महिलाओं की सुरक्षा को लेकर उठने वाले सवालों पर सरकारें आमतौर पर भविष्य में सब कुछ ठीक कर देने के आश्वासनों की औपचारिकता पूरी करने में कोई कमी नहीं करतीं, लेकिन जब जमीनी कार्रवाई के स्तर पर कुछ ठोस हासिल की बात होती है, तब सच्चाई सामने आ जाती है। हालत यह है कि महिलाओं की सुरक्षा को लेकर चलाए जाने वाले अभियानों में या तो दृष्टि की कमी साफ दिखती है या फिर हद दर्जे की लापरवाही बरती जाती है।

कई बार महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों के लिए प्रकारांतर से उन्हें ही जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। गुजरात के अहमदाबाद से आई यह खबर हैरान करती है कि यातायात पुलिस की ओर से सुरक्षा अभियान के तहत जागरूकता फैलाने के लिए जिस तरह के संदेशों वाले पोस्टर लगाए गए, उससे यही पता चलता है कि या तो ऐसे आयोजन संचालित करने वाले के पास न्यूनतम संवेदना और समझ नहीं है या फिर वे एक आपराधिक मानसिकता का बचाव कर रहे हैं।

मामले के तूल पकड़ने के बाद शुरू हुई कार्रवाई

गौरतलब है कि अहमदाबाद में यातायात पुलिस की ओर से सुरक्षा अभियान के लिए कथित तौर पर जो पोस्टर लगाए गए थे, उनमें बलात्कार या सामूहिक बलात्कार से बचने के लिए महिलाओं को ‘देर रात पार्टी में’ या ‘अपने दोस्त के साथ अंधेरे और सुनसान इलाके में’ न जाने की सलाह दी गई थी। यह महिलाओं के खिलाफ होने वाले जघन्य अपराधों के प्रति एक बेहद जड़, संकीर्ण और प्रतिगामी दृष्टिकोण है। जाहिर है, इस मामले ने तूल पकड़ना शुरू किया, तब अहमदाबाद यातायात पुलिस ने सफाई दी कि ऐसे संदेशों वाले पोस्टरों में उनका हाथ नहीं है।

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सवाल है कि अगर यातायात पुलिस की जानकारी या सहमति के बिना किसी कथित गैरसरकारी संगठन ने ऐसे पोस्टर लगाए तो सार्वजनिक स्थानों पर लगाए जाने से पहले किसी जिम्मेदार अधिकारी ने इसकी जांच क्यों नहीं की? सामाजिक मनोविज्ञान की हालत यह है कि महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर काम करने वाले किसी गैरसरकारी संगठन की भी दृष्टि इस कदर संकीर्णता और जड़ता से ग्रस्त है। अफसोस की बात है कि जो संगठन और सरकारी महकमे महिलाओं की सुरक्षा के लिए काम करने का दावा करते हैं, उनके भीतर इतनी भी बुनियादी संवेदनशीलता और समझ नहीं है कि वे किसी अपराध के लिए पीड़ित को ही कठघरे में खड़ा न करें।