विमानन कंपनियों के विस्तार और उड़ान योजना के लागू होने से उम्मीद जगी थी कि हवाई सेवाएं किफायती होंगी और आम आदमी भी जरूरत पड़ने पर विमान यात्रा कर सकेगा। मगर किराया निर्धारण में कोई नियामकीय व्यवस्था न होना और निजी विमानन कंपनियों को खुली छूट आम लोगों की उम्मीदों पर भारी पड़ रही है। मांग और आपूर्ति के बीच असंतुलन की आड़ में किराये में अक्सर की जाने वाली वृद्धि के कारण हवाई सेवाओं की पहुंच आर्थिक रूप से सक्षम वर्ग तक ही सिमटती प्रतीत हो रही है।
यही वजह है कि अब शीर्ष अदालत ने निजी विमानन कंपनियों की ओर से लागू हवाई किराये और अन्य शुल्कों में अप्रत्याशित उतार-चढ़ाव को लेकर केंद्र सरकार, नागरिक उड्डयन महानिदेशालय और भारतीय विमानपत्तन आर्थिक नियामक प्राधिकरण को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। इससे संबंधित याचिका में नागरिक उड्डयन क्षेत्र में पारदर्शिता, किराया नियंत्रण और यात्री सुरक्षा के लिए एक स्वतंत्र नियामक स्थापित करने की मांग की गई है।
गौरतलब है कि त्योहारों और छुट्टियों के दौरान तथा उड़ान के अंतिम समय में ज्यादातर विमानन कंपनियां मनमाने तरीके से किराये में बढ़ोतरी कर देती हैं। जबकि कई बार कुछ लोग आपात स्थिति या मजबूरी के कारण आखिर में विमान यात्रा का विकल्प चुनते हैं। मगर सरकार की ओर से इस संबंध में न तो कोई हस्तक्षेप किया जाता है और न ही किसी तरह के दिशा-निर्देश जारी किए जाते हैं। साफ है कि विमानन कंपनियों के इस तरह मुनाफा कमाने पर कोई लगाम नहीं है।
इस मसले पर शीर्ष अदालत में दायर याचिका में दावा किया गया है कि निजी विमानन कंपनियों ने बिना किसी ठोस कारण के इकोनामी श्रेणी के यात्रियों के लिए मुफ्त ‘चेक-इन बैगेज’ भत्ते को 25 किलोग्राम से घटाकर 15 किलोग्राम कर दिया है। यानी पहले टिकट सेवा का हिस्सा रहे सामान को अब राजस्व के एक नए स्रोत में बदल दिया गया है। सच यह है कि वर्तमान में किसी भी प्राधिकरण के पास हवाई किराये या सहायक शुल्कों को सीमित करने का अधिकार नहीं है। उम्मीद है कि शीर्ष अदालत के दखल से हवाई किराये को नियंत्रित करने के लिए नियामक सुरक्षा उपाय लागू होंगे और आम आदमी को राहत मिलेगी।
