आमतौर पर कोई महिला अगर अपनी पसंद के खेल के मैदान में पहुंच पाती है तो इसके लिए उसे समाज में मौजूद पूर्वाग्रहों, भेदभाव और कई स्तरों पर मौजूद चुनौतियों की दीवार को पार करना पड़ता है। खेलों को महिला सशक्तीकरण का एक बेहतर जरिया भी माना जाता है। लेकिन इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि अपनी प्रतिभा से समाज और देश के लिए उपलब्धियां हासिल करने हौसला रखने वाली महिलाओं को भी खेलों के आयोजन से जुड़े तंत्र में कई बार लैंगिक भेदभाव, हिंसा, शोषण और प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है।

मुश्किल यह है कि इस तरह के आपराधिक बर्ताव का शिकार होने वाली महिलाओं के सामने कोई ऐसा संवेदनशील तंत्र नहीं होता, जहां वे अपनी शिकायत दर्ज करा सकें और उस पर उतनी ही सजगता से कार्रवाई भी हो। यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट की न्यायाधीश न्यायमूर्ति हिमा कोहली ने खेल के क्षेत्र में लैंगिक दुर्व्यवहार से निपटने के लिए एक मजबूत तंत्र की जरूरत पर जोर दिया है। उन्होंने खेलों के जरिए महिला सशक्तीकरण को बढ़ावा देने के लिए नीतिगत सुधार की बात करते हुए कहा कि खेल के क्षेत्र में लैंगिक हिंसा, भेदभाव और प्रताड़ना से निपटने के लिए तंत्र स्थापित करने के मकसद से नीतियां बनाई जानी चाहिए।

अपने सपनों को नई ऊंचाई देने का हौसला लेकर कोई महिला किसी खेल में राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित कई चरणों को पार करने के बाद ही किसी खेल प्रतियोगिता में अपनी जगह बना पाती है। मगर अफसोसनाक है कि खेलों की दुनिया के भीतर मौजूद विषमता, महिलाओं के प्रतिनिधित्व का अभाव और तंत्र में असंतुलन की वजह से उनके साथ दुर्व्यवहार होता है और इसका नकारात्मक असर उनके समूचे व्यक्तित्व पर पड़ता है।

सवाल है कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलों के आयोजन से जुड़े तंत्र में अब तक ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं बनाई जा सकी है, जो महिला खिलाड़ियों के खिलाफ भेदभाव, शोषण और प्रताड़ना जैसे मसलों पर उनके लिए संवेदनशील रुख अख्तियार करे, ताकि किसी भी स्तर पर खेल में उनकी क्षमता और हौसले पर नकारात्मक प्रभाव न पड़े! पिछले कुछ महीनों में राष्ट्रीय पर सुर्खियों में आए महिला पहलवानों के उत्पीड़न और शोषण के मुद्दे ने यही साबित किया कि खेलों की दुनिया में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी जगह बनाने और पदक जीत कर देश का नाम रोशन करने वाली खिलाड़ियों को भी ऐसे शर्मनाक हालात से गुजरना पड़ता है।

सवाल है कि खेल संगठनों के तंत्र में बैठे किसी व्यक्ति के भीतर ऐसा सुरक्षाबोध कहां से आता है कि वह महिला खिलाड़ी के साथ मनमानी हरकत करेगा और उस पर कोई आंच नहीं आएगी? जाहिर है, इस तंत्र में अब तक महिलाओं की शिकायतों पर संवेदनशीलता से विचार करने और ठोस कार्रवाई करने के लिए ऐसा कोई अनुकूल तंत्र नहीं रहा है।

जो व्यवस्था है भी, उसमें शिकायत के बाद अक्सर ऐसी जटिल परिस्थितियां पैदा कर दी जाती होंगी, जिसमें किसी पीड़ित महिला खिलाड़ी को या तो पीछे हट जाना पड़ता है या फिर प्रत्यक्ष-परोक्ष दबाव की वजह उनके सामने समझौता करने के अलावा कोई चारा नहीं रहता। सच यह है कि अपनी क्षमताओं और हौसले के जरिए कई महिलाएं अलग-अलग खेलों की दुनिया में अपनी जगह बनाने की कोशिश तो करती हैं, मगर वहां भी उन्हें कई बार समाज में महिलाओं को लेकर मौजूद धारणाओं, दुराग्रहों, दुर्व्यवहार आदि का शिकार होना पड़ जाता है। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि महिलाओं को जब तक किसी भी प्रकार के भेदभाव, शोषण और प्रताड़ना से सुरक्षा और सम्मान का हक नहीं मिलेगा, तब तक खेलों के समूचे माहौल को समावेशी नहीं बनाया जा सकता।