राजनीति में बाहुबलियों के प्रवेश पर रोक लगाने की मांग लंबे समय से की जाती रही है। इसे लेकर कुछ मौकों पर कड़े कदम भी उठाने के प्रयास हुए। मगर हकीकत यही है कि हर चुनाव के बाद संसद और विधानसभाओं में आपराधिक छवि के सदस्यों की संख्या कुछ बढ़ी हुई ही दर्ज होती है। निर्वाचन आयोग ने चुनावी पर्चा भरते वक्त प्रत्याशियों से अपनी संपत्ति के साथ-साथ आपराधिक मामलों का ब्योरा भी देने का प्रावधान बनाया। इससे लगा था कि राजनीति में आपराधिक छवि वाले लोगों की पैठ रुक जाएगी। मगर वह नियम बहुत कारगर साबित नहीं हुआ।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अगर कोई राजनीतिक दल ऐसी छवि वाले किसी व्यक्ति को चुनाव मैदान में उतारती है, तो उसे बताना होगा कि उसने उसे ही क्यों चुना, क्या उसके पास उससे बेहतर कोई प्रत्याशी नहीं था। मगर यह नियम भी बहुत बाध्यकारी साबित नहीं हुआ। इसका नतीजा है कि न केवल बाहुबली बहुत आसानी से राजनीति में प्रवेश पा जाते हैं, बल्कि चुनाव जीतने के बाद भी अपने बाहुबल का प्रदर्शन करने से गुरेज नहीं करते। उत्तराखंड में हरिद्वार की खानपुर सीट से वर्तमान विधायक और पूर्व विधायक के बीच हुई गोलीबारी इसका ताजा उदाहरण है।
सोशल मीडिया पर हुई थी तीखी नोक-झोंक
बताया जा रहा है कि पूर्व विधायक और मौजूदा विधायक के बीच कुछ समय से सोशल मीडिया पर तीखी नोक-झोंक चल रही थी। यह तल्खी इतनी बढ़ी कि मौजूदा विधायक हथियारबंद होकर पूर्व विधायक के घर पहुंच गए और उनके परिजनों को धमकाया। इसकी प्रतिक्रिया में पूर्व विधायक भी हथियार लेकर सदलबल मौजूदा विधायक के दफ्तर पहुंचे और न केवल उन्हें अपशब्द कहे और ललकारा, बल्कि गोलियां भी दागीं। उसकी तस्वीरें खुद उन्होंने सोशल मीडिया पर भी डालीं।
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हालांकि इस घटना के बाद पुलिस ने पूर्व विधायक को गिरफ्तार कर लिया है और वर्तमान विधायक के खिलाफ भी कार्रवाई करने का भरोसा दिलाया है। पूर्व विधायक सत्तारूढ़ दल के हैं और वर्तमान विधायक निर्दलीय। यह भी बताया जा रहा है कि करीब पांच साल पहले भी पूर्व विधायक ने ऐसी अशोभन हरकत और गाली-गलौज की भाषा का इस्तेमाल किया था। उसके बाद पार्टी ने उन्हें निलंबित कर दिया था। मगर बाद में उन्हें फिर पार्टी में जगह दे दी गई।
बहुत मायने रखता है राजनेता का आचरण
ताजा घटना इसलिए चिंता का विषय है कि जब जनप्रतिनिधि खुद सोशल मीडिया पर इस कदर तल्ख टिप्पणियां करते हैं कि उससे गोली चलाने जैसी उत्तेजना पैदा हो जाती है, तो वे किसी गंभीर समस्या को सुलझाने में कितने संतुलित व्यवहार कर पाते होंगे।
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राजनेता का आचरण बहुत मायने रखता है। उसके व्यवहार का अनुकरण उसके समर्थक भी करते हैं। अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि दोनों विधायकों के नीचे की कतार के नेताओं, कार्यकर्ताओं पर क्या असर पड़ा होगा। वे भी कभी ऐसा व्यवहार नहीं करेंगे, इसकी क्या गारंटी। अक्सर सत्तापक्ष के नेता इस भरोसे के साथ हिंसक व्यवहार करने से नहीं हिचकते कि कानून के शिकंजे से वे आसानी से निकल जाएंगे।
चुने हुए प्रतिनिधि के आत्मविश्वास का तो अनुमान लगाया जा सकता है। कानून इस मामले में कितनी सख्ती बरत पाएगा, दावा नहीं किया जा सकता, क्योंकि रसूखदार लोगों के मामले में पुलिस का रवैया कोई उत्साहजनक नहीं देखा जाता। मगर इस घटना के बाद राजनीतिक दलों से एक बार फिर यह स्वाभाविक अपेक्षा की जाती है कि वे अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को अनुशासित करने का प्रयास करेंगे।