ही रखा। देश भर में पार्टी के हाथों से जनसमर्थन खिसकता हुआ दिखाई दिया। प्रबुद्ध वर्ग ने असहिष्णुता के नाम पर सरकार को घेर लिया और विपक्ष ने जीएसटी समेत लगभग सभी महत्त्वाकांक्षी प्रस्तावों से सहमति के बावजूद उनका रास्ता रोके रखा। इन सब पर आग में घी का सा काम किया मुखर रहे मोदी के मौन ने। और दादरी से लेकर हैदराबाद तक, हर बार उनका मौन बहुत देर से टूटा। और हर बार यह देर इतनी हो गई कि उनके भावुक बयानों पर जनता भावनाओं में बहने के बजाए सतर्क हो उठती है। और सतर्क जनता सत्ता के लिए कितनी बड़ी चुनौती होती है मोदी इस बात से तो बेखबर नहीं ही होंगे इसलिए यह उनके चेत जाने का भी समय है।

संघर्ष से सत्ता काबिज करने के बाद मोदी ने पहली बार मुखर जन विरोध का स्वाद तब चखा, जब लखनऊ विश्वविद्यालय में कुछ छात्रों ने ‘मोदी वापस जाओ’ का नारा लगा दिया और उन चुनिंदा आवाजों की गूंज को सरकार समारोह के दायरे से बाहर आने में रोकने में नाकाम रही। हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र भी विरोध पर ही डटे रहे। जीत का मधुमास बीत चुका है और प्रतिरोध को जहर बताना जनतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ जाएगा, इसलिए चुनौती की घड़ी आन खड़ी है।

इस माहौल में सब लोग सांस रोके यह प्रतीक्षा कर रहे थे कि पार्टी की कमान अब किसके हाथ रहेगी। लेकिन शाह तो अपने दावे पर डटे रहे और बाहर चाहे विरोध की बुनियाद रख दी गई हो पार्टी के अंदर कब्जा बदस्तूर रहा। नतीजतन फिर से शाह। पार्टी के अंदर से विरोध का वयोवृद्ध धीमा स्वर उनकी ताजपोशी में आड़े नहीं आया। वरिष्ठ नेताओें ने उनके चुनाव से गैरहाजिर रहकर अपना विरोध दर्ज कराया, तो दूसरे दावेदारोें ने अनमने मन से उनसे हाथ मिलाते हुए फोटो खिंचवाई।

लेकिन सच यही है कि पार्टी के अंदर विरोध की सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है। लिहाजा शाह का यह कार्यकाल भी उनके सिर पर कांटों के ताज के ही समान है। असम, पुडुचेरी, पश्चिम बंगाल और पंजाब दहशत के काले सायों की तरह उनकी चमक पर असर डालने के लिए इंतजार कर रहे हैं।
पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के किले को भेदना आसान नहीं और असम में पार्टी अभी जड़ें जमाने की स्थिति में भी नहीं है। पुडुचेरी में तो कोई मतलब ही नहीं। पंजाब में ही आस थी, लेकिन वहां भी आम आदमी पार्टी के बढ़ते असर के कारण जीत का विश्वास नहीं। अपने दूसरे कार्यकाल में अकाली दल ने तेजी से अपने प्रभाव को खोया है। नशे की लत ने अकालियोें के राजनीतिक आधार को झकझोर कर रख दिया है। पार्टी अपना कुनबा संभालने में ही नाकाम रही है। मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के भतीजे मनप्रीत बादल ने पहले अपनी पार्टी बनाई, फिर उसे कांग्रेस में समाहित कर दिया।

लोकसभा चुनाव में जहां दिल्ली समेत समूचे देश ने आम आदमी पार्टी को नकार दिया, वहीं पंजाब ने उसे चार सांसदोें की सौगात देकर लोकसभा में पार्टी की हाजिरी लगवाई। अब पार्टी प्रमुख अरविंद केजरीवाल राज्य की जनता को ‘सत श्री अकाल’ बुलाने माघी मेले में पहुंच गए। खास बात यह है कि माघी के मंच पर जहां भाजपा जैसी पार्टियां भी मंच लगाने की स्थिति में नहीं होतीं, वहां केजरीवाल तालियां बटोर लाए। आलम यह है कि अब कांग्रेस सांसद व पंजाब प्रमुख कैप्टन अमरिंदर सिंह ने यहां तक कह दिया कि उनका मुकाबला अकाली दल से न होकर आम आदमी पार्टी से है। ऐसे में शाह को यह तय करना होगा कि वे अपनी राजनीतिक बिसात इन प्रदेशोें में ऐसे बिछाएं कि उनका ‘वजीर’ मात न खाए। लेकिन यह इतना भी आसान नहीं दिखता।

