राजौरी इलाके में तलाशी अभियान में जुटी सेना की एक टुकड़ी को अत्याधुनिक विस्फोटक से उड़ा दिया, जिसमें पांच सैनिक मारे गए। कुछ दिनों पहले ही पुंछ में सेना के वाहन पर हमला किया गया था, जिसमें पांच सैनिक शहीद हो गए थे। उसी घटना से जुड़े आतंकियों की तलाश में सेना की टुकड़ी ने राजौरी इलाके में घेराबंदी की थी। इन दोनों घटनाओं में जिस तरह के हथियार और विस्फोटक इस्तेमाल किए गए, वे हमारे देश में नहीं बनते।

इससे यह सवाल और गहरा हुआ है कि आखिर तमाम चौकसी और सघन तलाशी अभियान के बावजूद आतंकवादियों तक ऐसे साजो-सामान पहुंच कैसे रहे हैं। सरकार दावा कर रही थी कि जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा हटाने और लगातार सीमा पर कड़ी निगरानी बनाए रखने की वजह से दहशतगर्दी में काफी कमी आई है। मगर कुछ-कुछ अंतराल पर ऐसी घटनाएं हो जाने से सरकार के दावे खोखले ही साबित हो रहे हैं। इससे यही रेखांकित हो रहा है कि दहशतगर्दी से निपटने के लिए जैसी तैयारी होनी चाहिए, वैसी अभी तक नहीं हो पाई है। इस दिशा में नए सिरे से रणनीति बनाने की जरूरत है।

यह ठीक है कि सख्ती बढ़ने से दहशतगर्दों की गतिविधियों पर कुछ लगाम लगी है, मगर घाटी में उनकी मौजूदगी कम हुई है, ऐसा बिल्कुल नहीं लगता। हालांकि पिछले आठ-नौ वर्षों में वहां सुरक्षाबलों की तैनाती बढ़ाई गई है, सीमा पार से होने वाली घुसपैठ पर कड़ी नजर रखी जा रही है, सघन तलाशी अभियान के जरिए आतंकवादियों के ठिकानों का पता लगाने में तेजी आई है, मगर हकीकत यही है कि वे अपनी रणनीति लगातार बदलते रहते हैं और सुरक्षाबलों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने में कामयाब हो रहे हैं।

कुछ समय पहले उन्होंने कश्मीरी पंडितों और बाहरी लोगों को निशाना बना कर हमले तेज कर दिए थे, अब सेना और सुरक्षाबलों को निशाना बना रहे हैं। जाहिर है, सेना की हर गतिविधि पर उनकी नजर है और वे घात लगा कर अपनी साजिशों को अंजाम देने में कामयाब हो रहे हैं, जबकि खुफिया तंत्र उनकी निशानदेही में विफल साबित हो रहा है। सबसे बड़ी चिंता की बात है कि इन आतंकवादियों को समर्थन और सहयोग कहां से मिल रहा है। घुसपैठ की दर कम हुई है, हर हफ्ते दहशतगर्दों को मार गिराया जाता है, फिर भी वे उठ खड़े हो रहे हैं, तो जाहिर है, स्थानीय युवाओं को वे हथियार उठाने को तैयार कर पा रहे हैं।

सड़क मार्ग के जरिए पाकिस्तान से होने वाली तिजारत बंद है, जो आतंकवादियों तक हथियार और विस्फोटक पहुंचाने का बड़ा माध्यम हुआ करती थी। फिर उन्हें वित्तीय मदद पहुंचाने वालों की पहचान कर सलाखों के पीछे डाला जा चुका है। बाहर से होने वाली हर लेन-देन पर कड़ी नजर है। फिर भी आतंकवादियों तक बाहरी देशों में बने हथियार और दूसरे साजो-सामान पहुंच रहे हैं, तो इस पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है।

इसके साथ-साथ फिर इस जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता कि दहशतगर्दी खत्म करने के लिए स्थानीय लोगों का भरोसा जीता जाना चाहिए। केवल बंदूक के बल पर वहां के लोगों का मन नहीं बदला जा सकता। फिर यह भी स्पष्ट है कि पाकिस्तान की जमीन से ही इन संगठनों को ताकत मिल रही है, इसलिए उस पर और कड़ी नजर रखने की जरूरत है।