दिल्ली में प्रदूषण की गहराती समस्या को लेकर आए दिन चिंता जताई जाती है, लेकिन इसे दूर करना प्राथमिकता में शामिल नहीं है। ठोस अपशिष्ट के निपटान को लेकर टालमटोल का रवैया यही दिखाता है कि संबंधित सरकारी महकमों की ओर से प्रदूषण से निपटने के लिए सख्त कदम उठाने के दावों की हकीकत क्या है। दिल्ली की आबोहवा को नुकसान पहुंचाने में ठोस अपशिष्ट की भूमिका से सभी वाकिफ हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली नगर निगम को लगाई फटकार

इसका यहां के लोगों को बहुस्तरीय नुकसान उठाना पड़ रहा है। इसी रवैये पर शुक्रवार को सर्वोच्च न्यायालय ने काफी हैरानी जताई और ठोस अपशिष्ट प्रबंधन में घोर लापरवाही को लेकर दिल्ली नगर निगम को कड़ी फटकार लगाई। अदालत ने साफतौर पर कहा कि राष्ट्रीय राजधानी में ठोस अपशिष्ट प्रबंधन नियमों के क्रियान्वयन की स्थिति बेहद दयनीय है; यहां प्रतिदिन तीन हजार टन से अधिक ठोस अपशिष्ट अनुपचारित रह जाता है, जो कभी भी जन स्वास्थ्य के लिए आपात स्थिति का कारण बन सकता है। सवाल है कि दिल्ली में ठोस अपशिष्ट के निपटान में लापरवाही को किस हद तक छूट दी जा सकती है।

गौरतलब है कि दिल्ली में हर रोज करीब ग्यारह हजार टन से ज्यादा ठोस अपशिष्ट पैदा होता है, जिसमें लगभग तीन हजार टन कचरे का निपटान नहीं हो पाता। अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक महीने में यह आंकड़ा क्या हो जाता होगा और उससे समस्या की गंभीरता किस स्तर पर पहुंच सकती है।

एक सवाल यह भी है कि अगर इतनी बड़ी मात्रा में कचरे का निपटान नहीं हो पाता, तो उसका क्या होता है और आसपास के इलाकों में उसका क्या असर पड़ता होगा। छिपा नहीं है कि दिल्ली में भलस्वा, गाजीपुर और ओखला कचरा पट्टियों पर जितने बड़े पैमाने पर ठोस अपशिष्ट जमा होता गया है, उससे आसपास के इलाकों में भयावह समस्याएं पैदा हो गई हैं।

इन जगहों पर अक्सर आग लगने और कई-कई घंटों तक कचरा जलते रहने की खबरें आती रहती हैं, जिससे वहां के लोगों का रहना दूभर हो जाता है। इसलिए अगर सुप्रीम कोर्ट ने इसकी वजह से जन स्वास्थ्य के लिए आपात स्थिति पैदा होने की आशंका जाहिर की है, तो इसकी गंभीरता को समझने की जरूरत है।