शाह और मोदी का सिंहासन सुरक्षित रखने के लिए जरूरी है कि अगले साल केंद्र के ताज पर उत्तर प्रदेश का कोहिनूर सजे। लेकिन अब यह लोकसभा चुनाव जितना आसान नहीं है। पहली बात तो यह है कि अभी राष्टÑीय स्तर पर कांग्रेस के खिलाफ माहौल नहीं है। उस समय मोदी की जीत से ज्यादा तयशुदा कांग्रेस की हार थी। कांग्रेस के खिलाफ उठी लहर मोदी के पक्ष में ‘सुनामी’ की तरह उठी। अब विपक्ष भी वोटों के ध्रुवीकरण के खेल को समझ चुका है। वह मंदिर और हिंदुत्व के बरक्स असहिष्णुता पर गोलबंदी की ताकत दिखा ही चुका है। अखिलेश यादव भी मेट्रो, पर्यावरण और विकास की बातें कह कर शाह को संदेश दे रहे हैं कि हमें हल्के में न लेना। ‘अच्छे दिनों’ के विज्ञापन की तरह ‘उत्तम प्रदेश’ भी अपनी बाजार पकड़ रहा है। और एक बढ़ती हुई चुनौती तो मायावती हैं ही।

उत्तर प्रदेश को लेकर शाह सक्रिय भी हैं। उन्होंने संघ के स्वयंसेवक और अपने करीबी सुनील बंसल को उत्तर प्रदेश में संगठन का महामंत्री बनाया है। इसके साथ ही बसपा के वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए लिए भाजपा ने आंबेडकर के महिमामंडन का अभियान छेड़ दिया है। यूं ही नहीं था कि प्रधानमंत्री ने लखनऊ में डॉक्टर भीमराव आंबेडकर महासभा के दफ्तर जाकर बाबा साहेब के अस्थिकलश पर फूल चढ़ा आए। बसपा के पूर्व राज्यसभा सदस्य जुगल किशोर को पार्टी में शामिल किया। अवध में संघ ने स्वयंसेवकों से दलितों की सेवा करने की अपील की।
लेकिन शाह को यह भी समझना होगा कि अखिल भारतीय स्तर पर उग्र हिंदुत्वाद का झंडा उठाकर वे उत्तर प्रदेश में दलितों का वोट हासिल नहीं कर पाएंगे। अगर हैदराबाद में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का रास्ता साफ करने के लिए जय भीम का नारा लगाने वाले छात्रों को प्रताड़ित किया जाएगा तो फिर मोदी को उत्तर प्रदेश में ‘वापस जाओ’ का नारा सुनना ही होगा।

यह तो तय है कि आने वाले समय में भारत के अहम हिस्सों पर भाजपा राज लाने के लिए शाह मंदिर मुद्दे पर मत्था टेकेंगे। वे उत्तर प्रदेश में मंदिर के तोरण द्वार से ही प्रवेश करना चाहते हैं जिसके लिए पत्थर तराशने का काम शुरू हो गया है। वैसे भी इस बार कालेधन का ‘जुमला’ तो है नहीं। हां, केंद्र सरकार की बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ, कुशल भारत, कौशल भारत, मेक इन इंडिया योजनाओं को वे ‘घर-घर मोदी, हर-हर मोदी’ की जगह कैसे ला सकते हैं यह देखना होगा।

शाह का सबसे मजबूत पक्ष उनकी संघ में स्वीकार्यता है। पिछले लोकसभा चुनावों के साथ ही अन्य चुनावों में संघ के स्वयंसेवक शाह का एजंडा पूरा करने में दमखम से जुटे रहे। शाह ने हमेशा संघ की भाषा बोली इसलिए संघ कार्यकर्ता भी उनके लिए जमीन तैयार करने में जुटे रहे। इसके साथ ही शाह को पूंजीवादी राजनीतिक मॉडल की बेहतर समझ है। और सबसे बड़ी बात यह कि मोदी पहचान और धु्रवीकरण की राजनीति की बदौलत ‘अच्छे दिन’ देख चुके हैं और मानते हैं कि उनकी जीत की जमीन शाह ही तैयार कर सकते थे। मोदी और शाह गुजरात से निकली पहचान की राजनीति के मॉडल को लेकर ही आगे बढ़ेंगे। हिंदुत्व और प्रतीकों की राजनीति और मजबूती पकड़ेगी ही। चाहे मंदिर हो या मां ये दोनों जानते हैं कि भीड़ की भावना को अपने पक्ष में कैसे किया जाता है। और देश के ‘साहेब’ जानते हैं कि शाह ही हैं जो उनकी राजनीति को कामयाब करते रहे हैं और आगे भी करेंगे।

