तमाम कानूनी जद्दोजहद के बाद आखिरकार याकूब मेमन को फांसी दे दी गई। उसे 1993 के मुंबई बम विस्फोटों का दोषी पाया गया था। टाडा अदालत ने पहले ही उसका दोष सिद्ध कर दिया था। फिर सर्वोच्च न्यायालय ने उसकी फांसी की सजा बरकरार रखी। स्वाभाविक ही न सिर्फ याकूब ने अपने स्तर से, बल्कि मौत की सजा का विरोध करने वाले अनेक लोगों ने इसे रोकने का प्रयास किया।

राष्ट्रपति और महाराष्ट्र के राज्यपाल के समक्ष दया याचिकाएं दाखिल की गर्इं, सर्वोच्च न्यायालय से अपने फैसले पर पुनर्विचार की गुहार लगाई गई। विभिन्न क्षेत्रों के बुद्धिजीवियों ने याकूब को फांसी न देने की सामूहिक अपील की। याकूब ने भी अपने बचाव में सभी संभव कानूनी प्रयास किए। उसके पक्ष में अनेक काबिल वकील खड़े हुए। उसकी हर अपील पर गंभीरता से विचार किया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने बार-बार कानूनी पहलुओं पर विचार किया। उसकी फांसी के एक दिन पहले आधी रात तक विचार-विमर्श हुआ। बचाव पक्ष के वकीलों ने दस्तक दी तो सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा रात के ढाई बजे भी खुला। मगर तमाम दलीलें, मानवीय पुकार और विवेक की दुहाई बेकार गर्इं।

याकूब मेमन की दया याचिका पर सहानुभूति पूर्वक विचार की इसलिए भी उम्मीद की जा रही थी कि उसने मुंबई बम धमाकों से संबंधित जांच में अधिकारियों को कई अहम सूचनाएं मुहैया कराई थीं। वह सुधरना चाहता था। इसी के चलते उसने समर्पण का निर्णय किया था। इसके बदले छानबीन कर रहे अधिकारियों ने उससे कुछ वादा भी किया था। अधिकारियों ने स्वीकार किया कि याकूब की मदद के बिना मामले की तह तक पहुंचना आसान नहीं था। फिर यह भी कि याकूब मुख्य दोषी नहीं था। मगर अदालत तथ्यों के आधार पर मामले की गंभीरता को परखती और अंतिम निर्णय तक पहुंचती है, और इस मामले में याकूब का पक्ष कमजोर साबित हुआ।

ऐसे में सरकार की तरफ से विवेकपूर्ण पहल की अपेक्षा थी। मगर उसने ऐसा नहीं किया। राष्ट्रपति ने गृहमंत्रालय और महाधिवक्ता से सलाह की तो वहां से उन्हें फांसी के पक्ष में दलीलें मिलीं। यहां तक कि सरकार की तरफ से याकूब का बचाव कर रहे लोगों की मानसिक स्थिति पर तरस खाने वाला बयान आ गया। इसी का नतीजा था कि याकूब के एक पक्षकार की खीज तीखी होकर बाहर निकली।

अब स्वाभाविक ही एक बार फिर इस बहस ने सिर उठाया है कि याकूब की फांसी से आखिर व्यवस्था को क्या हासिल होगा। इससे क्या दहशतगर्दी पर लगाम लगाने में कामयाबी मिल सकती है? नहीं। पहले भी कई मौकों पर जघन्य अपराधों के लिए मौत की सजा दी जा चुकी है। अफजल गुरु की फांसी हाल की घटना है। उस समय भी जोरदार ढंग से कहा गया था कि इस तरह आतंकवाद को समाप्त करने में कामयाबी नहीं मिल सकती।

फिर आतंकवादी घटना में शामिल कोई व्यक्ति अगर सुधरना चाहता था तो उसे यह मौका क्यों नहीं दिया गया। लंबे समय से मांग होती रही है कि फांसी की सजा का प्रावधान समाप्त होना चाहिए, लेकिन इस पर राजनीतिक दृढ़ता कभी नहीं दिखाई गई। दुनिया के बहुत सारे देश अपने यहां मौत की सजा समाप्त कर चुके हैं। भारत पर भी ऐसा करने का अंतरराष्ट्रीय दबाव है। पर लोकतांत्रिक और शांतिप्रिय देश होने के बावजूद यहां मौत की सजा का प्रावधान बरकरार है। गंभीरता से विचार करने की जरूरत है कि हिंसा से हिंसा को रोकने का रास्ता नहीं निकल सकता।

 

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