उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन से लेकर तमाम सियासी उठापटक के बीच आखिरकार सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के तहत विधानसभा में मंगलवार को शक्ति परीक्षण संपन्न हो गया। लेकिन इस समूची हलचल की शुरुआत कांग्रेस के जिन बागी विधायकों की वजह से हुई थी, अब उनके सामने स्थिति विकट हो गई है। गौरतलब है कि पिछले महीने की अठारह तारीख को उत्तराखंड में कांग्रेस के नौ विधायकों ने पार्टी से बगावत कर हरीश रावत की सरकार को गिराने की भूमिका रचने की कोशिश की। लेकिन आखिरकार पहले हाइकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट ने भी दल-बदल निरोधक कानून के तहत उन्हें अयोग्य ठहराने के विधानसभा अध्यक्ष के फैसले को सही माना। फिर बागी विधायकों का खेल खराब हो गया। उनके वोट न पड़ने की सूरत में, अनुमान है कि हरीश रावत ने बहुमत का आंकड़ा हासिल कर लिया होगा।
लेकिन पार्टी से बगावत करके नया राजनीतिक समीकरण बनाने के फेर में कांग्रेस के बागी विधायक फिलहाल ऐसी जगह खड़े दिख रहे हैं, जहां उन्हें हासिल तो कुछ नहीं हुआ, लेकिन उनसे छिन बहुत कुछ गया। उन्हें उम्मीद रही होगी कि रावत सरकार गिराने के बाद वैकल्पिक सरकार बनने पर उनके पौ बारह रहेंगे। पर मुराद पूरी होना तो दूर, वे विधायकी भी गंवा बैठे। इन बागी नेताओं में उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा सहित कई वरिष्ठ नेता शामिल हैं। राजनीति की दुनिया में लंबा अनुभव अर्जित करने के बावजूद क्या उन्हें अपने आंकड़ों का हिसाब और दल-बदल कानून का ध्यान रखना जरूरी नहीं लगा? बसपा के जिन सदस्यों के बारे में यह अंदाजा लगाया गया था कि वे कांग्रेस के बागी नेताओं और भाजपा का साथ देंगे, उनके भी शक्ति परीक्षण में हरीश रावत के पक्ष में होने की खबर आई।
बिना किसी नैतिक दुविधा के अपनी सुविधा और लाभ के लिए दल बदलने की प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए तकरीबन तीस साल पहले दल-बदल अधिनियम बना था। इसमें कई दूसरे नियमों के अलावा यह व्यवस्था भी है कि किसी राजनीतिक दल से अलग होने के लिए विधायक या सांसदों की कुल संख्या का एक तिहाई होना अनिवार्य है। लेकिन उत्तराखंड में कांग्रेस से बगावत करने वाले विधायकों की संख्या पार्टी के कुल विधायकों के एक तिहाई से कम थी। लिहाजा, विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल ने उनकी विधायकी खत्म कर दी। अब कांग्रेस से निकले ये लोग मिल कर कोई नई पार्टी बनाएंगे, भाजपा में शामिल होंगे या फिर कांग्रेस में इनकी वापसी होगी, यह तो भविष्य बताएगा, लेकिन फिलहाल राज्य में भारी पड़ी कांग्रेस ने इन्हें ‘जयचंद’ कह कर घेरना शुरू कर दिया है।
उत्तराखंड की इस राजनीतिक उठापटक के बीच कुछ नेताओं में जिस तरह की व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं के टकराव की खबरें आर्इं, उससे यह सवाल भी उठा कि किसी राजनीतिक दल से अलग होने के लिए क्या वैचारिक आधार का महत्त्व कम हो रहा है। बहरहाल, उत्तराखंड के राजनीतिक घटनाक्रम में रावत को राहत भले मिल गई हो, पर कांग्रेस की अंदरूनी कमजोरी भी जाहिर हुई है। भाजपा की किरकिरी तो हुई ही है, जो धारा तीन सौ छप्पन के दुरुपयोग के लिए कांग्रेस को हमेशा कोसती आई थी, पर उसने खुद भी वही किया।