लेकिन सनद रहे कि कामयाबी की महत्त्वांकाक्षा बड़ी निष्ठुर होती है। ठीक वैसे ही जैसे इसका दंभ। यह मोदी और शाह का लोकसभा चुनाव के कारण पनपा राजनीतिक दंभ ही था जिसके कारण सभी वरिष्ठजनोें को मार्गदर्शक चैंबर में बंद कर दिया और पार्टी में संदेश दिया कि जो मोदी और शाह के साथ नहीं है, वह भाजपा के खिलाफ है। ‘टीम इंडिया’ जैसे लोकप्रिय शब्द देने वाले ये दोनों नेता देश को सीईओ की तरह ही चलाने की कोशिश कर रहे हैं जिसमें लोकतांत्रिक तौर-तरीकों के लिए जगह सिकुड़ती जा रही है, पार्टी में भी और देश में भी।

शाह का सबसे सकारात्मक पहलू उनकी ऊर्जा है। आज की राजनीति में बाजार की अपनी भूमिका है और शाह को इस बाजार की खूब समझ है। वे जिस ऊर्जा के साथ पार्टी के लिए काम करते हैं, वह उनकी एक अलग छवि तैयार करता है। वे मीडिया को प्रत्यक्ष भाव न देना अपनी खासियत मानते हैं। भाजपा चाहे मीडिया को दिए विज्ञापनों पर कितना ही खर्च कर ले लेकिन वे खुद मीडिया के सामने एक अहंकारी भाव के साथ आते हैं जिसके आम लोग मुरीद हो जाते हैं। शाह यह बखूबी जानते हैं कि आम लोगों के बीच अपनी खास छवि कैसे बनाई जाती है।
लेकिन शाह को यह सच स्वीकारना होगा कि भारत में राजनीति को गंदा करार देता हुआ हर व्यक्ति एक खास तरह की राजनीति करते हुए आगे बढ़ रहा है। घर के अंदर सामंत की तरह व्यवहार करने वाला व्यक्ति सड़क पर आते ही अपने लिए जनतांत्रिक तौरतरीकों और हक की आवाज लगाता है और यही जनतांत्रिक चेतना इस देश की मजबूती का कारण भी है। और शाह की आलोचना सबसे ज्यादा इस बात को लेकर होती है कि उनके काम करने का तरीका तानाशाही है।

यहां तक कि भाजपा के लोग भी उनसे एक तरह की दूरी महसूस करते हैं। शाह अपनी ‘टीम’ बनाने के लिए जाने जाते हैं जिससे कि पार्टी का आम कार्यकर्ता खुद को हाशिए पर खड़ा महसूस करता है। उत्तर प्रदेश और बंगाल जैसे संवेदनशील क्षेत्र जहां राजनीतिक चेतना काफी मजबूत रही है का दिल जीतने के लिए शाह को अपना रवैया बदलना ही होगा।

वैसी भी मोदी की प्रतिछाया के रूप में शाह ने अपनी खूब चला ली। प्रधानमंत्री के गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए उन्हें वफादारी का इनाम भी भरपूर मिल चुका। उनके ताज को दो बड़े राज्योें के चुनाव हार जाने के बाद भी बनाए रखकर उसका सिला भी लगभग चुका दिया गया है। लेकिन आने वाले दो साल में पार्टी और संगठन शायद ही इतनी सहिष्णुता फिर से दिखा सके। जाहिर है कि उन्हें अपने इसी कार्यकाल में कुछ करके दिखाना होगा, वरना चढ़ते सूरज का अस्त होना महज वक्त की ही बात है और शाह का सूर्य तो इस समय अपनी पराकाष्ठा से ढलान की ओर पहले ही अग्रसर दिखाई दे रहा है।