कावेरी जल बंटवारे को लेकर वर्षों से चला आ रहा विवाद अब थम जाना चाहिए। उच्चतम न्यायालय ने कावेरी जल प्रबंधन प्राधिकरण एवं कावेरी जल नियमन समिति के उस आदेश में दखल देने से मना कर दिया है, जिसमें कर्नाटक सरकार को तमिलनाडु के लिए प्रति दिन पांच हजार घनमीटर पानी छोड़ने की बात कही गई है।

तमिलनाडु ने सूखे का हवाला देते हुए बहत्तर सौ घनमीटर पानी मांगा था। समिति ने उसकी मांग को जायज तो माना, पर दूसरे राज्यों का भी खयाल रखते हुए पानी की मात्रा घटा कर पांच हजार घनमीटर कर दी। बाद में कावेरी जल प्रबंधन प्राधिकरण ने भी यही फैसला दिया। तमिलनाडु इस फैसले पर राजी है, लेकिन कर्नाटक में इसके खिलाफ असंतोष पैदा हो गया है। राज्यभर में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए हैं।

मुख्यमंत्री सिद्धरमैया ने प्रधानमंत्री से हस्तक्षेप की मांग की है। कर्नाटक सरकार ने जिस प्रकार यह मुद्दा फिर केंद्र के समक्ष उठाया और अपने नागरिकों की नाराजगी का हवाला देकर प्रस्तावित पानी देने में असमर्थता जताई है, उससे यह विवाद खत्म होता नहीं दिख रहा। दशकों से यही हो रहा है।

दक्षिण की गंगा कही जाने वाली कावेरी के जल को चार राज्यों- कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल और पुदुच्चेरी के बीच बंटवारे को लेकर समय-समय पर बैठकें हुर्हं, समितियां बनीं, उच्चतम न्यायालय द्वारा आदेश पारित हुए, पर विवादों का अंत नहीं हो पाया। तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच कावेरी जल विवाद आजादी से पहले से चला आ रहा है।

इसे लेकर केंद्र सरकार ने 1990 में कावेरी नदी जल विवाद न्यायाधिकरण का गठन किया था। इस न्यायाधिकरण ने जैसे ही तमिलनाडु को पानी देने संबंधी फैसला सुनाया तो दंगे भड़क उठे, क्योंकि कर्नाटक ने इस निर्णय को अस्वीकार कर सर्वोच्च न्यायालय में इसे खारिज करने की मांग उठा दी। दोनों ही राज्यों के कई जिले सिंचाई के लिए कावेरी नदी के पानी पर निर्भर हैं। बंगलुरु शहर को पीने का पानी इसी से मिलता है।

इसलिए यह मुद्दा दोनों ही राज्यों के लिए संवेदनशील बना हुआ है। वैसे, संघीय व्यवस्था वाले भारत में दो या अधिक राज्यों से होकर बहने वाली नदियों के पानी के बंटवारे को लेकर विवाद कोई नई बात नहीं है। जल संकट बड़ी समस्या है, ऐसे में हर राज्य चाहता है कि उसे अधिक से अधिक पानी मिले। यही वजह है कि कावेरी के अलावा कृष्णा, गोदावरी, नर्मदा, रावी, ब्यास और यमुना जैसी नदियों के पानी को लेकर विभिन्न राज्यों के बीच खींचतान अक्सर सुर्खियों में रहती है।

महत्त्वाकांक्षी नदी जोड़ो परियोजना में इन विवादों से छुटकारा दिलाने की संभावना देखी गई थी, लेकिन यह परियोजना भी पिछले दो दशक में अपेक्षित गति नहीं पकड़ पाई है। पानी को लेकर हिंसा, विरोध प्रदर्शन या राजनीतिक शह-मात से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। समस्या का समाधान एक-दूसरे से सहयोग और समन्वय में ही निहित है। ऐसे में संबंधित राज्यों को क्षेत्रीय स्वार्थों को हर हाल में त्यागना होगा।

एक-दूसरे की जरूरत को ध्यान में रखते हुए स्थायी और व्यावहारिक समाधान तलाशना होगा। उच्चतम न्यायालय जब यह कह रहा है कि कावेरी जल प्रबंधन प्राधिकरण एवं कावेरी जल नियमन समिति जैसी विशेषज्ञ संस्थाओं ने सूखे और कम बारिश जैसे सभी प्रासंगिक पहलुओं पर विचार करने के बाद ही आदेश पारित किया है और दोनों प्राधिकरणों ने जिन तथ्यों पर गौर किया है, उन्हें अप्रासंगिक या असंगत कतई नहीं कहा जा सकता, तो फिर कर्नाटक को इस फैसले पर अमल से गुरेज क्यों करना चाहिए।